दिसंबर 19 से पहले दुनिया अपने रौ में बह रही थी और हर इंसान अपने-अपने हिस्से के सपने भी बुन रहा था, वो सपने देख भी रहा था और अपने सपने को सच का लिबास पहनाने के लिये योजना बनाने और उस पर अमल करने में भी जुटा हुआ था. लेकिन उस वक्त उसे क्या पता था कि चीन के वुहान शहर में एक ऐसा वायरस जन्म ले कर अपना पैर पसारने की तैयारी कर रहा था जो उनके स्वप्न को दुःस्वप्न में बदल देगा. दुनिया जब तक उस वायरस के खतरनाक मनसूबों और उसकी ताक़त को समझती तब तक वो चीन के वुहान शहर से चुपके से इटली पहुंच गया और फिर वहां से पूरे यूरोप को अपनी गिरफ्त में लेने लगा. देखते-देखते उसने इंसानो को न सिर्फ अपनी गिरफ्त में लिया बल्कि उनकी जान भी लेने लगा. हर तरफ उसकी ताक़त और पांव पसारने की क्षमता ने लोगों को असहाय कर दिया. ऐसे कहर और नज़र न आने वाले वायरस की कल्पना इक्कीसवीं सदी में चांद और मंगल गृह पर अपना झण्डा बुलंद करने वाले अत्याधुनिक वैज्ञानिकता से युक्त मानव की कल्पना में भी नहीं रहा होगा. और ये कल्पना भारत के उस प्राचीन नगर को भी नहीं थी, जहां गतिशीलता कभी रूकती नहीं जो अनादिकाल से अपने रस से शिव की त्रिशूल पर विराजमान हो कर सभी को सराबोर करती रही. जहां उत्तर वाहिनी माँ गंगा के किनारे अर्ध चंद्राकार से बने घाटों के मुक्तासिय मंच पर ज्ञान, अध्यात्म , शात्रार्थ , भजन पूजन , गंगा आरती , का मनोरम वातावरण बना रहता थाय साथ ही गंगा की लहरों पर इसकी सुंदरता निहारने के लिए देश-विदेश से आए सैकड़ों सैलानी हर रोज नावों में विचरण करते और इसे निहारते हुए अपने कैमरे में कैद करते नज़र आते थे.
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लेकिन आज वो सब खामोश हो गया है ऐसा लग रहा है मानो गंगा जब धरती पर आई थी तो स्वर्ग से पृथ्वी तक आने के लम्बी यात्रा से जो थकान हुआ होगा और उस वक्त जिस तरह उसने विश्राम किया होगा ठीक वैसे ही आज वो विश्राम करती नज़र आ रही है. जब कोई मां विश्राम करती है तो उसके बच्चे किसी भी खतरे से निश्चिंत होकर आह्लादित होते उसकी आंचल में क्रीड़ा करते नज़र आते हैं आज ठीक वैसा ही बनारस के सभी चौरासी घाटों पर गंगा के किनारे उसके जल जीव, मछलियां अठखेलियां करती नज़र आ रही हैं. गंगा में निःशब्द स्पंदन , घाटों का मौन व्रत, सडकों पर वीरानगी और गलियों की चिर शान्ति ऐसा एहसास करा रही है मनो प्रकृति को सदियों बाद इस तरह की शान्ति मिली हो जिसमे वो कुछ पल के लिये अपने को आराम कर नव सृजन के लिये नव जीवन प्राप्त कर सके.
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कवि केदार नाथ सिंह की कविता का बनारस खामोश है. लहरतारा और मंडुवाडीह की तरफ से धूल का बवंडर नहीं दिखाई पड़ रहा, लॉकडाउन के इस दौर में बसंत भी कब आया पता ही नहीं चला क्योंकि बात-बात पर उत्सव करने वाले इस शहर में बसंत के आने का उत्सव ही नहीं हुआ. हर कोई अपने घर में दुबका रहा. इस महान पुराने शहर की उत्सवधर्मी जीभ भी कोरोना के भयानक दांत के बीच चुपचाप अंदर ही सिमटी रही. दशाश्वमेघ घाट की सीढ़ियां उदास नज़र आने लगी, उसकी सीढ़ियों पर बैठे बन्दर भी इस खालीपन के सन्नाटे को नहीं समझ पा रहे हैं. भिखारी भी सडकों से नदारत हैं लिहाजा उनके कटोरों को खोजता कहीं बसंत भी भटक गया. एक शहर से दूसरे शहर न आ पाने की पाबन्दी सिर्फ ज़िंदा मनुष्यो को नहीं बल्कि मोक्ष की कामना लेकर आने वाले शवों की गति को भी रोक दिया, लिहाजा मोक्ष का द्वार मणिकर्णिका से उठने वाला धुआं भी आनादिकाल के सबसे मद्धिम गति से उठता नज़र आ रहा है. जिस शहर के हर चाल में एक लय हो, कहते हैं जहां समय भी आ कर स्थगित हो जाता है. यहां की मस्ती यहां के अल्हड़पन यहां के बिंदास और बेबाक पन में कहीं गुम हो जाता है. उस शहर में भी एक अनजाना सा डर लोगों को सताने लगा. हालंकि सप्तऋषि आरती के आलोक में अद्भुत सा दिखने वाले इस शहर में सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से हो रही एक आरती का लपट इस अनजाने भय के अन्धकार को भेदने की कोशिश करती जरूर नज़र आई.
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और ये कोशिश ही नज़ीर के शब्दों में ये पुरजोर एहसास कराती है कि जिस शहर का साया फ़िगन शंकर की जटा हो फिर वहां कोई भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता. कोरोना को भी बनारस के लोगों ने अपनी होशियारी और जिजीविषा से न सिर्फ रोक दिया है बल्कि वो उस प्रकृति के नव निर्माण का, उसके विश्राम के स्पंदन का, आंनद लेने लगा क्योंकि बनारस की फ़िज़ाओं में साफ़ हवा के झोंके बरसों बाद बह रहे हैं. हर घर में सुबह कोयल की कूक सुनाई पड़ रही है तो पक्षी उन्मुक्त आकाश में विचरण करते नज़र आ रहे हैं. जब मनुष्य घरों में हैं तो सभी पशु पक्षी जीव इस समय आह्लादित होकर इस बदले माहौल का आनद उठा रहे हैं.
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बनारस मस्ती का शहर है, बिंदासपन का शहर है , इसकी जीवंतता चाय पान की दुकान पर लगने वाली अडियों में नज़र आती है. कोरोना ने इनसे इनकी इन अड़ियों को छीन लिया. तीतर बितर कर दिया. तीतर बितर इसलिये क्योंकि वो इसे ख़त्म नहीं कर पाई और यूं भी ये अड़ी ख़त्म हो ही नहीं सकती क्योंकि यही तो इस शहर का प्राण है, इसकी आत्मा है. लिहाजा मोबाईल पर ऑन लाईन अड़ियों लगने लगी किसी अड़ी का नाम ठलुओं की अड़ी पड़ा तो कहीं लॉकडाउन निठ्ठला चिन्तन अड़ी बन गई और ऐसी दर्जनों आडियों पर कोरोना की ऐसी तैसी के साथ देश दुनिया की खबर ली और दी जाने लगी. लॉकडाउन की दुश्वारियों में जिंदादिली से लबरेज़ इन आडियों से अन्नपूर्णा के इस शहर में मदद के हाथ भी आगे बढे. हेल्प वीएनएस और फ़ूड वीएनएस जैसे कई ऐसे ग्रुप बने जहां घर परिवार के छोटे छोटे बच्चों से लेकर बड़े बुजुर्ग तक पूड़ी सब्ज़ी का पैकेट अपने अपने सामर्थ्य के हिसाब से बना कर देने लगे। चंद लोगों के साथ शुरू हुई इस मुहीम में जहां सैकड़ों लोग जुट गए वहीं देखते देखते हज़ारों पैकेट भोजन हर दिन बन कर प्रशासन की मदद से लोगों तक पहुंचने लगा.
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लॉकडाउन बच्चों से लेकर बड़ों तक की कई छिपी प्रतिभाएं भी निकल कर बाहर आईं बहुत से ऐसी घरेलू महिला जो कवि तो नहीं थी लेकिन उनके अंदर एक सृजनात्मक क्षमता जरूर थी जो उनसे छिपी हुई थी इस लॉकडाउन में एक बार उनकी सृजनात्मक क्षमता दिल की अन्तस गहराइयों से निकल कर कलम के जरिये जब कागज़ पर नमूदार हुई तो उसके भाव शिल्प को देख कर बड़े से बड़े कवि भी हतप्रभ रह जायेंगे. जिसकी बानगी घरेलु महिला मधु साह की इन दो कविताओं में नज़र आती हैं "
हे सूर्यनारायण
तेरा उपासक घबरा रहा है
तुझसे भी ना मिल पा रहा है
कुछ ऐसी रेशमिया बनाओ
उस विषाक्त जीवाणु के
चक्रव्यूह से बचाओ
अपनी पराबैगनी किरणों से
जीवाणुओं की श्रंखला घटाओ
ना होगा अब सृष्टि का दोहन
मुझे मेरे हाल से बचाओ
मेरे पग बढ़ाओ
सबसे मिलाओ
चैत्र नवरात्रि पर जब नव देवियों को भोग लगाने पर भी कोरोना का असर दिखाई पड़ा तो मधु शाह के अंदर की सृजनात्मकता से ये कविता निकल पड़ी -
सुनी है सारी गलियां
सड़कों पर ना ठुमकी
नन्ही परियां
ना लहंगा ना चुनरियां
कहां गई वो गुड़िया
जो सड़कों पर थी छम-छमाती
नौमी पर द्वार-द्वार खटखटाती
कुछ खाती थी
कुछ गिराती थी
अपने पैसों को
पोटली पर छुपाती थी
आज कितनी जिम्मेदार
हो गई है यह परियां
हमें कह रही गुड़िया
हमें घर में रहकर
देश को बचाना है
इस चैत में नहीं
शरदीय नवरात्रि में आना है
इस बार अपनी शक्ति को
घर बैठकर ही दिखाना है।
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लॉकडाउन में बनारस की ये सृजनात्मकता हर किसी के में नज़र आती है और कोई अपने अपने अपने तरह से इस दौर में अपनी मस्ती का समाज रचे हुए है लेकिन इससे इतर आज बड़े बड़े आधुनिक शहर भले ही नई नई तकनिकी और चकाचौंध से लबरेज़ हों लेकिन उन शहरों के भीतर के मन को टटोलेंगे तो वो सिर्फ एक कंक्रीट के जंगल मात्र हैं. जहां न सिर्फ संवेदनाये सूख गई हैं बल्कि आपसी पहचान भी फ्लैटों के नंबरों में कहीं गुम हो गई हैं क्योंकि वहां लोग नाम या उपनाम से नहीं बल्कि 101 वाले 202 वाले और 303 वाले जैसे फ्लैटों के नंबर से पहचाने जाते हैं. इससे अलग सात वार और नौ त्यौहार वाला शहर बनारस कभी दुखी और उदास नहीं होता. हर किसी परिस्थिति में वो अपना उत्सव ढूंढ ही लेता है फिर चाहे मौत ही क्यों न हो. चिता से उढती लपटों के शिखर का आध्यात्म बताने वाले इस शहर में वो पुरातन परम्परा आज भी जीवित है जिसमे अपनी ही नहीं बल्कि मोहल्ले की बहन-बहन और मोहल्ले की बुआ सबकी बुआ होती है. जो सभी के लिए अपने मां का प्यार बिखेरती रहती है. ऐसे शहर की जीवंतता कोरोना से कभी ख़त्म नहीं हो सकती. हां, थोड़े समय के लिए इस शहर के देवी देवता भी विश्राम कर रहे और नगर के लोग भी क्योंकि ये दुनिया का इकलौता ऐसा शहर है जहां मंदिरों में घर और घरों में मंदिर है. जहां 33 कोटि देवी देवता इस आनद कानन में रमते रहते हैं.
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