
- बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने एक अहम केस में कहा कि सिर्फ व्यभिचार के संदेह पर बच्चे की डीएनए जांच का आदेश देना उचित नहीं है.
- पारिवारिक अदालत के बच्चे की डीएनए जांच के आदेश को रद्द करते हुए न्यायमूर्ति आर एम जोशी ने इसे केवल असाधारण मामलों में सीमित किया.
- इस महत्वपूर्ण मामले में कोर्ट ने साफ किया कि बच्चे के सर्वोत्तम हित और उसकी सहमति के बिना बलपूर्वक ब्लड टेस्ट नहीं कराया जा सकता.
बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि कहा कि सिर्फ इसलिए कि कोई पुरुष अपनी पत्नी पर व्यभिचार (विवाहेत्तर संबंध) का संदेह करता है, यह आधार नहीं बन सकता कि उनके नाबालिग बच्चे की डीएनए जांच कर यह पता लगाया जाए कि वह उसका जैविक पिता है या नहीं. नाबालिग लड़के की डीएनए जांच का निर्देश देने वाले एक पारिवारिक अदालत के आदेश को रद्द करते हुए न्यायमूर्ति आर एम जोशी ने कहा कि ऐसी आनुवंशिक जांच केवल आसाधारण मामलों में ही करायी जाती है.
क्या है मामला
यह मामला एक व्यक्ति द्वारा दायर तलाक याचिका से जुड़ा है, जिसमें उसने अपनी पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाया था. दोनों की शादी 2011 में हुई थी और साल 2013 में वे अलग हो गए, उस समय महिला तीन महीने की गर्भवती थी. पति ने दावा किया कि बच्चे की डीएनए जांच से यह साबित किया जा सकता है कि वह उसका जैविक पिता नहीं है, जिससे उसके आरोपों को बल मिलेगा. हालांकि, याचिका में इसमें ये साफ नहीं किया गया कि पति ने कभी यह दावा किया हो कि वह बच्चे का पिता नहीं है. इसके बावजूद, फैमिली कोर्ट ने फरवरी 2020 में बच्चे की डीएनए जांच का आदेश दे दिया, जिसे महिला और उसके बेटे ने ऊपरी अदालत में चुनौती दी.
न्यायालय की टिप्पणी और निर्णय
न्यायमूर्ति आर. एम. जोशी ने अपने आदेश में कहा कि डीएनए जांच जैसे संवेदनशील और निजी परीक्षण केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किए जा सकते हैं. उन्होंने कहा कि केवल इसलिए कि कोई पुरुष व्यभिचार के आधार पर तलाक का दावा कर रहा है, यह अपने आप में ऐसा विशिष्ट मामला नहीं बनता जिसमें डीएनए जांच का आदेश दिया जाए. जज ने यह भी स्पष्ट किया कि बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखना पारिवारिक अदालत की जिम्मेदारी है. सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व आदेश का हवाला देते हुए कहा गया कि किसी को भी, विशेष रूप से नाबालिग को, बलपूर्वक रक्त परीक्षण के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, खासकर जब वह सहमति देने या इनकार करने में सक्षम नहीं है.
बच्चों के अधिकारों की रक्षा पर जोर
अदालत ने यह भी कहा कि जब माता-पिता आपस में लड़ते हैं, तो अक्सर बच्चे उस लड़ाई में एक मोहरा बन जाते हैं. ऐसे में अदालतों को नाबालिग बच्चों के अधिकारों के संरक्षक की भूमिका निभानी चाहिए. इस फैसले ने यह संदेश दिया है कि बच्चों की निजता और मानसिक सुरक्षा को किसी भी कानूनी प्रक्रिया में सर्वोपरि माना जाना चाहिए. यह फैसला भारतीय न्याय व्यवस्था में एक मिसाल के रूप में देखा जा रहा है, जो यह दर्शाता है कि व्यक्तिगत संदेह के आधार पर वैज्ञानिक परीक्षणों का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता. यह न केवल महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि बच्चों को मानसिक और सामाजिक आघात से बचाने की दिशा में भी एक बड़ा कदम है.
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