झुके हुए कंधों से सिपाही समूह में ट्रेन की तरफ बढ़ रहे हैं, रास्ते में एक बूढ़ा सबको ब्रेड बांटता और शुक्रिया कहता है. एक सिपाही ठिठक कर पूछता है ‘लेकिन हम तो लड़े ही नहीं, हम केवल बच कर आए हैं’, बूढ़ा कहता है ‘बच के आना भी जीत है’, वह बूढ़ा जो अंधा भी है अपने हाथों से उसका चेहरा छूता है. क्रिस्टोफर नोलन की हालिया फिल्म ‘डनकर्क’ में यह दृश्य सिनेमा के अंत में आता है. जब तक हम युद्ध पर आधारित एक ऐसी फिल्म देख चुके होते हैं जिसमें लड़ने की नहीं लड़ाई के मैदान से बच निकलने की बात है. शौर्य से दीप्त चेहरे की जगह सिपाहियों के भय और आशंका में भीगे चेहरे और घर लौटने की व्यग्रता देख कर उनके भीतर के तनाव को हम अपने भीतर महसूस करते हैं.
सिनेमा के दौरान बनती बिगड़ती परिस्थितियों के साथ यह तनाव घटता बढ़ता रहता है. ‘डनकर्क’ युद्ध आधारित सिनेमा के इतिहास में एक बड़ा प्रस्थान बिंदु है जो एक साथ युद्ध विरोध और युद्ध की अनिवार्यता का आख्यान रचता है, निहितार्थो में अत्यंत गहन पाठ की सम्भावना लिए एक हुए डनकर्क ऐसा सिनेमा है जो बोलता कम दिखाता अधिक है.
दूसरे विश्व युद्ध की शुरूआत का समय है जर्मनी ने ब्रिटेन और फ्रांस की सेना को डनकर्क में घेर दिया है, ब्रिटेन वहां से अपने सैनिकों को निकालने का निर्णय करता है. सैनिकों को सुरक्षित निकालने के लिये ऑपरेशन डायनेमो चलाया जाता है. सैनिकों को छोटे छोटे नावों से और नागरिकों की सहायता से इंगलिश चैनल में इक्कीस मील की दूरी तय कराके निकालना है. लगभग पौने चार लाख सैनिकों में से ब्रिटेन तीन लाख सैनिकों को निकाल पाता है, जर्मन वायु सेना के हमले में सैनिक हताहत भी होते हैं. तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने इसे चमत्कार कहा था. क्रिस्टोफर नोलन, युद्ध पर अपना दृष्टिकोण पेश करने के लिए दूसरे विश्व युद्ध के परिणाम पर दूरगामी प्रभाव डालने वाली घटना को चुनते हैं. सन्देश स्पष्ट है लड़ना ही नहीं बचना भी महत्त्वपूर्ण है. इतिहास में उल्लेख है कि डनकर्क से लगभग तीन लाख सैनिकों को निकालने के बाद प्रधानमंत्री चर्चिल ने अपना महत्त्वपूर्ण भाषण दिया था, ‘हम लड़ेंगे’. डनकर्क को हिटलर की भूल भी कहा गया कि बड़ी क्षति पहुँचाने की बजाए उसने डराने की नीति अपनाई, बच कर निकले हुए इन्हीं सैनिको ने विश्वयुद्ध में दूसरे मोर्चे पर जर्मनों से लोहा लिया.
सिनेमा में तीन घटनास्थल हैं. पहला, समुद्री किनारा जहां से सैनिकों को निकालना है. इसे नोलन ने मोल का नाम दिया है. इसमें प्रमुख चरित्र आर्मी और नेवी के कमांडर और तीन सैनिक हैं जो जल्दी से अपने घर पहुंचना चाहते है. युद्ध के खौफ को दिखाने का माध्यम नोलन ने इन्हीं सैनिकों को बनाया है. ये तीनों सैनिक एक के बाद दूसरे जहाज और नाव में सवार होते हैं जो जर्मन हमले से डूबता जाता है. नोलन ने बमों के गिरने के स्पेक्टेकल की बजाए बमों के गिरने के बीच रेत में सर गड़ाए, पानी के भीतर छुपते सैनिकों के चेहरे को दिखाने को अधिक तवज्जो दी है. हमलों के बीच सैनिकों ने एक नाव में पनाह ली है और ज्वार भाटे की प्रतीक्षा में हैं ताकि नाव किनारे से पानी में आ जाए. तभी बाहर से गोली चलने लगता है, और गोली से हुए सुराख को बंद करने जब एक सैनिक जाता है तो उसके हाथ में गोली लगती है. गोली चलने की आवाज और सैनिक के हाथ का खून उनमें जीवन की डुबती आशा को व्यक्त करने के साथ यह भी बताता है कि संकट के क्षणों में सैनिक कितने असहाय होते हैं, वो जिनके लिए लड़ रहे होते हैं वो इन क्षणों में कहीं नहीं होते हैं.
इसी हिस्से में मनुष्यता और अन्य दूसरी पहचानों का मसला सामने आता है. मनुष्य एक साथ रहते हुए भी पहचान के आधार पर बंट जाते हैं और एक दूसरे के खिलाफ हो जाते हैं. नोलन सिनेमा में ब्रिटिश राष्ट्रवादी नजरिया ही दिखाते हैं. फ्रेंच सैनिकों भी ब्रिटिश सैनिकों के साथ इस द्बीप पर फंसे है, लेकिन विश्व युद्ध में साथ लड़ रहे दोनों देशों के सैनिकों को एक साथ यहां से निकलना नहीं है, फ्रेंच सैनिकों को जहाज में जाने नहीं दिया जाता. सिनेमा के अंत में अंग्रेज सैनिक सैनिको के द्वीप से निकलने के बाद ब्रिटिश नेवी कमांडर तय करता है की वह द्वीप पर ही रूकेगा जब तक फ्रेंच सैनिकों के लिए सहायता नहीं आ जाती.
दूसरा स्पेस है समुद्र. ब्रिटिश सरकार सैनिकों को निकालने के लिए बड़े नौसेनिक जहाजों की जगह अपने नागरिकों से अपील करती है कि वह अपने छोटे नाव लेकर डनकर्क चलें और सैनिकों की मदद करें. एक बुजुर्ग डॉसन, अपने बेटे और सहायक जॉर्ज के साथ डनकर्क के लिये निकलते हैं. रास्ते में वो एक सैनिक को बचाते हैं जो डरा हुआ है और डॉसन को डनकर्क जाने से रोकता है. नोलान इस सैनिक के भय और हताशा को कैमरे से उभारते हैं, इसके लिए डनकर्क जाना मूर्खता है, सैनिक के लिए राष्ट्र और दूसरे सैनिकों की जान से अधिक अपनी चिंता करने को कहीं से भी स्वार्थ और कायरता के रूप में नहीं दिखाया गया है. इसी चिंता में यह सैनिक डॉसन को रोकते हुए हिंसक होता है, हाथापाई में जॉर्ज घायल हो जाता है और अंतत: उसकी जान जाती है. जार्ज एक साधारण लड़का है जो कुछ साहसी करने के लिए अंतिम क्षण में डॉसन के साथ हो लेता है.
युद्ध का आकर्षण और लड़ने की गौरव गाथा का हिस्सा बनने की आकांक्षा युवा वर्ग को सेना की ओर खींचती है, मरते वक्त जॉर्ज अपने बिना कुछ किए मर जाने के अफसोस में है. नोलन इस सिनेमा में होने वाली कई मौतों के बीच जॉर्ज की मौत पर फोकस करते हैं और इस मौत का जिक्र भी अख़बार में आ ही जाता है. हवा में उड़ते, डूबते और बिना लड़े मरते सैनिकों की मौत के बीच यह मौत अंदर तक धंस जाती है. डॉसन अपने एक बेटे को युद्ध में गंवा चुके हैं लेकिन दूसरे बेटे के साथ निकल पड़े हैं क्योंकि वो सैनिकों के जान की कीमत समझते हैं. इस हिस्से में डॉसन और बचाए गए सैनिक के बीच संवाद के जरिए फिल्म का नजरिया सामने आता है जो अतिरिक्त लगता है क्योंकि फिल्म का मौन पर्याप्त मुखर है.
तीसरा स्पेस आकाश का है. ब्रिटिश एयरफोर्स के तीन विमान सैनिकों को निकालने के लिए और जर्मन वायुसेना से लड़ने के लिए निकले हैं. इस हिस्से में टॉम हार्डी है जिनका चेहरा एक आध मौकों पर ही दीखता है. कैमरा अधिकांश आँखों और उंगलियों पर टिका है. हार्डी के विमान में इंधन कम है, दो साथी विदा हो चुके हैं और सामने जर्मन एयरफोर्स के प्लेन हैं. नोलन यहां एक नायक सरीखे सैनिक की हताशा और कुछ करने के जज्बे दोनों को उभारते हैं. मरना तय जान कर भी सैनिक अंत तक लड़ता है. जिस विमान से जर्मन लड़ाकु विमान को गिराया गया उसी को जलते हुए कातर नेत्रों से हार्डी देखते हैं, सैनिक के लिये हथियार केवल यंत्र भर नहीं. जो समय बतौर नायक सेलिब्रेट करने का हो सकता था उसी समय हार्डी को सैनिकों से घिरा दिखाकर नोलन इसकी संभावना खत्म कर देते हैं.
हमेशा की तरह नोलन की यह फ़िल्म सरल रेखा में नहीं है लेकिन जटिलता ‘इंटरस्टेलर’ और ‘इंसेप्शन’ जैसी फ़िल्मों से कम हैं. धरती, समुद्र और आकाश में घटने वाले तीनों हिस्सों का समय एक नहीं है. क्रमश: सात दिन, एक दिन और कुछ घंटों का है जिन्हें बेहतरीन संपादन के जरिए एक साथ बुना गया है. यथार्थ की रैखिकता को भंग कर स्पेस और समय के साथ खेलने की जो छूट सिनेमाई तकनीक में है उसका नोलान बखूबी इस्तेमाल करते रहे हैं. क्योंकि ये हमें एक ही समय को देखने का अलग अलग नजरिया भी देता है.
खून और बमों की दृश्यात्मकता और वार सिनेमा के क्लीशे दिखाने में नोलन ने कोई रुचि नहीं ली है. वीरता या क्रूरता के आख्यान से अलग सैनिकों के पलायन को विषय चुनना ही विशिष्ट है. हैंस जिमर की पार्श्व ध्वनि, जो नोलन की फिल्मों का अनिवार्य हिस्सा होता है, हमें एक अनिष्ट की आशंका में उलझाए रहता है जिसकी मुक्ति 116 मिनट बाद फिल्म के ख़त्म होने पर होती है. फिल्म में दुश्मन कहीं दिखता नहीं है लेकिन उसका खौफ पार्श्व ध्वनि के रूप में हृदय पर मंडराता है. आकाश में कान लगाए नेवी कमांडर दिखता है फ़िर तेजी से लडाकू विमानों की आवाज चीरती हुई चली जाती है, बमों गिरने के बीच सैनिकों के बचने की कवायद में भी दृश्यात्मकता में एक लय है. सिनेमा में पार्श्व ध्वनि एक चरित्र की तरह अपनी मौजूदगी बनाए रखती है.
सैनिक, सैनिक होने के पहले मनुष्य ही है, वीरता और कायरता के आख्यानों के बीच उसकी चिंता साधारण मनुष्य की ही है जो एक नागरिक के नाते हम स्वीकार नहीं कर पाते, या करना नहीं चाहते जब हम देखते हैं कि सैनिक देश के साथ अपने खाने, पीने, पहनने और निजी गरिमा के बारे में बोलते हैं. युद्ध के लिये नथुने फ़ुलाते और इसको एकमात्र अंतिम समाधान मानते लोगो को डनकर्क देख लेना चाहिए. सिनेमा के क्लाइमेक्स में नेवी कमांडर पानी की ओर देखता रहता है, ब्रिटेन सरकार की अपील काम कर गई है, इंग्लिश चैनल में आते छोटे छोटे जहाज उसे दिखते हैं, सैनिक उससे पूछता है आप क्या देख रहे हैं वह कहता है ‘उम्मीद’. यही वो शब्द है जो सैनिक अपने घर से लेकर निकलते हैं, वापस घर पहुंचने तक.
(अमितेश कुमार एनडीटीवी में रिसर्चर हैं)
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This Article is From Aug 01, 2017
‘डनकर्क’ युद्ध आधारित सिनेमा के इतिहास में एक बड़ा प्रस्थान बिंदु
Amitesh Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 01, 2017 12:20 pm IST
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Published On अगस्त 01, 2017 00:38 am IST
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Last Updated On अगस्त 01, 2017 12:20 pm IST
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