- खिरखिरी गांव की दो आदिवासी महिलाओं ने तहसीलदार के सामने अपनी जमीन पर कब्जे की शिकायत की
- सावित्री बाई ने बताया कि प्रभावशाली लोगों ने उनकी जमीन पर कब्जा कर झोपड़ी तोड़ दी और पक्के निर्माण कर लिए
- तहसीलदार रोशनी शेख ने महिलाओं की बात सुनकर संबंधित अधिकारियों को कार्रवाई का निर्देश दिया
मध्य प्रदेश के कराहल ब्लॉक के खिरखिरी गांव की दो आदिवासी महिलाओं की कराहल तहसील कार्यालय में की गई भावुक अपील ने प्रशासनिक संवेदनशीलता और आदिवासी समुदायों की ज़मीन से जुड़े संघर्ष को एक बार फिर से लोगों के सामने ला दिया है. सावित्री बाई और उनकी बहू ने अपनी पुश्तैनी जमीन पर कथित कब्जे के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए तहसीलदार रोशनी शेख के पैरों में गिरकर मदद की गुहार लगाई. यह दृश्य तब सामने आया जब तहसीलदार कार्यालय से बाहर निकल रही थीं. वहां महिलाएं सीढ़ियों पर उनके पैरों में गिर पड़ीं और रोते हुए बोलीं, "मैडम, कुछ करिए... नहीं तो हम आत्महत्या कर लेंगे."
कब्जे की कहानी और प्रशासनिक चुप्पी
इस मामले में सावित्री बाई का आरोप है कि गांव के कुछ प्रभावशाली लोगों ने उनकी झोपड़ी को तोड़कर उनकी जमीन पर कब्जा कर लिया है और वहां पक्के निर्माण भी कर दिए हैं. उन्होंने बताया कि यह जमीन उनके परिवार की पुश्तैनी संपत्ति है, जिस पर वे सालों से रह रहे थे. महिलाओं ने पुलिस और तहसील कार्यालय में कई बार शिकायतें भी की, लेकिन अब तक किसी तरह की ठोस कार्रवाई नहीं हुई. अधिकारियों के ढ़ीले रवैये ने उन्हें इस कदर निराश कर दिया कि वे तहसीलदार के सामने फूट-फूट कर रो पड़ीं.
तहसीलदार का मानवीय रुख
इस भावुक अपील से प्रभावित होकर तहसीलदार रोशनी शेख ने वहीं सीढ़ियों पर बैठकर महिलाओं की पूरी बात सुनी और उन्हें आश्वासन दिया कि वह स्वयं मामले की जांच करेंगी. उन्होंने मौके पर ही संबंधित अधिकारियों को निर्देश दिए कि अवैध कब्जे की जांच कर तत्काल कार्रवाई की जाए. स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं और ग्रामीणों का कहना है कि यह मामला कराहल ब्लॉक में आदिवासी समुदायों की जमीन पर हो रहे संगठित कब्जों और प्रशासनिक निष्क्रियता की एक बानगी भर है. क्योंकि कई आदिवासी परिवार सालों से अपनी जमीन वापस पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन राजनीतिक दबाव और प्रभावशाली लोगों की मिलीभगत के चलते उनके लिए इंसाफ दूर की कौड़ी हो गया.
ऐसे मामले में उठ रहे ये सवाल
- क्या प्रशासनिक तंत्र आदिवासी समुदायों की ज़मीन की रक्षा करने में विफल हो रहा है?
- क्या राजनीतिक दबाव के चलते ज़मीन माफियाओं को खुली छूट मिल रही है?
- क्या ऐसी घटनाएं आदिवासी समाज में कानून और व्यवस्था के प्रति विश्वास को कमजोर कर रही हैं?
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