रज़ा फाउंडेशन ने दिल्ली के त्रिवेणी कला केंद्र में ‘वाक’ नाम से कविता पर केंद्रित एक आयोजन किया.
नई दिल्ली:
भारतीय भाषाओं के कवियों और कविताओं के जलसे का आखिरी सत्र था. मंच पर तीन युवा कवि थे अंग्रेजी, असमिया और हिंदी के. श्रोताओं ने कसौटियां सामने रख ली थीं. नई पीढ़ी को कुछ अधिक ही सशंकित दृष्टि और पूर्वग्रह से देखा जाता है और लगभग यह मानकर कि इनके पास अपने समय को समझने की न तो दृष्टि है न व्यक्त करने की भाषा. लेकिन युवा पीढ़ी अक्सर इसको गलत साबित करती आई है. सत्र शुरू हुआ लुबना इरफान की अंग्रेजी कविताओं से और वहीं से सत्र का तेवर भी बन गया जिसके तनाव को मृदलु हलोई ने अपनी असमिया कविताओं से और सुधांशु फिरदौस ने अपनी हिंदी कविताओं से कम नहीं होने दिया.
गौरतलब है कि रज़ा फाउंडेशन ने दिल्ली के त्रिवेणी कला केंद्र में ‘वाक’ नाम से एक आयोजन किया. यह भारतीय भाषाओं में रची जा रही कविताओं का द्वैवार्षिक आयोजन होगा. इस साल इसका पहला संस्करण संपन्न हुआ. इसमें 15 से भी अधिक भारतीय भाषाओं के 45 के करीब कवि सम्मिलित हुए. ऐसे समारोह अक्सर अतीत के वैभव पर इतराने के आयोजन बन जाते हैं. इनकी सार्थकता तभी है जब पुरानी आवाजों के साथ नई और सशक्त आवाजें भी सामने आएं जिसमें भविष्य की रूपरेखा दिखे. इस सत्र में इसका संकेत मिला.
लुबना इरफ़ान की कविताओं में स्त्री होने की चेतना और उस परिप्रेक्ष्य से प्रश्नवाचकता भी है. एक तरफ वह कहती हैं कि 'जो संतुलन धारण करती है मैं वह स्त्री हूं, वह जो बाघ पर बैठती है मैं वह देवी हूं, मैं प्रत्येक स्त्री हूं, प्रत्येक स्त्री मैं हूं… मैं आग हूं मुझे कोई जला नहीं सकता और दूसरी तरफ पूछती है “और जो चुनता है सत्य, और वे प्रश्न जो इनसे उपजते हैं, और जो अथ में शुरू होता है और इति में अंत .. जो चुनता है वो स्वप्न जिसे हम याद रखें और वे जिन्हें हम भूल जाएं”. इन कविताओं में पाए हुए सत्य के सीधे स्वीकार की बजाय उनसे एक टकराव है. मृदुल हलोई की कविताओं में वह परिवेश है जो शहराती कवियों में नहीं दिखता, मृदुल जब कहते हैं “कहने को और क्या बाकी है / मनुष्य भूल जाता है वही जो युगो से कहा गया है/ और मेरे भावना के अंदर इतने सारे लोग आवाज़ाही करते हैं/ रात के अंधेरा की तरह सन्नाटा मुझे घेर लेता है". कवि अपने परिवेश की निष्ठुरता के प्रति चिंतित है लेकिन अपने मन में वह धान के पौधे की कोमलता को भी बचा के रखना चाहता है और सब के मूल में है प्रेम. सुधांशु फ़िरदौस की कविता महत्वाकांक्षी है इस क्रम में कविताओं में पूर्ववर्ती रचनाकारों से मिली परम्परा संवाद भी जिसमे केवल सहमति नही है. सामाजिक आर्थिक परिस्थितियां कविता में सूक्ष्मता से आती हैं. कोई नहीं जानता कहां से आता है कालिदास/ कोई नहीं जानता कहां को चला जाता है कालिदास/हर कालिदास के जीवन में आता है एक उज्जैन/जहां पहुंच वह रचता है अपना सर्वश्रेष्ठ/वहीं उतरती हैं पारिजात-सी सुगंधित/ स्वर्ण पंखुड़ियों-सी चमकतीं मेघदूत की पंक्तियां / उसके बाद केवल किंवदंतियां जनश्रुतियां...
तीनों ही कवियों की कविता में एक राजनीति है लेकिन वह नारेबाजी की नहीं है, परिवेश और समय सापेक्ष है जिसमे अपने होने का बोध भी है.
अंतिम सत्र में आशीष नंदी कहते हैं कि कवि सबसे अधिक अपने आत्मसंघर्ष से जूझता है. और सबसे अच्छी कविताएं आत्मसंघर्ष से सम्भव होती हैं क्योंकि यहां संघर्ष मनुष्य बने रहने का है. इसलिए इन तीनों की कविताएं प्रभावित करती हैं जिनमें मनुष्य बने रहने की बुनियादी चेतना और अपील है.
गौरतलब है कि रज़ा फाउंडेशन ने दिल्ली के त्रिवेणी कला केंद्र में ‘वाक’ नाम से एक आयोजन किया. यह भारतीय भाषाओं में रची जा रही कविताओं का द्वैवार्षिक आयोजन होगा. इस साल इसका पहला संस्करण संपन्न हुआ. इसमें 15 से भी अधिक भारतीय भाषाओं के 45 के करीब कवि सम्मिलित हुए. ऐसे समारोह अक्सर अतीत के वैभव पर इतराने के आयोजन बन जाते हैं. इनकी सार्थकता तभी है जब पुरानी आवाजों के साथ नई और सशक्त आवाजें भी सामने आएं जिसमें भविष्य की रूपरेखा दिखे. इस सत्र में इसका संकेत मिला.
लुबना इरफ़ान की कविताओं में स्त्री होने की चेतना और उस परिप्रेक्ष्य से प्रश्नवाचकता भी है. एक तरफ वह कहती हैं कि 'जो संतुलन धारण करती है मैं वह स्त्री हूं, वह जो बाघ पर बैठती है मैं वह देवी हूं, मैं प्रत्येक स्त्री हूं, प्रत्येक स्त्री मैं हूं… मैं आग हूं मुझे कोई जला नहीं सकता और दूसरी तरफ पूछती है “और जो चुनता है सत्य, और वे प्रश्न जो इनसे उपजते हैं, और जो अथ में शुरू होता है और इति में अंत .. जो चुनता है वो स्वप्न जिसे हम याद रखें और वे जिन्हें हम भूल जाएं”. इन कविताओं में पाए हुए सत्य के सीधे स्वीकार की बजाय उनसे एक टकराव है. मृदुल हलोई की कविताओं में वह परिवेश है जो शहराती कवियों में नहीं दिखता, मृदुल जब कहते हैं “कहने को और क्या बाकी है / मनुष्य भूल जाता है वही जो युगो से कहा गया है/ और मेरे भावना के अंदर इतने सारे लोग आवाज़ाही करते हैं/ रात के अंधेरा की तरह सन्नाटा मुझे घेर लेता है". कवि अपने परिवेश की निष्ठुरता के प्रति चिंतित है लेकिन अपने मन में वह धान के पौधे की कोमलता को भी बचा के रखना चाहता है और सब के मूल में है प्रेम. सुधांशु फ़िरदौस की कविता महत्वाकांक्षी है इस क्रम में कविताओं में पूर्ववर्ती रचनाकारों से मिली परम्परा संवाद भी जिसमे केवल सहमति नही है. सामाजिक आर्थिक परिस्थितियां कविता में सूक्ष्मता से आती हैं. कोई नहीं जानता कहां से आता है कालिदास/ कोई नहीं जानता कहां को चला जाता है कालिदास/हर कालिदास के जीवन में आता है एक उज्जैन/जहां पहुंच वह रचता है अपना सर्वश्रेष्ठ/वहीं उतरती हैं पारिजात-सी सुगंधित/ स्वर्ण पंखुड़ियों-सी चमकतीं मेघदूत की पंक्तियां / उसके बाद केवल किंवदंतियां जनश्रुतियां...
तीनों ही कवियों की कविता में एक राजनीति है लेकिन वह नारेबाजी की नहीं है, परिवेश और समय सापेक्ष है जिसमे अपने होने का बोध भी है.
अंतिम सत्र में आशीष नंदी कहते हैं कि कवि सबसे अधिक अपने आत्मसंघर्ष से जूझता है. और सबसे अच्छी कविताएं आत्मसंघर्ष से सम्भव होती हैं क्योंकि यहां संघर्ष मनुष्य बने रहने का है. इसलिए इन तीनों की कविताएं प्रभावित करती हैं जिनमें मनुष्य बने रहने की बुनियादी चेतना और अपील है.
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