जब से बिहार विधानसभा ने सर्वसम्मति से एनआरसी और एनपीआर पर प्रस्ताव पारित किया है तब से बिहार की राजनीति में एक सवाल का जवाब सब ढूंढ रहे हैं कि इसका आखिरकार लाभ किसे मिलेगा? और उससे भी बड़ा सवाल है कि क्या इस कदम से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रति मुस्लिम समुदाय में जो नाराजगी देखी थी, वो कम या खत्म हो गई? मुस्लिम समुदाय के जनता दल यूनाइटेड के विधायक और कार्यकर्ता, जो इस प्रस्ताव के बिहार विधानसभा में पारित होने के बाद राहत की सांस ले रहे हैं, उनका मानना है कि अगर नीतीश कुमार के स्टैंड के अनुरूप केंद्र सरकार ने एनपीआर 2010 के फ़ार्मेट पर कराने की अधिसूचना जारी कर दी तो निश्चित रूप से पूरे देश के मुस्लिम समाज में और बिहार के मुस्लिम मतदाताओं के बीच नीतीश नागरिकता कानून के समर्थन के बाद अपनी खोयी साख पाने में कामयाब होंगे. उनका कहना है कि नीतीश के इस प्रस्ताव को कई और राज्य सरकारों ने अपनाया है. जो दिखाता है कि उनकी सोच अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को साथ लेकर चलने की है.
वहीं जनता दल यूनाइटेड में अब शामिल हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री अली अशरफ़ फातमी का मानना है कि नाराजगी खत्म हुई है. इसका प्रमाण है राज्य में जगह-जगह शाहीन बाग की तर्ज पर चल रहे धरना स्थल पर भाषणों में नीतीश कुमार को धन्यवाद कहा जाना. फ़ातमी दावा करते हैं कि बिहार के मुस्लिम समाज में नीतीश को लेकर एक सॉफ़्ट कॉर्नर है कि उन्होंने भाजपा के साथ रहकर ट्रिपल तलाक़ हो या धारा 370 का मसला हो, भाजपा के ख़िलाफ़ स्टैंड लिया और अपने सिद्धांत से समझौता नहीं किया.
लेकिन राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी कहते हैं कि यह पूरी बहस बेकार है. कुछ नीतीश व राज्य सरकार पर निर्भर चुनिंदा मुस्लिम नेता और बुद्धिजीवि इस बात को हवा दे रहे हैं. तिवारी का मानना है कि एनपीआर और एनआरसी के मुद्दे पर मुस्लिम समाज यह भी देख रहा है कि कैसे उसकी बात उठाने वाले प्रशांत किशोर को बाहर का रास्ता भाजपा को ख़ुश करने के लिए दिखाया गया. मुस्लिम समाज के लोगों के साथ दिल्ली समेत पूरे देश में जैसा हो रहा है, नीतीश कुमार अब मीडिया इस पर सवाल न पूछ ले, तो भागते फिर रहे हैं. उन्होंने देश की राजधानी दिल्ली में दंगा हुआ एक शब्द नहीं बोला जबकि मृतकों में बिहार के लोग भी हैं. जहां तक प्रस्ताव है, वो भी राजद और तेजस्वी यादव के आक्रामक रुख के कारण सरकार को झुकना पड़ा.
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आम मुस्लिम समाज के लोगों का मानना है कि नीतीश की अपनी विश्वसनीयता है, इस बात से इनकार नहीं नहीं किया जा सकता. और एक वर्ग मानता है कि जब तक नीतीश मुख्यमंत्री हैं तब तक भाजपा जैसे दूसरे राज्य में अपने साम्प्रयदायिक एजेंडे पर काम करती है, वैसे बिहार में नहीं कर पाएगी. इसलिए नीतीश को किसी भी हाल में सत्ता में बनाए रखो. लेकिन ये बहस कुछ लोगों के बीच तक सीमित है. जहां तक आम मुस्लिम जनमानस है उनके बीच नए नागरिकता कानून के बाद छात्र नेता कन्हैया की लोकप्रियता इसलिए बढ़ी है क्योंकि उन्होंने गाली और लाठी दोनों खाकर पूरे राज्य में इस विषय पर दौरा किया. जबकि तेजस्वी यादव ने कुछ ज़िलों में जाकर ज़मीन पर इस विषय पर काउंटर ध्रुवीकरण के कारण अपनी यात्रा में इस विषय पर विराम दे दिया. इसके कारण पप्पू यादव हो या ओवैसी सब अब बिहार के मुस्लिम समाज के बीच पैर पसार चुके हैं.
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जहां तक नीतीश कुमार को मुस्लिम समाज के वोट का सवाल है, वह पिछले चुनाव की तरह नहीं लेकिन आज की तारीख़ में उनके कुछ मुस्लिम उम्मीदवारों को ज़रूर मिल सकता है. लेकिन ये भी निर्भर करता है कि केंद्र उनके प्रस्ताव को कितनी तरजीह देता है और चुनाव के दौरान हिंदू-मुस्लिम करने वाले भाजपा के नेताओं को प्रचार से कितना दूर रखता है. क्योंकि यह सच्चाई नीतीश से अच्छी तरह कोई नहीं जानता कि बिहार के मुसलमानों के मन में उनके लिए इज्जत उस समय लालू यादव की तुलना में बढ़ी जब भाजपा के साथ तालमेल होने के बाद भी गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, जो अब प्रधानमंत्री हैं, को चुनाव प्रचार में दो विधानसभा और एक लोकसभा में नहीं आने दिया था. लेकिन इस बार नीतीश कुमार को मालूम है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही उनके लिए वोट मांगेंगे, जो आज की राजनीति में नीतीश कुमार के अंतर्विरोध को दिखाता है. जो ये भी सुनिश्चित करते हैं कि कन्हैया की यात्रा बिना किसी अवरोध के पूरे बिहार में हो और बिहार में मुस्लिम मतदाता भी उनके साथ रहे.
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