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बिहार की राजनीति में कितने जरूरी हैं मुकेश सहनी

बिहार की चुनावी राजनीति में विपक्षी महागठबंधन के लिए कितनी जरूरी हैं मुकेश सहनी और कितना बड़ा है उनका वोट बैंक, बता रहे हैं अजीत कुमार झा.

बिहार की राजनीति में कितने जरूरी हैं मुकेश सहनी
  • बिहार में मल्लाह , निषाद और सहनी समुदाय की आबादी करीब नौ फीसदी है. यह एक बड़ा वोट बैंक है.
  • मुकेश सहनी विकासशील इंसान पार्टी के प्रमुख हैं. वो अपनी जाति को राजनीतिक पहचान दिलाने की कोशिश कर रहे हैं.
  • सहनी ने महागठबंधन में 24 सीटों की मांग की है, उन्हें 15 सीटें दी जा रही हैं. लेकिन अभी कोई समझौता नहीं हुआ है.
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नई दिल्ली:

बिहार की राजनीति में जाति और समाज की भूमिका बहुत अहम है. वहां की राजनीति में 44 साल के मुकेश सहनी की भूमिका एक दिलचस्प कहानी है. इसमें आकांक्षा और रणनीति का मेल है. विकासशील इंसान पार्टी के प्रमुख मुकेश सहनी, मल्लाह, सहनी और निषाद समुदायों की उम्मीदों के प्रतीक बनकर उभरे हैं. साल 2023 के जातीय सर्वे के मुताबिक इस समुदाय की बिहार की आबादी में हिस्सेदारी करीब नौ फीसदी है. चुनाव में इस समुदाय का वोट किसी भी गठबंधन का पलड़ा भारी कर सकता है.

राजद, कांग्रेस और वामदलों का महागठबंधन उन्हें 15 सीटें देने की तैयारी में है, लेकिन सहनी 24 सीटों की मांग पर अड़े हुए हैं. इस तरह वो मछुआरा और नाविक समाज को केवल सत्ता में हिस्सेदारी ही नहीं, बल्कि सम्मान और पहचान दिलाने की कोशिश भी कर रहे हैं. 

क्या है मुकेश सहनी की असली ताकत

राजनीति में आने से पहले मुकेश सहनी मुंबई में बॉलीवुड की फिल्मों के सेट डिजाइन किया करते थे. राजनीति में आने के बाद उन्होंने बिहार के मल्लाह समुदाय की उम्मीदों का चेहरा बनने की कोशिश की है. लेकिन बिहार के लगातार बदलते राजनीतिक परिदृश्य में उनकी कहानी एक फिल्मी पटकथा जैसी लगती है- जिसमें महत्वाकांक्षा, विश्वासघात और सत्ता की चाह सब कुछ शामिल है.

कई लोग सहनी की तुलना शेक्सपियर के पात्र मैकबेथ से करते हैं, जिसकी बेकाबू महत्वाकांक्षा आखिर में उसके पतन का कारण बनती है. इसी तरह, सहनी की तेज राजनीतिक उन्नति अब गलत फैसलों और रणनीतिक भूलों की वजह से थम सी गई है. इससे उनका राजनीतिक भविष्य अनिश्चित सा है. कभी उन्हें बिहार की राजनीति का उभरता सितारा कहा जाता था, लेकिन अब वे दोराहे पर खड़े नजर आते हैं.

मुकेश सहनी की मल्लाह जाति की आबादी बिहार में करीब नौ फीसदी तक है.

मुकेश सहनी की मल्लाह जाति की आबादी बिहार में करीब नौ फीसदी तक है.

साल 2022 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया था, क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर तीखा हमला बोला था.

आज उनके पास कुछ ही रास्ते बचे हैं, या तो वे महागठबंधन के साथ बने रहें या छोटी पार्टियों के साथ मिलकर अकेले चुनाव लड़ें. इससे उनका राजनीतिक अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है.

कहां से मिलती है मुकेश सहनी की राजनीतिक को ताकत

मल्लाह जाति की आबादी बिहार के करीब हर जिले में है. लेकिन उत्तर बिहार के कुछ इलाकों में इनका असर सबसे ज्यादा है. खासकर मिथिलांचल और सीमांचल के इलाके में. अगर आप पटना से उत्तर की ओर बढ़ें, तो आपको मल्लाह समुदाय का मजबूत प्रभाव दिखाई देगा. गंगा नदी पार करते ही, वैशाली, मुजफ्फरपुर, दरभंगा और मधुबनी जैसे जिलों में ये समुदाय महत्वपूर्ण वोट बैंक बन जाता है. इसी तरह अगर आप पूर्व की ओर सीमांचल में जाएं, तो खगड़िया, अररिया, पूर्णिया और कटिहार जिलों में मल्लाहों की बड़ी आबादी मिलेगी. 

बिहार में मल्लाह, निषाद और सहनी शब्द अक्सर एक-दूसरे के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं या एक ही जाति की उप- जातियों को बताते हैं. यह जाति नदी किनारे रहने वाले मछुआरे और नाविक समाज से जुड़ी है. जैसे मुकेश सहनी खुद को 'सन ऑफ मल्लाह' कहते हैं, लेकिन उनकी पार्टी विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) पूरे निषाद समाज को जोड़ने की कोशिश करती है. इसलिए जिस नौ फीसदी आबादी की बात की जाती है, वह पूरे मल्लाह-केवट और उसकी सभी उपजातियों की संयुक्त आबादी है. 

सामाजिक दृष्टि से सहनी–निषाद–मल्लाह समुदाय को समाजशास्त्री एक जातीय समूह मानते हैं, जैसे बनिया समुदाय को माना जाता है. ये सभी अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) की श्रेणी में आते हैं. जाति सर्वेक्षण के मुताबिक बिहार की आबादी में ईबीसी की हिस्सेदारी 36.01 फीसदी है. इस तरह से मुकेश सहनी की राजनीतिक ताकत इन्हीं समुदायों के वोट बैंक और पहचान की राजनीति से जुड़ी है. 

मुकेश सहनी जुलाई 2022 से ही राजद, कांग्रेस और वामदलों के महागठबंधन के साथ बने हुए है.

मुकेश सहनी जुलाई 2022 से ही राजद, कांग्रेस और वामदलों के महागठबंधन के साथ बने हुए है.

बिहार में मल्लाह जाति की राजनीति 

बिहार की मुजफ्फरपुर लोकसभा सीट से पहले मल्लाह समुदाय से सांसद चुने जाते रहे हैं. इन्हीं में से एक हैं अजय निषाद. वो इस समय बीजेपी के सांसद हैं. उनके पिता कैप्टन जयनारायण निषाद भी उसी सीट से सांसद चुने जाते रहे. सांसद बनने से पहले कैप्टन जयनारायण निषाद एक उद्यमी (व्यवसायी) थे. उनकी मुजफ्फरपुर में रसोई गैस की एजेंसी थी. इस निषाद पिता-पुत्र की जोड़ी से पहले, रामकरण साहनी, जो मुजफ्फरपुर के मुसहरी इलाके के एक मल्लाह जमींदार थे. वो भी राजनीति में सक्रिय रहे. वे पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के करीबी थे. वो उन्हीं के सहयोग से विधायक बने थे.

निषाद समन्वय समिति, मल्लाह, निषाद और सहनी जैसी उपजातियों का एक संयुक्त संगठन है. इस संगठन ने सितंबर 2015 में तब सुर्खियाँ बटोरी थीं, जब इस समिति ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था कि निषाद समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) की सूची में शामिल किया जाए, क्योंकि एसटी को बिहार में केवल एक फीसदी आरक्षण मिलता है. एसटी का आरक्षण लेने की जगह समिति ने मांग की थी कि इस समुदाय को अनुसूचित जाति (एससी) की श्रेणी में शामिल किया जाए, जिसके लिए 16 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है. एससी समुदाय को यह आरक्षण न केवल शिक्षा और सरकारी नौकरियों में मिलता है, बल्कि विधानसभाओं और संसद में भी मिलता है. फिलहाल, मल्लाह–निषाद–सहनी समुदाय बिहार की अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) की सूची में शामिल है. 

मुकेश सहनी की 'आया राम, गया राम' की राजनीति

मुकेश सहनी को 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद भी बीजेपी के कहने पर नीतीश कुमार की कैबिनेट में शामिल किया गया था. लेकिन सहनी जल्दबाजी में बिहार से बाहर अपनी राजनीतिक पकड़ बढ़ाने की कोशिश करने लगे. उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 में अपनी पार्टी के 50 से अधिक उम्मीदवार उतार दिए, जबकि वहां उनकी कोई मजबूत जमीनी पकड़ नहीं थी.इसका परिणाम यह हुआ कि उनके सभी उम्मीदवार हार गए. 

सहनी ने योगी आदित्यनाथ सरकार को तत्काल हटाने की मांग कर दी. इससे बीजेपी उनसे नाराज हो गई. इसके बाद सहनी ने चार अप्रैल 2022 के बिहार विधान परिषद के चुनाव में भी बीजेपी के खिलाफ सात उम्मीदवार खड़े कर दिए. इसके जवाब में बीजेपी ने बोचहा विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में (जहां मुकेश सहनी की पार्टी के विधायक मुसाफिर पासवान के निधन से सीट खाली हुई थी) अपना उम्मीदवार उतार दिया. इस सीट पर आरजेडी के अमर पासवान ने रिकॉर्ड वोटों से जीत दर्ज की. हालत यह हुई कि मुकेश सहनी की उम्मीदवार को तीसरे स्थान से संतोष करना पड़ा. 

मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी ने 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए में रहते हुए चार सीटें जीती थीं. लेकिन वो खुद चुनाव हार गए थे,

मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी ने 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए में रहते हुए चार सीटें जीती थीं. लेकिन वो खुद चुनाव हार गए थे,

सहनी से नाराज बीजेपी ने 23 मार्च 2022 को विकासशील इंसान पार्टी (वीआीपी) के तीन विधायकों साहेबगंज के राजू कुमार सिंह, अलीनगर के मिस्री लाल यादव और गौरा बौराम की स्वर्ण सिंह का पाला पदलवा कर अपने में शामिल कर लिया. इससे बीजेपी विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई. लेकिन वीआईपी का विधानसभा में एक भी विधायक नहीं बचा.

इतना सब होने के बाद भी सहनी झुके नहीं. उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने से इनकार कर दिया. उनकी दलील थी कि 2020 के चुनाव में बीजेपी की 74 सीटों की जीत में उनकी पार्टी का बड़ा योगदान रहा है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. 

कभी चुनाव नहीं जीत पाए हैं मुकेश सहनी

यह विडंबना ही है कि मुकेश सहनी आज तक एक भी चुनाव नहीं जीते हैं, फिर भी उन्होंने बिहार की राजनीति में तेजी से पहचान बना ली है. उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत 2015 के विधानसभा चुनाव से हुई. उस समय उन्होंने बीजेपी के लिए प्रचार किया था. लेकिन कुछ साल बाद, 2019 लोकसभा चुनाव से पहले वे राष्ट्रीय जनता दल और महागठबंधन के साथ चले गए. उनकी पार्टी ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन सभी सीटें हार गई. इसके बाद, अक्टूबर 2020 के विधानसभा चुनाव के दौरान सहनी तेजस्वी यादव की प्रेस कॉन्फ्रेंस से नाटकीय रूप से बाहर निकले. उन्होंने महागठबंधन छोड़ दिया और चुनाव से ठीक पहले एनडीए में शामिल हो गए.

बीजेपी ने वीआईपी को अपने कोटे से सहनी की पार्टी वीआईपी को 11 सीटें दीं थी. वीआईपी के चार उम्मीदवार जीते लेकिन खुद मुकेश सहनी चुनाव हार गए. इसके बाद भी बीजेपी ने सहनी को मंत्री बनाया. उन्हें विधान परिषद में भेजा गया, जिससे वो नीतीश कुमार की कैबिनेट में बने रह सकें. लेकिन उनके अस्थिर राजनीतिक इतिहास को देखते हुए, बीजेपी ने उन्हें केल जुलाई 2022 तक का कार्यकाल दिया. उसके बाद से वो एक बार फिर महागठबंधन के साथ हैं. 

महागठबंधन में अभी सीट शेयरिंग को लेकर पेच फंसा हुआ है. वीआईपी ने 20 से अधिक सीटों की मांग की है.

महागठबंधन में अभी सीट शेयरिंग को लेकर पेच फंसा हुआ है. वीआईपी ने 20 से अधिक सीटों की मांग की है.

बिहार की राजनीति में जाती का गणित

बिहार की राजनीति दरअसल जातीय समीकरणों का खेल है. वहां हर पार्टी जातियों की निष्ठा के बदलते रुख के हिसाब से अपनी रणनीति बनाती है. महागठबंधन (जिसमें राजद और कांग्रेस और वामदल शामिल हैं) को यह अच्छी तरह पता है कि सहनी–निषाद–मल्लाह समुदायों का वोट बैंक चुनावी जीत के लिए बेहद अहम है. लेकिन अब यह समुदाय केवल वोटर बनकर ही नहीं रहना चाहता, बल्कि राजनीति में अपनी ठोस हिस्सेदारी चाहता है. इसी वजह से मुकेश सहनी का 24 सीटों की मांग करना सिर्फ सत्ता की बात नहीं, बल्कि अपने समुदाय की बढ़ती जागरूकता और आत्मसम्मान का संकेत है.

सहनी की यह मांग एक गहरे वैचारिक संघर्ष को भी दर्शाती है. ये समुदाय पुराने ओबीसी और ऊंची जातियों के प्रभुत्व से निकलकर स्वयं अपनी राजनीतिक पहचान बनाना चाहते हैं. ऐसे में उनका यह दांव बहुत बड़ा है. मुकेश सहनी की कामयाबी या नाकामी, दोनों ही बिहार की राजनीति की आगामी दिशा तय कर सकती हैं. अगर महागठबंधन ने उनकी मांगों को नजरअंदाज किया, तो नौ फीसदी आबादी वाला वोट बैंक उससे दूरी बना सकता है. यह वोट बैंक 2025 का चुनाव का परिणाम बदलने की ताकत रखता है.

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