नई दिल्ली:
"बाबू मोशाय, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां है, जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है, कौन कब कहां उठेगा, कोई नहीं जानता।" जिंदादिली की नई परिभाषा गढने वाला हिन्दी सिनेमा का आनंद अब नहीं रहा, लेकिन आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं। राजेश खन्ना का जब भी जिक्र होगा, आनंद के बिना अधूरा रहेगा।
ऋषिकेश मुखर्जी की इस क्लासिक फिल्म में कैंसर (लिम्फोसर्कोमा ऑफ इंटेस्टाइन) पीड़ित किरदार को जिस ढंग से उन्होंने जिया, वह भावी पीढ़ी के कलाकारों के लिए एक नजीर बन गया। इस फिल्म में अपनी जिंदगी के आखिरी पलों में मुंबई आने वाले आनंद सहगल की मुलाकात डॉक्टर भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) से होती है।
आनंद से मिलकर भास्कर जिंदगी के नए मायने सीखता है और आनंद की मौत के बाद अंत में कहने को मजबूर हो जाता है कि "आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं।" बहुत कम लोगों को पता है कि आनंद के लिए ऋषिकेश मुखर्जी की असली पसंद महमूद और किशोर कुमार थे, लेकिन एक गलतफहमी की वजह से किशोर इस फिल्म में आनंद का किरदार नहीं कर सके।
दरअसल किशोर कुमार ने एक बंगाली व्यवसायी के लिए एक स्टेज शो किया था और भुगतान को लेकर उनके बीच विवाद हो गया था। किशोर ने अपने गेटकीपर से कहा था कि उस बंगाली को भीतर न घुसने दे। मुखर्जी जब फिल्म के बारे में बात करने किशोर कुमार के घर गए, तो गेटकीपर ने उन्हें वही बंगाली समझ लिया और बाहर से ही भगा दिया। मुखर्जी इस घटना से इतने आहत हुए कि उन्होंने किशोर के साथ काम नहीं किया।
बाद में महमूद भी वह फिल्म नहीं कर सके और राजेश खन्ना तथा अमिताभ बच्चन ने ये किरदार निभाए। हिन्दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना के करियर की यह यकीनन सर्वश्रेष्ठ फिल्म थी, जिसमें उनकी संवाद अदायगी, मर्मस्पर्शी अभिनय और बेहतरीन गीत-संगीत ने इसे भारतीय सिनेमा की अनमोल धरोहर बना दिया।
गुरु कुर्ते पहनने वाला आनंद समुद्र के किनारे जब 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय' गाता है, तो दर्शकों को उसकी पीड़ा का एहसास होता है। वहीं अगले ही पल वह एक अजनबी (जॉनी वाकर) के कंधे पर हाथ रखकर कहता है, "कैसे हो मुरारी लाल, पहचाना कि नहीं।" आनंद के किरदार के इतने रंगों को राजेश खन्ना ने जिस खूबी से जिया कि दर्शक मंत्रमुग्ध रह गए।
आनंद ने सिखाया कि मौत तो आनी है, लेकिन हम जीना नहीं छोड़ सकते। जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए। जिंदगी जितनी जियो, दिल खोलकर जियो। हिन्दी सिनेमा का यह आनंद भले ही अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उसका यह किरदार कभी नहीं मरेगा।
ऋषिकेश मुखर्जी की इस क्लासिक फिल्म में कैंसर (लिम्फोसर्कोमा ऑफ इंटेस्टाइन) पीड़ित किरदार को जिस ढंग से उन्होंने जिया, वह भावी पीढ़ी के कलाकारों के लिए एक नजीर बन गया। इस फिल्म में अपनी जिंदगी के आखिरी पलों में मुंबई आने वाले आनंद सहगल की मुलाकात डॉक्टर भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) से होती है।
आनंद से मिलकर भास्कर जिंदगी के नए मायने सीखता है और आनंद की मौत के बाद अंत में कहने को मजबूर हो जाता है कि "आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं।" बहुत कम लोगों को पता है कि आनंद के लिए ऋषिकेश मुखर्जी की असली पसंद महमूद और किशोर कुमार थे, लेकिन एक गलतफहमी की वजह से किशोर इस फिल्म में आनंद का किरदार नहीं कर सके।
दरअसल किशोर कुमार ने एक बंगाली व्यवसायी के लिए एक स्टेज शो किया था और भुगतान को लेकर उनके बीच विवाद हो गया था। किशोर ने अपने गेटकीपर से कहा था कि उस बंगाली को भीतर न घुसने दे। मुखर्जी जब फिल्म के बारे में बात करने किशोर कुमार के घर गए, तो गेटकीपर ने उन्हें वही बंगाली समझ लिया और बाहर से ही भगा दिया। मुखर्जी इस घटना से इतने आहत हुए कि उन्होंने किशोर के साथ काम नहीं किया।
बाद में महमूद भी वह फिल्म नहीं कर सके और राजेश खन्ना तथा अमिताभ बच्चन ने ये किरदार निभाए। हिन्दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना के करियर की यह यकीनन सर्वश्रेष्ठ फिल्म थी, जिसमें उनकी संवाद अदायगी, मर्मस्पर्शी अभिनय और बेहतरीन गीत-संगीत ने इसे भारतीय सिनेमा की अनमोल धरोहर बना दिया।
गुरु कुर्ते पहनने वाला आनंद समुद्र के किनारे जब 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय' गाता है, तो दर्शकों को उसकी पीड़ा का एहसास होता है। वहीं अगले ही पल वह एक अजनबी (जॉनी वाकर) के कंधे पर हाथ रखकर कहता है, "कैसे हो मुरारी लाल, पहचाना कि नहीं।" आनंद के किरदार के इतने रंगों को राजेश खन्ना ने जिस खूबी से जिया कि दर्शक मंत्रमुग्ध रह गए।
आनंद ने सिखाया कि मौत तो आनी है, लेकिन हम जीना नहीं छोड़ सकते। जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए। जिंदगी जितनी जियो, दिल खोलकर जियो। हिन्दी सिनेमा का यह आनंद भले ही अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उसका यह किरदार कभी नहीं मरेगा।
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