 
                                            कर्मचारी विक्रम.
                                                                                                                        
                                        
                                        
                                                                                नई दिल्ली: 
                                        डिजिटल लेनदेन का भरपूर प्रचार-प्रसार किया जा रहा है लेकिन लाखों लोगों के लिए यह दूर की कौड़ी ही है. बड़ी संख्या में निजी संस्थाओं, प्रतिष्ठानों में कार्यरत कर्मचारियों, मजदूरों के बैंक में खाते ही नहीं हैं. जिनके खाते हैं उनमें से बहुत लोगों के पास डेबिट कार्ड नहीं हैं. नगद राशि पाने के लिए बैंकों में कतारों में लगने का अर्थ है समय और आर्थिक हानि उठाना. किसी का खाता न होने के कारण वेतन रुका हुआ है तो किसी के खाते में पैसे होने के बावजूद वह उसे इसलिए नहीं निकाल पा रहा है क्योंकि उसके पास एटीएम/डेबिट कार्ड नहीं है.    
विक्रम पिछले कई सालों से सदर बाजार के एक थोक व्यापारी के यहां काम करते हैं. मोदी जी की कृपा हुई तो 6 महीने पहले जनधन खाता खुल गया पर अब तक कई चक्कर लगाने के बावजूद डेबिट कार्ड नहीं मिल पाया. उन्हें अब तक मालिक नगद में ही वेतन देता था इसलिए कभी बैंक खाते की जरूरत नहीं पड़ी. लेकिन इस बार उनके मालिक सरकार के डिजिटल पेमेंट के नारे से ऐसे प्रभावित हुए कि विक्रम का वेतन सीधे अपनी कंपनी के खाते से विक्रम के खाते में ट्रांसफर कर दिया.
अब समस्या यह है कि विक्रम के पास डेबिट कार्ड है नहीं और बैंकों के आगे लंबी कतारें हैं जिसमें लगने पर पूरा दिन गुजर जाएगा. वह पैसे निकालें भी तो कैसे? मालिक ने छुट्टी देने से मना कर दिया है क्योंकि विक्रम अगर बैंक की कतार में लगेंगे तो काम कौन करेगा?
विक्रम को तो फिर भी संतोष है कि देर सवेर पैसा निकाल ही लेंगे, पर अब भी बहुत से ऐसे कामगार हैं जिनके बैंक खाते नही हैं. दो महीने से वेतन नहीं मिला है. मालिक कहता है कि चेक ले लो, पर खाता है नहीं. खाता खुलवाने गए तो बैंक ने 15 दिन का इंतजारी टोकन थमा दिया.
सड़कों पर नोटबंदी के 44 दिनों के बाद भी सैकड़ों ऐसे कामगार रोज मिलते हैं जिन्होंने अब तक एक बार भी कोई नया नोट नहीं देखा है. कभी बैंक की शक्ल नहीं देखी है, तो डिजिटल बैंकिंग की बात तो बहुत दूर रही.
                                                                        
                                    
                                विक्रम पिछले कई सालों से सदर बाजार के एक थोक व्यापारी के यहां काम करते हैं. मोदी जी की कृपा हुई तो 6 महीने पहले जनधन खाता खुल गया पर अब तक कई चक्कर लगाने के बावजूद डेबिट कार्ड नहीं मिल पाया. उन्हें अब तक मालिक नगद में ही वेतन देता था इसलिए कभी बैंक खाते की जरूरत नहीं पड़ी. लेकिन इस बार उनके मालिक सरकार के डिजिटल पेमेंट के नारे से ऐसे प्रभावित हुए कि विक्रम का वेतन सीधे अपनी कंपनी के खाते से विक्रम के खाते में ट्रांसफर कर दिया.
अब समस्या यह है कि विक्रम के पास डेबिट कार्ड है नहीं और बैंकों के आगे लंबी कतारें हैं जिसमें लगने पर पूरा दिन गुजर जाएगा. वह पैसे निकालें भी तो कैसे? मालिक ने छुट्टी देने से मना कर दिया है क्योंकि विक्रम अगर बैंक की कतार में लगेंगे तो काम कौन करेगा?
विक्रम को तो फिर भी संतोष है कि देर सवेर पैसा निकाल ही लेंगे, पर अब भी बहुत से ऐसे कामगार हैं जिनके बैंक खाते नही हैं. दो महीने से वेतन नहीं मिला है. मालिक कहता है कि चेक ले लो, पर खाता है नहीं. खाता खुलवाने गए तो बैंक ने 15 दिन का इंतजारी टोकन थमा दिया.
सड़कों पर नोटबंदी के 44 दिनों के बाद भी सैकड़ों ऐसे कामगार रोज मिलते हैं जिन्होंने अब तक एक बार भी कोई नया नोट नहीं देखा है. कभी बैंक की शक्ल नहीं देखी है, तो डिजिटल बैंकिंग की बात तो बहुत दूर रही.
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