
पूर्वा नरेश द्वारा निर्देशित नाट्य प्रस्तुति 'बंदिश 20 से 20,000 हर्ट्ज' का एक दृश्य.
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अतीत और वर्तमान के कलाकारों के हालात और बदलते दौर की बंदिशें
नाटक में कलाकारों की स्थिति और भीतरी राजनीति के प्रश्न और बेचैनियां
टोटल थिएटर पूर्वा नरेश की रंगभाषा, विभिन्न तत्वों का संतुलित मिश्रण
‘आद्यम’ पिछले कुछ सालों से बेहतर रंगकर्म दर्शकों के सामने लेकर आ रहा है. यह साल इस सिलसिले का तीसरा साल है और पूर्वा नरेश निर्देशित ‘बंदिश 20 से 20,000 हर्ट्ज़’ दिल्ली में होने वाली इस साल की पहली प्रस्तुति है. इससे पहले भी पूर्वा नरेश ‘आद्यम’ के साथ ‘लेडिज संगीत’ नाम से एक प्रस्तुति दे चुकी हैं.
नौटंकी गायिका चंपा बाई और बैठक गायिका बेनी अपने अतीत को याद करती हैं और यादें साझा करते हैं दो आज के जमाने के गायक. गायकों के समय के अंतर और उनकी पोजिशनिंग से नाटक का कथ्य अतीत और वर्तमान के संवाद में आकार लेता है. आजादी के सत्तर सालों का जश्न है. चंपाबाई और बेनीबाई का सम्मान होना है इस समारोह में इन दो आज के गायकों को गाना है. इन सबके साथ हैं बाईयों का शागिर्द मुन्नु जो उनके जीवन की हिस्सा है, उनके मैनेजर से लेकर वैनिटी बैन तक. इस समारोह में चंपाबाई गाना चाहती हैं लेकिन नौटंकी गायिका की उसकी छवि समारोह की ‘गरिमा’ के अनुकूल नहीं है. बेनी शास्त्रीय गायिका हैं उनको सब सुनना चाहते हैं लेकिन वह गाना छोड़ चुकी हैं. मौसमी नहीं गा सकती क्योंकि वह गायकी के मूल उपकरण वोकल कॉर्ड की जगह इलेक्ट्रॉनिक तामझाम पर निर्भर है. कबीर गाना चाहता है लेकिन इसलिए नहीं गा सकता क्योंकि पड़ोसी देश में उसका गाना हिट हो गया है. पड़ोसी देश में अर्जित लोकप्रियता ने उसे ट्रोल्स के निशाने पर ला दिया है. आयोजक को लाभ उसके नहीं गाने में है, उसका गाना ‘राष्ट्रहित’ में नहीं है. वह ‘एंटीनेशनल’ घोषित कर दिया गया है. इन सबके बीच है सरकारी बाबू, जो केवल आदेश के हिसाब से अपना अनुकूलन करता रहता है और आदतन परेशान है, किसके सामने झुकना है और कहां कब अकड़ना है, के बुनियादी ज्ञान से लैस. इन सबके बीच मुन्नु का सवाल है कि फसादी अपने काम पर हैं, बाबू अपने काम पर हैं, ऐसे में कलाकार कहां हैं?

प्रस्तुति में हिंदुस्तानी संगीत की ऐतिहासिक यात्रा सामने आती है जिसमें बेनीबाई जैसी गायिका को बेदखल किया गया है, चंपाबाई लोकप्रिय होने और सुर पर पकड़ होने के बावजूद बेनी और समाज के लिए हेय हैं, मामूली हैं. इनके शोषण के कई स्तर और आयाम प्रस्तुति में उभरते हैं. कृत्रिम उपकरणों के सहारे गाते आजकल के गायक कबीर और मौसमी हैं जो अपनी छवि का इस्तेमाल करना और अपने को बेचना जानते हैं. इनके तरीके पुराने जमाने को समझ नहीं आते और पुराने तरीके इनको नहीं सुहाते. इनका अतीत कटु है, वर्तमान चमकदार, जबकि बेनी, चंपा और मुन्नु के लिए वर्तमान में कुछ है ही नहीं. लेकिन सबके भीतर एक डर है जिसका रंग अलग-अलग है. बेनी को अपमान का डर है, चंपा को गुमनामी का, मुन्नु को भूख का. कबीर को इमेज का और मौसमी को पुरानी पहचान का. इन सबके साथ इस नाटक में जो अदृश्य है, वह है समाज और सत्ता, जो निरंतर इनके ऊपर हावी है, अलग-अलग रूपों में. कभी अंग्रेजी कानून के रूप में, कभी आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण के लिए उच्च मूल्यों के रूप में तो कभी सोशल मीडिया के ट्रोल्स के रूप में. इन बंदिशों का इलाज क्या है?
नाटक बताता है - अपनी कला के प्रति प्रतिबद्धता. इसलिए गाने का कार्यक्रम कैंसल होने बावजूद प्रस्तुति की समाप्ति में बंदिश तोड़कर गाते हैं. हर दौर में प्रतिरोध को भिन्न तरीका ईज़ाद करना ही पड़ता है.
प्रस्तुति की परिकल्पना कथ्य को मनोरंजक अंदाज में पेश करती है जिसमें गंभीरता कहीं कम नहीं है. कहानी कहते हुए मंच परफार्मिंग स्पेस और बाईयों की बैठक में तरलता से बदलता है. समय और स्पेस के बदलाव को पर्दों के उठने-गिरने और दृश्य सज्जा के मामूली बदलावों के साथ उपस्थित कर दिया गया है. प्रकाश संयोजन साधारण है. प्रस्तुति में संगीत अहम है शुभा मुद्गल का संगीत नाटक को अधिक श्रव्य बनाता है. अभिनेताओं की गायकी के साथ संवादों का चुटीलापन और टाइमिंग कमाल है. तनाव, हास्य और विमर्श का संतुलन बनाने का जिम्मा अभिनेताओं अनुभा फतेहपुरिया, निवेदिता भार्गव, इप्शिता, दानिश हुसैन, हर्ष खुराना, हितेश ने बखूबी संभाला है.
पूर्वा नरेश ने अपनी पिछली प्रस्तुतियों से साबित किया है कि टोटल थिएटर उनकी रंगभाषा है और इसमें विभिन्न तत्वों के संतुलित मिश्रण में वे कुशल हैं. उनकी प्रस्तुति में संप्रेषणीयता भी है और कथ्य में गहराई भी. अभिनेता पर भरोसा करते हुए संगीत का इस्तेमाल करना उन्हें बखूबी आता है. प्रस्तुति की लंबाई और अंत में उपदेशात्मक हो जाना प्रस्तुति की कमजोरी है जिसे दूर किए जाने की गुंजाइश है.
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