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महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव नतीजों के एग्जिट पोल NDA के पक्ष में क्यों? यह हैं कारण

यदि परिणाम अनुमानों के मुताबिक ही आते हैं तो 'एकजुट' विपक्ष को एक बार फिर पराजय का सामना करना पड़ेगा. क्या कारण हैं कि विपक्ष लगातार असफल हो रहा है?

महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव नतीजों के एग्जिट पोल NDA के पक्ष में क्यों? यह हैं कारण
महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव परिणाम 23 नवंबर को घोषित होंगे.
नई दिल्ली:

महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव में मतदान की प्रकिया पूरी हो चुकी है. अब 23 नवंबर को मतगणना के साथ चुनावों के नतीजे सामने आ जाएंगे. बुधवार को वोटिंग पूरी होने के कुछ ही समय बाद नतीजों को लेकर विभिन्न एजेंसियों, मीडिया संस्थानों के पूर्वानुमान, यानी एग्जिट पोल सामने आ गए. इनके औसत यानी पोल ऑफ एक्जिट पोल्स NDTV ने घोषित किए. दोनों राज्यों में बढ़त बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को मिलती दिख रही है. यदि परिणाम अनुमानों के मुताबिक ही आते हैं तो 'एकजुट' विपक्ष को एक बार फिर पराजय का सामना करना पड़ेगा. क्या कारण हैं कि विपक्ष लगातार असफल हो रहा है?         

पोल ऑफ एग्जिट पोल्स के मुताबिक महाराष्ट्र में एनडीए को 153, महाविकास अघाड़ी (MVA) को 126 और अन्य को 9 सीटें मिल सकती हैं. झारखंड में 39 सीटें एनडीए को और 38 सीटें इंडिया गठबंधन (INDIA Alliance) को मिल सकती हैं. चार सीटें अन्य के खाते में जा सकती हैं. महाराष्ट्र में कुल 288 सीटें हैं और बहुमत का आंकड़ा 145 है. झारखंड में कुल 81 सीटें हैं और सरकार बनाने के लिए कम से कम 41 सीटों की जरूरत है. 

महाराष्ट्र में सत्ता पक्ष में शामिल भारतीय जनता पार्टी (BJP), मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाला शिवसेना का गुट और अजीत पवार के नेतृत्व वाला राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP), जिसे महायुती गठबंधन कहा जाता है, का मुकाबला उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना (UBT), शरद पवार के एनसीपी गुट और कांग्रेस के गठबंधन महाविकास अघाड़ी (MVA) से है. महायुती सिर्फ महाराष्ट्र में बना दलों का वह गठबंधन है जो एनडीए का हिस्सा है. एमवीए महाराष्ट्र में विपक्ष का वह गठबंधन जो इंडिया गठबंधन (INDIA Alliance) का हिस्सा है. 

यदि दोनों राज्यों के चुनावों के नतीजे एग्जिट पोल में मिल रहे संकेतों के मुताबिक आते हैं तो इससे विपक्षी दलों  की एकता पर एक बार फिर सवाल खड़े हो जाएंगे. 

एनडीए स्थिरता की गारंटी देने में सफल

लोकसभा चुनाव से पहले भले ही विपक्षी दलों ने एकजुटता की कोशिश में इंडिया गठबंधन बना लिया लेकिन वास्तव में इनमें एकता नहीं हो सकी है. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष के दल एकजुट जरूर हुए पर सिर्फ दिखने के लिए, सभी दलों की महत्वाकांक्षाएं उन्हें एकजुट नहीं होने दे रहीं. वे मन से नहीं जुड़ पा रहे. राहुल गांधी, उद्धव ठाकरे, हेमंत सोरेन, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, शरद पवार सहित विपक्ष के कई दिग्गज अपनी महत्वाकांक्षाओं से समझौता नहीं कर पा रहे हैं. लेकसभा चुनाव में विपक्ष ने खासा जोर लगाया लेकिन वह असफल हुआ. विपक्ष को पराजय का दंश तो झेलना ही पड़ा, साथ ही देश के आम नागरिकों में गलत संदेश भी गया, कि सरकार चलाना इनके बस का नहीं है. दूसरी तरफ पूरी तैयारी और पुख्ता रणनीति के साथ चुनाव मैदान में उतरने वाला एनडीए स्थिरता की गारंटी देने में इस बार भी उसी तरह सफल रहा है, जैसे पूर्व में होता रहा है.  

विपक्ष की एकजुटता पर सवाल 

विपक्ष की एकता पर महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव के दौरान भी सवाल उठे. सीटों के बंटवारे के दौरान इन दलों में अंतिम समय तक झगड़े होते रहे. टिकटों के बांटने के सिलसिले में अंतिम दौर तक यह तय नहीं हो पा रहा था कि किस सीट पर कौन सी पार्टी और कौन सा उम्मीदवार लड़ेगा. विदर्भ में ज्यादा ही खींचतान चलती रही. बड़ी मुश्किल से सहमति बनी तो महत्वाकांक्षी नेताओं ने खेल बिगाड़ना शुरू कर दिया. चुनाव मैदान में बागियों की फौज भी आ धमकी. जब बागी चुनाव में खड़े हो गए तो नुकसान तो विपक्षी गठबंधन के उम्मीदवारों को होना ही था. दूसरी तरफ एनडीए में भी सब कुछ शांति से नहीं हुआ, विवाद वहां भी हुए, लेकिन उसको बहुत रणनीतिक कुशलता के साथ मैनेज कर लिया गया. जहां समझौता करने की जरूरत थी, या जहां किसी सहयोगी दल, या उसके नेता का जनाधार ज्यादा प्रबल था, वहां बीजेपी ने समझौता किया.        

विपक्ष के नेताओं की महत्वाकांक्षाएं

चुनाव लड़ने के लिए ही बगावती तेवर नहीं देखे जाते, बल्कि मुख्यमंत्री पद के लिए भी विपक्ष में पहले से ही रस्साकशी होने लगी. वह समय गुजर गया जब बाला साहेब ठाकरे ने कभी भी मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी नहीं की लेकिन किंग मेकर बने रहे. अब उद्धव ठाकरे नतीजे तो दूर, चुनाव के पहले से ही मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी बनाए हुए हैं. वे कांग्रेस सहित अन्य सहयोगियों से इस मुद्दे पर समझौते के लिए तैयार नहीं दिखते. 

मतदाता सब शांति से देख रहा था और विपक्ष को गंभीरता से नहीं ले रहा था. हालांकि सत्ता पक्ष में भी सीटों के बंटवारे को लेकर विवाद चला, लेकिन वह ज्यादा बढ़ने नहीं दिया गया और यदि बढ़ा भी तो उसे मीडिया या आम लोगों की नजरों में नहीं आने दिया. बीजेपी चुपचाप सब संभालती रही.

राहुल गांधी के कई बयान साबित हो जाते हैं नुकसानदेह 

राहुल गांधी के बयान अलग विवाद पैदा करते रहे. उन्होंने पूंजीपतियों, उद्योगपतियों के खिलाफ बयान दिए, आबादी की तुलना में हिस्सेदारी की बात कही. इसका असर उल्टा हुआ. दूसरी तरफ उनके ऐसे बयानों का सहारा लेकर बीजेपी कांग्रेस को हिंदू विरोधी पार्टी साबित करती रही.   

आरक्षण बढ़ाने, जातियों की गणना करने जैसी बातें कहकर राहुल गांधी कांग्रेस को नुकसान पहुंचा दिया. दूसरी तरफ पीएम मोदी जाति जनगणना से अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्ग को आरक्षण में होने वाला नुकसान के बारे में समझाने में सफल हुए. वास्तव में बीजेपी हर पल पर बारीकी से नजर रखती है और हर पल अपनी रणनीति को अपडेट करती है. वह विपक्ष को कोई भी मौका देना नहीं चाहती और अपने हर गलत कदम पर तेजी से डैमेज कंट्रोल करती है. दूसरी तरफ वह विपक्ष की छोटी से छोटी गल्ती को जोरशोर से प्रचारित करने में कभी देर नहीं करती.    

बीजेपी की पल-पल पर नजर, पल-पल पर नई रणनीति   

बीजेपी ने प्रचार की रणनीति में अब बदलाव कर लिया है. वह अब पीएम मोदी के बजाय पार्टी के स्थानीय चेहरों को आगे रखकर चुनाव प्रचार अभियान चलाने लगी है. पीएम मोदी ने सभाएं कीं लेकिन लोकसभा चुनाव की तरह उन्होंने सघन प्रचार सभाएं नहीं कीं. शायद ऐसा इसलिए किया जा रहा है कि पार्टी के स्थानीय नेताओं को पर्याप्त महत्व मिल सके और आम जन में उनके प्रति विश्वास भी बढ़ सके.        

एनडीए के प्रचार में आरएसएस ने भी अहम भूमिका निभाई. संघ ने जमीन जिहाद, लव जिहाद, धर्मांतरण, पत्थरबाजी, दंगे-फसाद जैसे मुद्दों को लेकर खास तौर पर महाराष्ट्र में बीजेपी को बड़ा सहयोग दिया. आरएसएस बहुत ही अनुशासित तरीके से संदेशों का प्रसार करता है. वह ठोल नहीं पीटता, बल्कि आम लोगों के मन में पैठ बनाता है.   
 

नारों के बलबूते ध्रुवीकरण पर जोर

बीजेपी ने महाराष्ट्र हो या झारखंड या फिर उत्तर प्रदेश का विधानसभा उपचुनाव, तीनों जगह अपने खास नारों से मतदाता पर असर डाला. बीजेपी ने नारे दिए 'बंटोगे तो कटोगे और 'एक हैं तो सेफ हैं'.. यह वे नारे हैं जो वोटों के ध्रुवीकरण में कारगर रहे. विपक्ष के पास ऐसा कोई नारा नहीं था जो आम लोगों पर गहरे तक असर जमा सके.   
   
झारखंड में बीजेपी ने बांग्लादेशियो की घुसपैठ को भी मुद्दा बनाया. हालांकि एनडीटीवी ने देखा कि झारखंड के ग्रामीण इलाकों में इस मुद्दे से लोग अनभिज्ञ थे, लेकिन फिर भी किसी से एक ही बात बार-बार कही जाए तो उसे यह विश्वास दिलाया जा सकता है कि ऐसा या तो है, या ऐसा हो सकता है.  

दोनों विधानसभा चुनावों के लिए मतगणना 23 नवंबर को होगी. तब यह साफ हो जाएगा कि एग्जिट पोल कितने सही हैं और कितने गलत.

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