जब सुप्रीम कोर्ट में परंपराओं को दरकिनार कर हुई चीफ जस्टिस की नियुक्ति, ये हैं 2 मामले

CJI पर राष्ट्रपति ही अंतिम निर्णय लेते हैं. वर्ष 1950 में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के बाद से अब तक देश में इसी प्रक्रिया के तहत CJI की नियुक्ति होती रही है.

जब सुप्रीम कोर्ट में परंपराओं को दरकिनार कर हुई चीफ जस्टिस की नियुक्ति, ये हैं 2 मामले

सुप्रीम कोर्ट में अब तक दो बार सीजेआई की नियुक्ति परंपराओं के विपरीत हुई है.

नई दिल्ली :

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा दो अक्टूबर को रिटायर हो रहे हैं. उन्होंने अगले CJI के लिए जस्टिस रंजन गोगोई का नाम सरकार को सुझाया है. अभी तक परंपरा भी यही रही है. वर्तमान प्रधान न्यायाधीश वरिष्ठता के क्रम को ध्यान में रखते हुए अगले सीजेआई के नाम की सिफारिश सरकार को करते हैं. इस सिफारिश को कानून मंत्री प्रधानमंत्री के समक्ष रखते हैं और प्रधानमंत्री इसे राष्ट्रपति के सामने रखते हैं. विचार विमर्श के बाद राष्ट्रपति ही अंतिम निर्णय लेते हैं. वर्ष 1950 में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के बाद से अब तक देश में इसी प्रक्रिया के तहत CJI की नियुक्ति होती रही है, लेकिन दो बार ऐसे मौके भी आए जब वरिष्ठता क्रम और परंपराओं को दरकिनार कर CJI की नियुक्ति की गई. दोनों ही बार इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं. 

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जब वरिष्ठता क्रम में चौथे नंबर पर रहने वाले जस्टिस ए एन रे बने CJI :
यह साल था 1973 और तारीख थी 25 अप्रैल. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) एसएम सीकरी रिटायर हो रहे थे और वरिष्ठता क्रम में जस्टिस जेएम शेलट दूसरे नंबर पर थे. यानि CJI पद के दावेदार, लेकिन वह सरकार को पसंद नहीं थे. सरकार जिन्हें पसंद करती थी उनका नाम जस्टिस ए एन रे है. यूं तो जस्टिस रे वरिष्ठता क्रम में चौथे नंबर पर थे, लेकिन कहा जाता है कि उनका झुकाव संसद को संविधान में बदलाव के असीमित अधिकार की तरफ था, जो सरकार के स्टैंड के हिसाब से बिलकुल मुफीद था. हालांकि जस्टिस रे अपनी इस राय के साथ अल्पमत में थे. अन्य जज उनके साथ खड़े नजर नहीं आ रहे थे, लेकिन सरकार उनके साथ खड़ी थी और वह CJI बने. बाद में जस्टिस रे के CJI रहते हुए न्यायपालिका के इतिहास में 'लैंडमार्क जजमेंट' के रूप में दर्ज 'केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार' के फैसले को रिव्यू करने का भी असफल प्रयास हुआ. इस प्रयास को 'क्विड प्रो को' के तौर पर देखा गया. 

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जस्टिस एचआर खन्ना, जो सरकार की 'आंख की किरकिरी थे' :
वरिष्ठता क्रम और परंपराओं को दरकिनार कर CJI की नियुक्ति का दूसरा मामला भी इंदिरा गांधी के पीएम रहते हुए सामने आया. 28 जनवरी 1977 को जब जस्टिस ए एन रे रिटायर हुए तो जस्टिस एचआर खन्ना सबसे सीनियर जज थे और प्रधान न्यायाधीश की दौड़ में थे, लेकिन वह सरकार की 'आंख की किरकिरी थे'. इसकी वजह उन्हीं का एक फैसला था. दरअसल, जून 1975 में इमरजेंसी लगने के बाद इंदिरा गांधी सरकार ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया. देश भर में सरकार की खिलाफत करने वाले लोगों की धरपकड़ शुरू हो गई. विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया जाने लगा और इसी दौरान कुछ नेताओं ने अलग-अलग राज्यों के हाई कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण यानी हैबियस कॉर्पस याचिकाएं दायर कर दीं. जिसमें पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज नेता भी शामिल थे. हाई कोर्ट ने कहा कि इमरजेंसी के बावजूद नागरिकों को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने का अधिकार रहेगा और केंद्र सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई.

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सुप्रीम कोर्ट ने सभी मामलों को एक साथ सुनने का निर्णय लिया और इस मामले को ''एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल'' के नाम से जाना गया. मामले की सुनवाई करने पांच जजों की पीठ में चीफ जस्टिस ए एन रे, जस्टिस एच आर खन्ना, जस्टिस एमएच बेग, जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़ और जस्टिस पी एन भगवती शामिल थे. इन पांच जजों की पीठ में से चार जजों ने बहुमत से ये फैसला सुनाया कि इमरजेंसी जैसी स्थिति में सरकार किसी भी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन कर सकती है. यानि फैसला सरकार के पक्ष में हुआ. पांच में से जिस एकमात्र जज ने अपने साथियों के फैसले से असहमति जताई थी वह थे जस्टिस एचआर खन्ना. बाद में सरकार ने एक तरीके से उनसे बदला लेते हुए उनकी जगह वरिष्ठता क्रम में नीचे जस्टिस एमएच बेग को  CJI नियुक्त किया. 

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