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आपातकाल में संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्दों को उपराष्ट्रपति धनखड़ ने बताया नासूर

उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना अपरिवर्तनीय होती है. पूरे संविधान की आत्मा होती है. लेकिन भारत की प्रस्तावना को 1976 में बदल दिया गया... यह एक ऐसा परिवर्तन है, जो अस्तित्व गत संकट को जन्म देता है. ये जोड़े गए शब्द नासूर हैं. ये उथल-पुथल पैदा करेंगे.

आपातकाल में संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्दों को उपराष्ट्रपति धनखड़ ने बताया नासूर
  • उपराष्ट्रपति धनखड़ ने संविधान की प्रस्तावना में बदलाव पर सवाल उठाए.
  • 1976 में प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द जोड़े गए थे.
  • धनखड़ ने आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र का सबसे अंधकारमय दौर बताया.
  • धनखड़ ने कहा- प्रस्तावना का बदलाव संविधान निर्माताओं के प्रति धोखा.
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नई दिल्ली:

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 1976 में जोड़े गए समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्दों की समीक्षा को लेकर विवाद के बीच उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने शनिवार को कहा कि किसी भी संविधान की प्रस्तावना उसकी आत्मा होती है. भारत के अलावा दुनिया के किसी भी देश की संविधान की प्रस्तावना में बदलाव नहीं हुआ, क्योंकि प्रस्तावना अपरिवर्तनीय होती है. संविधान की आत्मा होती है. लेकिन भारत की प्रस्तावना को 1976 में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के तहत बदल दिया गया, उसमें ‘समाजवादी', ‘धर्मनिरपेक्ष' और ‘अखंडता' जैसे शब्द जोड़ दिए गए. उन्होंने इन शब्दों को नासूर करार दिया. 

उपराष्ट्रपति निवास पर आयोजित एक समारोह में धनखड़ ने कहा कि आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का सबसे अंधकारमय दौर था. बहुत से लोग जेलों में थे, उनके मौलिक अधिकार निलंबित थे. संविधान की प्रस्तावना में ‘हम भारत के लोग' लिखा है. ऐसे में उन लोगों के नाम पर जो खुद उस समय दासता में थे, न्याय प्रणाली तक पहुंच से वंचित थे, संविधान की आत्मा को बदल दिया गया. यह न्याय का कितना बड़ा उपहास है.

उन्होंने कहा कि अगर आप गहराई से सोचें तो यह एक ऐसा परिवर्तन है, जो अस्तित्व गत संकट को जन्म देता है. ये जोड़े गए शब्द नासूर हैं. ये उथल-पुथल पैदा करेंगे. आपातकाल के दौरान प्रस्तावना में इन शब्दों का जोड़ा जाना संविधान निर्माताओं की मानसिकता के साथ धोखा है. यह हमारे हजारों वर्षों की सभ्यता की संपदा और ज्ञान का अपमान है. यह सनातन की आत्मा का अपवित्र अनादर है.

उपराष्ट्रपति ने कहा कि केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के 1973 के ऐतिहासिक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की पीठ ने प्रस्तावना पर गहराई से चिंतन किया था. न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना ने कहा था कि प्रस्तावना संविधान की व्याख्या के लिए एक मार्गदर्शक का कार्य करती है. न्यायमूर्ति सिकरी ने कहा था कि संविधान की प्रस्तावना को उसमें व्यक्त उच्च और महान दृष्टिकोण के आलोक में पढ़ा और समझा जाना चाहिए. लेकिन यह महान दृष्टिकोण बिगाड़ दिया गया. डॉ. अंबेडकर की आत्मा को भी आहत किया गया. यह बदलाव हमारी हजारों वर्षों की सभ्यता की भावना के भी विरुद्ध है. जिसे बदला नहीं जाना चाहिए था, उसे हल्के, मज़ाकिया और मर्यादाविहीन तरीके से बदल दिया गया.

समारोह में कर्नाटक के पूर्व एमएलसी और लेखक डी.एस. वीरैया द्वारा संकलित ‘अंबेडकर के संदेश' पुस्तक की पहली प्रति उपराष्ट्रपति को भेंट की गई. धनखड़ ने कहा कि डॉ. अंबेडकर एक दूरदर्शी नेता थे. एक महामानव और राष्ट्रपुरुष थे. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसे व्यक्ति को मरणोपरांत भारत रत्न दिया गया? जब उन्हें यह सम्मान मिला, मैं 1989 में संसद का सदस्य और मंत्री था. तब मेरा हृदय रो पड़ा था, इतना विलंब क्यों? मरणोपरांत क्यों? उन्होंने कहा कि डॉ. अंबेडकर के संदेश आज भी अत्यंत प्रासंगिक हैं. उनका संदेश घर-घर तक पहुंचना चाहिए. ‘अंबेडकर के संदेश' का पहले सांसदों और विधायकों द्वारा, फिर नीति निर्माताओं द्वारा अनुकरण किया जाना चाहिए. 

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