प्रतीकात्मक फोटो.
नई दिल्ली:
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के लिए नोट बदलने के आरोप में गिरफ्तार किए गए सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों की एक टीम को रिहा करने की मांग तेज होती जा रही है. सामाजिक संगठनों और बुद्धिजीवियों ने कहा है कि नोटबंदी की आड़ में छत्तीसगढ़ पुलिस उन लोगों की आवाज को दबा रही है जो नक्सल प्रभावित इलाकों में मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाओं को उजागर कर रहे हैं और पुलिस की ओर से की गई फर्जी मुठभेड़ों पर सवाल उठा रहे हैं.
गौरतलब है कि गत 25 दिसंबर को तेलंगाना से गई पत्रकारों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की सात सदस्यों की नागरिक जांच टीम की गिरफ्तारी की खबर आई. यह गिरफ्तारी कथित रूप से दक्षिण बस्तर के सुकमा से की गई. इन लोगों पर छत्तीसगढ़ पुलिस ने माओवादियों के लिए एक लाख रुपये के पुराने नोट बदलने का आरोप लगाया है. साथ ही इन लोगों के पास माओवादी साहित्य पाए जाने की बात कही गई है. यह सातों लोग अभी जेल में हैं और पुलिस ने इन पर अन्य आरोपों के अलावा छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा कानून लगाया है.
हालांकि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने पुलिस के आरोपों का खंडन किया है और कहा है कि 25 दिसंबर को यह गिरफ्तारी सुकमा में नहीं हुई, बल्कि उस दिन पहले सुबह तेलंगाना पुलिस ने दुम्मुगूडेंम गांव में इन लोगों को पकड़ा और फिर सुकमा में छत्तीसगढ़ पुलिस को सौंप दिया.
अब मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने इन लोगों को तुरंत रिहा करने की मांग की है. एमनेस्टी इंटरनेशन इंडिया के प्रवक्ता रघु मेनन ने एनडीटीवी इंडिया से कहा, “यह पहली बार नहीं है कि छत्तीसगढ़ में किसी सामाजिक कार्यकर्ता, वकील या पत्रकार को परेशान किया गया है. पिछले तकरीबन डेढ़ साल से लगातार उन लोगों को डराने का काम हो रहा है जो पुलिस की दमनपूर्ण कार्रवाई पर सवाल उठाते हैं. इससे हालात सुधरने के बजाय और खराब ही होंगे.”
उधर मानवाधिकारों के लिए लड़ रही वकील शालिनी गैरा ने भी मानवाधिकार आयोग को पत्र लिखकर कहा है कि छत्तीसगढ़ पुलिस उन्हें डरा-धमका रही है. उन्होंने आयोग को लिखे पत्र के साथ बस्तर के एसपी के साथ बातचीत का ऑडियो भी लगाया है जिसमें एसपी आरएन दास उन्हें डराने-धमकाने को सही ठहरा रहे हैं.
गौरतलब है कि पिछले कुछ वक्त से बस्तर में पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और वकीलों को डराने की घटनाएं सामने आई हैं. पिछले साल पहले सोमारू नाग, संतोष यादव, दीपक जायसवाल और प्रभात कुमार को गिरफ्तार किया गया. फिर जगदलपुर में जेल में बंद लोगों को कानूनी सलाह दे रहे वकीलों को वहां से जाने पर मजबूर होना पड़ा. पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम को डरा-धमकाकर जगदलपुर से भगा दिया गया. इसके बाद से लगातार बस्तर पुलिस पर सवाल खड़े होते रहे हैं.
गौरतलब है कि गत 25 दिसंबर को तेलंगाना से गई पत्रकारों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की सात सदस्यों की नागरिक जांच टीम की गिरफ्तारी की खबर आई. यह गिरफ्तारी कथित रूप से दक्षिण बस्तर के सुकमा से की गई. इन लोगों पर छत्तीसगढ़ पुलिस ने माओवादियों के लिए एक लाख रुपये के पुराने नोट बदलने का आरोप लगाया है. साथ ही इन लोगों के पास माओवादी साहित्य पाए जाने की बात कही गई है. यह सातों लोग अभी जेल में हैं और पुलिस ने इन पर अन्य आरोपों के अलावा छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा कानून लगाया है.
हालांकि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने पुलिस के आरोपों का खंडन किया है और कहा है कि 25 दिसंबर को यह गिरफ्तारी सुकमा में नहीं हुई, बल्कि उस दिन पहले सुबह तेलंगाना पुलिस ने दुम्मुगूडेंम गांव में इन लोगों को पकड़ा और फिर सुकमा में छत्तीसगढ़ पुलिस को सौंप दिया.
अब मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने इन लोगों को तुरंत रिहा करने की मांग की है. एमनेस्टी इंटरनेशन इंडिया के प्रवक्ता रघु मेनन ने एनडीटीवी इंडिया से कहा, “यह पहली बार नहीं है कि छत्तीसगढ़ में किसी सामाजिक कार्यकर्ता, वकील या पत्रकार को परेशान किया गया है. पिछले तकरीबन डेढ़ साल से लगातार उन लोगों को डराने का काम हो रहा है जो पुलिस की दमनपूर्ण कार्रवाई पर सवाल उठाते हैं. इससे हालात सुधरने के बजाय और खराब ही होंगे.”
उधर मानवाधिकारों के लिए लड़ रही वकील शालिनी गैरा ने भी मानवाधिकार आयोग को पत्र लिखकर कहा है कि छत्तीसगढ़ पुलिस उन्हें डरा-धमका रही है. उन्होंने आयोग को लिखे पत्र के साथ बस्तर के एसपी के साथ बातचीत का ऑडियो भी लगाया है जिसमें एसपी आरएन दास उन्हें डराने-धमकाने को सही ठहरा रहे हैं.
गौरतलब है कि पिछले कुछ वक्त से बस्तर में पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और वकीलों को डराने की घटनाएं सामने आई हैं. पिछले साल पहले सोमारू नाग, संतोष यादव, दीपक जायसवाल और प्रभात कुमार को गिरफ्तार किया गया. फिर जगदलपुर में जेल में बंद लोगों को कानूनी सलाह दे रहे वकीलों को वहां से जाने पर मजबूर होना पड़ा. पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम को डरा-धमकाकर जगदलपुर से भगा दिया गया. इसके बाद से लगातार बस्तर पुलिस पर सवाल खड़े होते रहे हैं.
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