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कचहरी: जब आपकी बीमारी को मुनाफे का धंधा बना लिया जाए! इस 'लूट-तंत्र' का उपाय क्‍या है, समझें विस्‍तार से 

शो में DOLO 650 की मिसाल देते हुए बताया गया कि कैसे कोविड के समय इस दवा को लिखने के एवज में डॉक्टरों को गिफ्ट, ट्रिप और कैश तक मिले.

कचहरी: जब आपकी बीमारी को मुनाफे का धंधा बना लिया जाए! इस 'लूट-तंत्र' का उपाय क्‍या है, समझें विस्‍तार से 
सस्ती दवाएं क्यों नहीं पहुंचती मरीज तक?
  • डॉक्टरों की दवाइयों की पर्ची मुनाफे के आधार पर होती है, जिससे मरीजों को जरूरी जे‍नरिक दवाओं की बजाय महंगी ब्रांडेड दवाएं दी जाती हैं.
  • जेनरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं के समान प्रभावी होती हैं, लेकिन उनकी कीमत ब्रांडेड दवाओं की तुलना में बहुत कम होती है.
  • 2018 में 5.5 करोड़ भारतीय दवाइयों और इलाज के खर्च के कारण गरीबी रेखा के नीचे आ गए, जिनमें से अधिकांश पहले गरीब नहीं थे.
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नई दिल्‍ली:

एनडीटीवी इंडिया के स्पेशल शो 'कचहरी' में इस बार बहस एक बेहद जरूरी लेकिन कम चर्चित मुद्दे पर हुई- दवा और इलाज की आड़ में चल रही सुनियोजित लूट पर. एंकर शुभंकर मिश्रा ने सवाल उठाया कि क्या हम इलाज करवा रहे हैं या एक रैकेट का हिस्सा बन चुके हैं, जो हमारी बीमारी से कमाई कर रहा है? शो में बताया गया कि मरीज की तकलीफ, उसकी बीमारी और उसके पैसे से जो कारोबार चलता है, उसमें सबसे ऊपर डॉक्टर की कलम होती है- और वो कलम तय करती है कि कौन सी दवा मिलेगी. 

लेकिन ये दवा मरीज की जरूरत के हिसाब से नहीं, मुनाफे के हिसाब से लिखी जाती है. डॉक्टर, दवा कंपनियां और मेडिकल स्टोर- सबकी एक साठगांठ है, जो मरीज के भरोसे को व्यापार बना चुकी है.

ब्रांडेड दवा या जन औषधि- फर्क सिर्फ नाम का

शो में Generic और Branded दवाइयों का फर्क आसान भाषा में समझाया गया. जैसे Parle-G और लोकल बिस्किट- असर एक जैसा, लेकिन दाम अलग. Generic दवाएं असरदार और सस्ती होती हैं, लेकिन डॉक्टर उन्हें लिखते नहीं क्योंकि उनसे मुनाफा नहीं मिलता. मुनाफा मिलता है महंगी ब्रांडेड दवाओं से, जिन्हें बेचने पर दुकानदार और डॉक्टर दोनों को फायदा होता है. मरीज सोचता है उसे अच्छी दवा मिल रही है, जबकि असल में उसे जेब काटने वाला ब्रांड बेचा जा रहा होता है.

कितनी सस्ती होती हैं जेनरिक दवाएं?

बताया गया कि 80 रुपये की दवा अगर Generic रूप में ली जाए तो 8 रुपये में मिल सकती है. फर्क सिर्फ नाम और पैकेजिंग का होता है, जबकि असर वही रहता है. लेकिन मरीज को ये कभी बताया ही नहीं जाता. डॉक्टर पर्चे में ऐसा नाम लिखते हैं जिसे सिर्फ मेडिकल स्टोर वाला समझ सकता है- मरीज नहीं.

5.5 करोड़ लोग दवाइयों के खर्च से हुए गरीब

2018 के आंकड़ों के अनुसार, एक साल में 5.5 करोड़ भारतीय सिर्फ इलाज और दवाइयों के खर्च से गरीबी रेखा के नीचे चले गए. इनमें से 3.8 करोड़ लोग ऐसे थे, जो पहले गरीब नहीं थे- लेकिन दवाइयों के खर्च ने उनकी कमर तोड़ दी. सवाल उठा कि अगर उन्हें सस्ती Generic दवाएं मिलतीं, तो क्या उनकी जिंदगी इतनी मुश्किल होती?

यहां देखें पूरी वीडियो:

सिस्टम में मौजूद कमीशन का खेल

शो में DOLO 650 की मिसाल देते हुए बताया गया कि कैसे कोविड के समय इस दवा को लिखने के एवज में डॉक्टरों को गिफ्ट, ट्रिप और कैश तक मिले. Central Board of Direct Taxes (CBDT) की रिपोर्ट में यह बात सामने आई थी. डॉक्टरों के क्लीनिक के बाहर “MR से मिलने का समय” लिखा होता है- यानी Medical Representative जो दवा कंपनियों से सौदा तय करते हैं. इससे तय होता है कि मरीज को कौन सी दवा मिलेगी- जरूरत की नहीं, मुनाफे वाली.

जन औषधि योजना- उम्मीद की एक किरण

शो में बताया गया कि सरकार ने प्रधानमंत्री जन औषधि योजना के तहत अब तक देश में 13,822 केंद्र खोले हैं, जहां जेनेरिक दवाएं सस्ती दरों पर मिलती हैं. 10 साल में 6,100 करोड़ की दवाइयां इन केंद्रों से खरीदी गईं और देश ने करीब 30,000 करोड़ रुपये बचाए हैं. 2022 से डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं लिखना अनिवार्य भी किया गया है, और न लिखने पर लाइसेंस तक रद्द हो सकता है. लेकिन दवा कंपनियों और डॉक्टरों की लॉबी इस बदलाव का विरोध कर रही है.

जागरूकता ही समाधान है

अंत में बताया गया कि इस लूट से लड़ने का एक ही तरीका है- जागरूकता. जब डॉक्टर दवा लिखे, तो उससे पूछिए कि Generic विकल्प क्या है. अपने इलाके के जन औषधि केंद्र को पहचानिए और Salt Composition पढ़िए- क्योंकि दवा का नाम नहीं, उसका असर मायने रखता है. जब करोड़ों लोग सवाल पूछेंगे, तो सिस्टम को जवाब देना पड़ेगा.

शो की आखिरी पंक्ति में एक चेतावनी दी गई- 'इस देश में कई बार इलाज का भी इलाज करना पड़ता है.' यही वो सच्चाई है, जिससे अब कोई मुंह नहीं मोड़ सकता.

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