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Explainer: संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'पंथ-निरपेक्ष' शब्द जोड़ने पर विवाद क्यों?

कोर्ट ने ये भी कहा कि प्रस्तावना में समाजवादी और पंथ-निरपेक्ष शब्दों को जोड़ने से चुनी हुई सरकारों की नीतियों और विधायी कामों में कोई पाबंदी नहीं लगी है. बशर्ते ऐसे काम संवैधानिक और मौलिक अधिकारों के ख़िलाफ़ न हों और संविधान के बुनियादी स्वरूप से छेड़छाड़ न करते हों.

Explainer: संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'पंथ-निरपेक्ष' शब्द जोड़ने पर विवाद क्यों?
  • भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और पंथ-निरपेक्ष शब्द 1976 में जोड़े गए.
  • इन शब्दों को जोड़ने पर विवाद 1976 से जारी है, हाल ही में फिर से चर्चा हुई है.
  • डॉ. अंबेडकर ने समाजवाद और पंथ-निरपेक्षता को संविधान में शामिल करने का विरोध किया था.
  • सुप्रीम कोर्ट ने 2024 में इन शब्दों को प्रस्तावना में बनाए रखने का फैसला किया.
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भारतीय संविधान की प्रस्तावना उसके दर्शन, बुनियादी मूल्यों और उद्देश्यों को बताती है. लेकिन संविधान के इस सबसे महत्वपूर्ण हिस्से यानी प्रस्तावना में पचास साल पहले जब से समाजवादी और पंथ-निरपेक्ष शब्द को जोड़ा गया. तब से इन्हें जोड़ने पर बहस चली आ रही है, जो कभी तेज होती है कभी धीमी. अब एक बार फिर ये बहस तेज हुई है. जब आरएसएस के सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने कहा है कि प्रस्तावना से समाजवादी और पंथ-निरपेक्ष शब्द को हटाने पर चर्चा होनी चाहिए. इन दो शब्दों का मतलब क्या है? इन पर इतना हंगामा क्यों है और ये किन परिस्थितियों में संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए गए ये जानना जरूरी है.

विरोध और समर्थन का सिलसिला चलता आ रहा
संविधान सभा ने 26 नवंबर, 1949 को भारत का संविधान अपनाया और 26 जनवरी, 1950 से संविधान देश में लागू हुआ. संविधान की मूल प्रस्तावना के सबसे शुरूआती शब्द इस तरह थे. 'हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए. इसके आगे बाकी लक्ष्यों और उद्देश्यों की बात है. लेकिन अभी हम पहले यहीं तक की बात करते हैं. तो संविधान की मूल प्रस्तावना में भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने का लक्ष्य था. लेकिन देश में इंदिरा गांधी सरकार में लगे आपातकाल के दौरान 1976 में संविधान में एक बड़ा संशोधन किया गया. इसे 42वें संविधान संशोधन के तौर पर जाना जाता है. इसके तहत तमाम संशोधनों के अलावा संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए. समाजवादी यानी सोशलिस्ट और पंथ-निरपेक्ष यानी सेकुलर और तब से ही इन शब्दों को जोड़ने को लेकर विरोध और समर्थन का सिलसिला चलता आ रहा है.

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ये संविधान संशोधन उस वक़्त हुआ जब देश में आपातकाल लगा हुआ था, नागरिक अधिकारों को कुचल दिया गया था और सरकार की कही बात कानून बन गई थी. दूसरा इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ने से संबंधित 42वें संविधान संशोधन विधेयक पर संसद में पर्याप्त चर्चा भी नहीं हुई, क्योंकि विपक्ष के अधिकतर बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था. उन पर ज़ुल्म हो रहे थे. सरकार की बातों का विरोध तक करना संभव नहीं रह गया था. मीडिया पर सेंसरशिप लगी हुई थी. इस संशोधन के तहत इतने अधिक बदलाव किए गए कि इसे ‘mini-constitution तक कह दिया गया. इस संशोधन से केंद्र सरकार की शक्तियों को काफ़ी बढ़ा दिया गया था. लेकिन ऐसा नहीं है कि 42वें संविधान संशोधन से प्रस्तावना में जोड़े गए इन दो शब्दों समाजवादी और पंथ-निरपेक्ष पर पहले कभी बात नहीं हुई.

संविधान सभा में हुई चर्चाओं के दौरान socialism यानी समाजवादी शब्द को प्रस्तावना में शामिल करने की कोशिशें होती रहीं. सोवियत रूस यानी USSR की तर्ज पर भारत का लक्ष्य तय करने की भी कोशिश हुई. 1949 में संविधान सभा के सदस्य हसरत मोहानी ने संविधान की प्रस्तावना को लेकर एक संशोधन पेश किया और कहा कि प्रस्तावना में भारत को Union of Indian Socialistic Republics यानी U. I. S.R. यानी भारतीय समाजवादी गणराज्यों का संघ बनाने का लक्ष्य रखा जाए. लेकिन ये संशोधन गिर गया.

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संविधान सभा के सदस्य एचवी कामत ने भी कहा कि समाजवाद और पंथ-निरपेक्ष शब्दों को प्रस्तावना में जगह मिलनी ही चाहिए. ऐसी कोशिशें सिर्फ़ प्रस्तावना तक ही सीमित नहीं रहीं. इससे पहले नवंबर 1948 में संविधान सभा के एक सदस्य प्रोफ़ेसर केटी शाह ने संविधान के आर्टिकल 1(1) में एक संशोधन पेश किया. शाह ने सुझाव दिया कि India, that is Bharat, shall be a Union of States की जगह India, that is Bharat, shall be a Secular, Federalist, Socialist Union of States” कहा जाए. लेकिन ये प्रस्ताव भी गिर गया.

डॉ बी आर अंबेडकर की राय क्या थी?

ये जानना भी ज़रूरी है कि इन दोनों ही शब्दों पर संविधान निर्माता डॉ बी आर अंबेडकर की राय क्या थी. डॉ अंबेडकर इन दोनों शब्दों को संविधान में शामिल किए जाने के पक्ष में नहीं थे. वो समाजवाद को एक अस्थायी नीति मानते थे. उनका मानना था कि राज्य की नीति क्या होनी चाहिए, इसका फ़ैसला भविष्य में समय और परिस्थिति के आधार पर लोगों द्वारा ख़ुद ही लिया जाना चाहिए. इसे संविधान में शामिल करना लोकतंत्र को ही बर्बाद करने के बराबर होगा. उन्होंने तर्क दिया कि समाजवाद का सिद्धांत पहले ही नीति निर्देशक तत्वों में शामिल है. इसलिए प्रस्तावना में नहीं डाला जाना चाहिए.

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जब पंथ-निरपेक्ष शब्द को गैर जरूरी माना गया

सेकुलरिज़्म यानी पंथ-निरपेक्ष शब्द को भी प्रस्तावना में जोड़ना डॉ अंबेडकर ने ग़ैर ज़रूरी माना और कहा कि मौलिक अधिकारों के ज़रिए पहले ही संविधान में इसकी गारंटी दी हुई है. वो सेकुलरिज़्म के विचार के ख़िलाफ़ नहीं थे लेकिन इसके स्पष्ट उल्लेख का विरोध कर रहे थे. वो मानते थे कि संविधान का बुनियादी ढांचा पहले ही इस सिद्धांत का समर्थन कर रहा है, जहां राज्य सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करेगा और ये सुनिश्चित करेगा कि किसी के साथ भेदभाव न हो. कुल मिलाकर संविधान की मूल प्रस्तावना में समाजवादी और पंथ-निरपेक्ष शब्द शामिल नहीं हुए. लेकिन आज़ादी के 29 साल बाद 42वें संविधान संशोधन से इन्हें प्रस्तावना में जोड़ दिया गया. तब से ही इसका विरोध और समर्थन दोनों जारी हैं.

42वें संविधान संशोधन के तहत केंद्र सरकार और संसद की शक्तियों में भारी विस्तार को पहली चोट तब लगी जब 1980 में मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कई संशोधन खारिज कर दिए. संविधान के 43वें और 44वें संशोधनों ने भी कई संशोधनों को पलट दिया. लेकिन संविधान की प्रस्तावना में हुआ संशोधन बना रहा.

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44 साल बाद 2020 में इसे फिर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट डॉ बलराम सिंह ने समाजवादी और पंथ-निरपेक्ष शब्द को प्रस्तावना में शामिल करने को चुनौती दी. पूर्व विधि मंत्री सुब्रह्मण्यम स्वामी और एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय ने भी ऐसी ही याचिकाएं दायर कीं. उन्होंने दलील दी की पंथ-निरपेक्ष शब्द को संविधान के निर्माताओं ने समझबूझ कर बाहर रखा था और समाजवादी शब्द आर्थिक नीतियों को तय करने में केंद्र सरकार के हाथ बांधता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में इन दलीलों को खारिज कर दिया. चीफ जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस पीवी संजय कुमार ने कहा कि इन दलीलों में दम नहीं है और वो खामियों से भरी हैं. संविधान के अंगीकार होने के 75 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने 25 नवंबर 2024 को संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी यानी सोशलिस्ट और पंथ-निरपेक्ष यानी सेकुलर शब्द जोड़ने पर मुहर लगा दी.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि जब संविधान तैयार हो रहा था तो कई विद्वानों का मानना था कि पंथ-निरपेक्ष शब्द सटीक नहीं है और ये धर्म के विरोध में है. कोर्ट के मुताबिक समय के साथ भारत ने पंथ-निरपेक्ष की अपनी परिभाषा विकसित की जिसमें राज्य न किसी धर्म का समर्थन करता है और न ही किसी विश्वास को मानने पर किसी तरह की रोक लगाता है. संविधान में शामिल बंधुता, समता, व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता जैसे शब्द इस सेकुलर यानी पंथ-निरपेक्ष प्रकृति को दर्शाते हैं.

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इसी तरह कोर्ट ने कहा कि समाजवादी शब्द भी भारत में एक विशेष अर्थ के तौर पर उभरा है. ये आर्थिक और सामाजिक न्याय के उस सिद्धांत को बताता है जिसमें राज्य ये सुनिश्चित करेगा कि कोई भी नागरिक सामाजिक या आर्थिक परिस्थितियों के कारण वंचित न रहे. ये बीते कई सालों में फले-फूले और फैले निजी क्षेत्र पर पाबंदी लगाने को जरूरी नहीं मानता जिसने देश के पिछड़े और वंचित वर्गों को अलग अलग तरह से उठाने में काफ़ी भूमिका निभाई है.

कोर्ट ने ये भी कहा कि प्रस्तावना में समाजवादी और पंथ-निरपेक्ष शब्दों को जोड़ने से चुनी हुई सरकारों की नीतियों और विधायी कामों में कोई पाबंदी नहीं लगी है. बशर्ते ऐसे काम संवैधानिक और मौलिक अधिकारों के ख़िलाफ़ न हों और संविधान के बुनियादी स्वरूप से छेड़छाड़ न करते हों. इसीलिए 42वें संशोधन को लागू होने के 44 साल बाद चुनौती देने का कोई औचित्य नहीं है. इस आदेश को आए अभी आठ महीने ही हुए हैं कि आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर ये बहस फिर शुरू हो गई है. आरएसएस के सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने इस पर चर्चा की जरूरत पर जोर दिया है.

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