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आगरा को क्यों कहा जाता है दलितों की राजधानी, यह पार्टी अभी तक यहां से नहीं जीत पाई है लोकसभा चुनाव

उत्तर प्रदेश के आगरा को दलितों की राजधानी कहा जाता है. आगरा लोकसभा सीट पर दलित वोट निर्णायक भूमिका में हैं. इसके बाद भी बहुजन समाज पार्टी इस सीट से कभी चुनाव नहीं जीत पाई है. आइए जानते हैं कि कैसा रहा है आगरा सीट का इतिहास.

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आगरा को क्यों कहा जाता है दलितों की राजधानी, यह पार्टी अभी तक यहां से नहीं जीत पाई है लोकसभा चुनाव
आगरा लोकसभा सीट पर दलित वोटरों की संख्या सबसे अधिक है.

आगरा सीट पर तीसरे दौर में सात मई को मतदान होगा.परिसीमन के बाद 2009 में आगरा लोकसभा सीट को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया गया. 19 लाख से अधिक मतदाताओं वाले आगरा लोकसभा क्षेत्र में पांच विधानसभा सीटें- एतमादपुर, आगरा कैंट, आगरा दक्षिण, आगरा उत्तर और जलेसर आती हैं.

आगरा सीट पर कब था कांग्रेस का कब्जा

आजादी के बाद से 1971 तक इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा रहा. कांग्रेस नेता अचल सिंह इस सीट पर 1952 से 1971 तक लगातार पांच बार सांसद चुने गए.लेकिन इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी ने कांग्रेस से यह सीट छीन ली. कांग्रेस ने 1980 के चुनाव में इस सीट पर जबरदस्त वापसी की. उसका कब्जा इस सीट पर 1984 के चुनाव तक रहा. लेकिन 1989 के चुनाव में एक बार फिर यह सीट कांग्रेस के हाथ नहीं आई. 

साल 1989 के बाद शुरू हुए मंडल-कमंडल के दौर के बाद कांग्रेस के लिए यह सीट सपना हो गई. राम लहर पर सवार भारतीय जनता पार्टी ने इस सीट पर 1991 में पहली बार जीत दर्ज की. बीजेपी ने 1996 और 1998 के चुनाव में भी इस सीट पर कब्जा बनाए रखा.

आगरा ने फिल्म एक्टर को भेजा संसद

राम लहर के ठंडा पड़ने के बाद 1999 में कराए गए लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने इस सीट पर फिल्म अभिनेता राज बब्बर को टिकट देकर मैदान में उतारा. उन्होंने ने भी पार्टी को निराश नहीं किया और आगरा सीट सपा की झोली में डाल दी.बीजेपी ने 2004 के चुनाव में 'इंडिया शाइनिंग'का नारा दिया. लेकिन इस नारे की गूंज आगरा में नहीं सुनाई दी. आगरा के मतदाताओं ने राज बब्बर पर ही भरोसा जताया और उन्हें लोकसभा भेजा.

परिसीमन के बाद 2009 के चुनाव में आगरा संसदीय क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दी गई. इस चुनाव में बीजेपी उत्तर प्रदेश में केवल 10 सीटें ही जीत पाई थी. बीजेपी को जिन सीटों पर जीत मिली थी, उनमें आगरा भी शामिल थी.

बीजेपी ने आगरा के डॉक्टर भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाने वाले प्रो. रमाशंकर कठेरिया को टिकट दिया. जनता ने उन्हें जिता कर संसद भेजा.बीजेपी ने 2014 के चुनाव में भी कठेरिया पर भरोसा जताया. वो मोदी लहर पर सवार होकर संसद पहुंचने में कामयाब रहे.लेकिन 2019 के चुनाव में बीजेपी ने कठेरिया का टिकट काटकर एसपी सिंह बघेल को उम्मीदवार बनाया. उन्हें जीतने में कठिनाई नहीं हुई.उन्होंने बसपा के मनोज कुमार सोनी को मात दी थी. 

आगरा में कामयाब क्यों नहीं होती है बसपा

बीएसपी ने 2009, 2014 और 2019 के चुनाव में बीजेपी को जबरदस्त टक्कर दी. बीएसपी तो 2009 का चुनाव करीब 10 हजार वोट से हार गई थी. लेकिन बाद के चुनाव में हार का फासला बढ़ता चला गया.

 इस साल भी बीजेपी ने एसपी सिंह बघेल पर ही भरोसा जताया है. इंडिया गठबंधन में यह सीट समाजवादी पार्टी के खाते में आई है. सपा ने स्थानीय जूता कारोबारी सुरेश चंद कर्दम को टिकट दिया है. कर्दम साल 2000 में यहां से मेयर का चुनाव लड़ चुके हैं. उन्हें दूसरा स्थान मिला था. वहीं बसपा ने पूजा अमरोही को मैदान में उतारा है. पूजा एक कांग्रेस नेता की बेटी हैं और सामाजिक कार्यों के रास्ते राजनीति में दाखिल हुई हैं.

आगरा लोकसभा सीट पर जाटव वोट बैंक निर्णायक भूमिका में रहता है.कांग्रेस इन्हीं वोटों के सहारे यहां से जीतती रही. लेकिन 1980 के दशक में अपने गठन के बाद से बसपा ने कांग्रेस का दबदबा खत्म कर दिया. बसपा कांग्रेस का दबदबा खत्म करने में कामयाब तो रही,लेकिन खुद इस सीट पर कभी जीत नहीं पाई. हालांकि विधानसभा चुनाव में बसपा का आगरा जिले में प्रदर्शन शानदार रहा है. बसपा ने 2007 और 2012के विधानसभा चुनाव में आगरा जिले की नौ विधानसभा सीटों में से छह पर जीत दर्ज की थी.

कभी आरपीआई का गढ था आगरा

बसपा के गठन से पहले उत्तर प्रदेश की राजनीति में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का अच्छा-खासा प्रभाव था. आरपीआई का गठन डॉक्टर बीआर आंबेडकर ने किया था.गठन के बाद आरपीआई ने आगरा में विधानसभा का चुनाव लड़ा और चार सीटों पर जीत दर्ज की थी. लेकिन बाद में इस पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया था. इसी के साथ बसपा का उदय हुआ, लेकिन वह आगरा लोकसभा सीट पर कभी जीत नहीं दर्ज कर सकी. 

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