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भारत के साथ दोहरा मापदंड क्यों अपना रहे हैं डोनाल्ड ट्रंप, टैरिफ वार से क्या बिगड़ेंगे रिश्ते

डॉ. समीर शेखर
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 01, 2025 10:44 am IST
    • Published On अगस्त 01, 2025 10:39 am IST
    • Last Updated On अगस्त 01, 2025 10:44 am IST
भारत के साथ दोहरा मापदंड क्यों अपना रहे हैं डोनाल्ड ट्रंप, टैरिफ वार से क्या बिगड़ेंगे रिश्ते

अमेरिका में 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' (MAGA) अभियान के सहारे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दोबारा सत्ता में आने के साथ ही पुरानी 'अमेरिका फर्स्ट' नीति का फिर से अनुसरण करते हुए वैश्विक व्यापार विमर्श में महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत दिया था. इस क्रम में एकतरफा निर्णय, उच्च शुल्क और आर्थिक राष्ट्रवाद सिद्धांत को अपनाते हुए ट्रंप ने भारत की ओर से अमेरिका को किए जाने वाले निर्यात पर 25 फीसदी का व्यापक टैरिफ लगाने की घोषणा की. यह भारत-अमेरिका संबंधों की दिशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ है. अपने पहले कार्यकाल (2017-2021) के दौरान आक्रामक संरक्षणवादी रुख के लिए जाने जाने वाले ट्रंप ने एक बार फिर टैरिफ कूटनीति को अमेरिकी विदेश और आर्थिक नीति के केंद्र में ला दिया है. एक अगस्त, 2025 को भारत सहित कई देशों पर टैरिफ और जुर्माने की एक नई लहर का प्रस्ताव रखने वाली घोषणा ने व्यापार युद्धों, आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान और बहुपक्षवाद की कमजोरी जैसे प्रमुख मुद्दे आधारित वैश्विक चिंताओं को फिर से हवा दे दी है.

डोनाल्ड ट्रंप का भारत की अर्थव्यवस्था को 'डेड इकॉनमी' कहना न केवल तथ्यात्मक रूप से गलत है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के आंकड़ों के खिलाफ भी है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक के अनुसार, भारत 2025 में 6.8 फीसदी की दर से बढ़ रही दुनिया की सबसे तेजी से विकसित होती बड़ी अर्थव्यवस्था है. भारत की जीडीपी 4.2 ट्रिलियन डॉलर को पार कर चुकी है, जबकि तकनीक, विनिर्माण और डिजिटल अर्थव्यवस्था में उसका प्रदर्शन सराहनीय है. वहीं अमेरिका, मंदी की आहट, उच्च ब्याज दरों और चीन के साथ व्यापार युद्ध की पुनरावृत्ति के बीच फंसा हुआ है. ट्रंप की आर्थिक नीतियों के कारण अमेरिका में महंगाई और वैश्विक निवेश की अनिश्चितता बढ़ी है. यही कारण है कि वो हाल ही में नए निवेश आकर्षित करने के उद्देश्य से खाड़ी देशों की यात्रा पर गए थे. भारत जहां आत्मनिर्भरता और वैश्विक साझेदारी की नीति पर काम कर रहा है, वहीं अमेरिका संरक्षणवाद, आर्थिक राष्ट्रवाद के रुख को अपनाए हुए है.भारत और रूस को डेड इकॉनमी कहना महज राजनीति और भारत-रूस के संबंधों के प्रति रोष से प्रेरित है न कि आर्थिक तथ्यों पर आधारित.

ट्रंप की संरक्षणवादी नीति का हिस्सा है टैरिफ  

ट्रंप की टैरिफ रणनीति का विकास उनके पहले कार्यकाल से ही उनके संरक्षणवादी नीति का हिस्सा रहा है. उस दौरान उन्होंने कट्टर और एकतरफा उलटफेर करने वाले आर्थिक निर्णय लिए जिसने भारत समेत दुनिया की कई महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं के साथ व्यापारिक समीकरण को नए सिरे से परिभाषित किया. ट्रंप  प्रशासन ने 2017 में जहां एक तरफ ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (TPP) से खुद को अलग कर लिया, वहीं NAFTA को नए नियमों व शर्तों के साथ एक आधुनिक संस्करण 'संयुक्त राज्य अमेरिका-मेक्सिको-कनाडा समझौते' (USMCA) के रूप में प्रतिस्थापित किया था.यह उनके प्रशासन की आर्थिक और राजनीतिक प्राथमिकताओं के साथ अधिक संरेखित है. ट्रंप  का मानना था कि NAFTA अमेरिकी श्रमिकों और उद्योग के लिए अनुचित था. इसके अलावा ट्रंप के संरक्षणवादी नीति और अमेरिका फर्स्ट नीति के तहत कई देशों पर स्टील (25 फीसदी) और एल्युमीनियम (10 फीसदी) पर टैरिफ लगान, चीन के साथ व्यापार युद्ध (360 अरब डॉलर से ज़्यादा मूल्य के चीनी सामान पर टैरिफ लगाने) से लेकर 2019 में भारत की सामान्यीकृत वरीयता प्रणाली (GSP) को समाप्त करना भी शामिल था. इससे 5.6 अरब डॉलर का भारतीय निर्यात प्रभावित हुआ था.

डोनाल्ड ट्रंप भारत और रूस के बीच व्यापारिक संबंधों से नाराज बताए जा रहे हैं.

डोनाल्ड ट्रंप भारत और रूस के बीच व्यापारिक संबंधों से नाराज बताए जा रहे हैं.

क्या है भारत पर लगे टैरिफ का कारण भारत-रूस संबंध या भारत की व्यापार नीति

एक तरफ यह प्रतीत होता है कि भारत के प्रति ट्रंप  के इस निर्णय का प्रमुख कारण रूस के साथ भारत की स्थायी रक्षा और ऊर्जा साझेदारी है, जिस पर अमेरिका लंबे समय से नजर रख रहा है. खासकर यूक्रेन और अन्य क्षेत्रों में मास्को की कार्रवाइयों के बाद रूस को अलग-थलग करने के पश्चिमी देशों के निरंतर प्रयासों के बीच भारत का व्यापारिक संबंध के कारण व्यापारिक तनाव और उसमें अंतर्निहित कूटनीतिक चिंता के रूप में देखा जा सकता है. हालांकि अमेरिका का यह रवैया उसके प्रति भारतीय व्यापार नीति को भी एक प्रमुख वजह के रूप में देखा जा सकता है. चूंकि अमेरिका द्वारा जुर्माने की नीति के तहत वैसी भारतीय कंपनियों के उत्पादों को जो रूसी रक्षा या ऊर्जा क्षेत्रों से वित्तीय रूप से जुड़े हैं, उन्हें बाजार पहुंच से वंचित होने, लाइसेंस में देरी, द्वितीयक शुल्क (25 फीसदी के व्यापक टैरिफ के अलावा अतिरिक्त 100 फीसदी तक के टैरिफ), निर्यात प्रतिबंध आदि जैसे परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है.

दोनों देशों के बीच व्यापारपरक रणनीतिक टकराव के अन्य कारणों में डेटा संग्रहण नीति, GSP से भारत का निष्कासन, बायोमेडिकल और पेटेंट नीति व भारत की ओर से अमेरिकी उत्पादों के निर्यात पर उच्च शुल्क दर शामिल हैं.भारत की नीति है कि उपभोक्ता डेटा भारत में ही स्टोर हो. अमेरिकी कंपनियां (जैसे अमेजन, गूगल, वालमार्ट) इस नियम का विरोध करती हैं, क्योंकि इससे उनकी संचालन लागत और नियंत्रण पर असर पड़ता है. अमेरिका ने 2019 में भारत को GSP से बाहर कर दिया था. इससे भारत को कई उत्पादों पर शून्य शुल्क का लाभ नहीं मिल रहा. भारत चाहता है कि पुनः स्पेशल ट्रेड स्टेटस (GSP) का दर्जा बहाल हो, लेकिन अमेरिका इसके लिए भारत में अधिक बाजार पहुंच की मांग कर रहा है. अमेरिका भारत की बायोमेडिकल और पेटेंट नीति पर भी आपत्ति जताता आया है. खासतौर पर जेनेरिक दवाइयों को लेकर अमेरिका भारत की मुनाफा-आधारित पेटेंट प्रणाली के बजाय जन-स्वास्थ्य आधारित प्रणाली को प्राथमिकता देने से नाखुश रहा है. दरअसल अमेरिका चाहता है कि भारत अमेरिकी आईटी उत्पादों, कृषि वस्तुओं और चिकित्सा उपकरणों पर टैरिफ (शुल्क) को कम करे, जबकि भारत घरेलू उद्योगों की रक्षा के लिए इन उत्पादों पर मौजूदा आयात शुल्क बनाए रखना चाहता है. ट्रंप ने भारत द्वारा कृषि उत्पादों पर 39 फीसदी और वनस्पति तेलों और सेब जैसी चुनिंदा वस्तुओं पर 45-50 फीसदी औसत टैरिफ स्तरों को अनुचित करार दिया था. अगर दोनों देशों के रवैये पर गौर करें तो यह मूल्यों और हितों का टकराव जैसा दिखाई देता है. ऐसे में आगे चलकर भारत को अंतरराष्ट्रीय दबाव और घरेलू जरूरतों के बीच संतुलन बनाना होगा.

टैरिफ और पेनाल्टी की घोषणा भारत के प्रति दोहरा मापदंड  

हालांकि देखा जाए तो अमेरिका भारत के साथ दोहरे मापदंड अपना रहा है. तुर्की और मिस्र का रूस के साथ रक्षा संबंध और जर्मनी का रूसी गैस अवसंरचना के साथ जुड़े होने के बाद भी अमेरिका का रवैया उनके प्रति सहयोगात्मक है. ट्रंप की घोषणा एक लेन-देन संबंधी कूटनीति का संकेत देती है, जहां आपसी सम्मान के माध्यम से सहयोग को बढ़ावा देने के बजाय, व्यापार के लाभ का इस्तेमाल राजनीतिक गुटबाजी हासिल करने के लिए किया जा रहा है. भारत के विपरीत, यूरोपीय संघ, ब्रिटेन, जापान और आसियान के सदस्य देशों ने अंतरिम समझौते किए हैं. इनमें टैरिफ दरें 10 फीसदी (ब्रिटेन), 15 फीसदी (यूरोपीय संघ,जापान) या 19-20 फीसदी (वियतनाम, इंडोनेशिया) तक सीमित हैं. इसके विपरीत, भारत को सबसे अधिक दरों में से एक 25 फीसदी का सामना तो करना पड़ ही रहा है. इसके साथ में रूस से संबद्ध भारतीय उद्योगों के संदर्भ  में 100 फीसदी तक के अतिरिक्त जुर्माने की भी घोषणा की गई है.

अमेरिकी टैरिफ का प्रभाव क्या पड़ेगा 

वित्त वर्ष 2024-25 में अमेरिका को भारत का निर्यात 110 अरब डॉलर को पार कर गया.इसमें आईटी सेवाएं, फार्मास्यूटिकल्स, परिधान, रत्न-आभूषण और ऑटो पार्ट्स जैसे क्षेत्रों का दबदबा रहा. इस टैरिफ नीति से लगभग सभी भारतीय निर्यात श्रेणियां प्रभावित होने की संभावना है. इनमें वस्त्र, रत्न-आभूषण (लगभग 10 अरब डॉलर का निर्यात), फार्मास्युटिकल्स और जेनेरिक दवाएं, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटो कंपोनेंट्स, समुद्री खाद्य पदार्थ आदि शामिल हैं. वैसे भारतीय उत्पाद जो अमेरिकी बाजार पर अत्यधिक निर्भर हैं, उनके निर्यात लागत में वृद्धि होगी. इससे वियतनाम, इंडोनेशिया और चीन जैसे प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले अंतरराष्ट्रीय बाजार में हमारी प्रतिस्पर्धात्मकता कम हो सकती है. ऐसे में अमेरिकी बाजार पर अत्यधिक निर्भरता वाले उद्योगों को यूरोप, आसियान, लैटिन अमेरिका जैसे बाजारों का रुख करना चाहिए जो भारत को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में मजबूती देगी.

ट्रंप का विश्व-राजनीती से प्रेरित यह कदम रणनीतिक परिप्रेक्ष्य में किए गए सामूहिक प्रयासों को भी हानि पहुंचाएगा. उसकी घातक व्यापार नीति और भारत को 'डेड इकॉनमी' कहना दोनों देशों द्वारा क्वाड (Quad) मंच के माध्यम से चीन के बढ़ते प्रभुत्व को नियंत्रित करने के लिए विकसित किए गए हिंद-प्रशांत रणनीति के मूलभूत उद्देश्यों और रणनीतिक सहयोग की भावना के विरुद्ध है. यह BECA और COMCASA जैसे रक्षा सौदों के साथ यह चीन को घेरने की क्वाड रणनीति को भी निश्चित रूप से कमजोर करेगा. 

अमेरिकी टैरिफ से भारतीय व्यापार नीति में बदलाव तो तय है ही, इसके साथ ही विश्व व्यापार के मोर्चे पर भी तनाव बढ़ेगा. प्रमुख क्षेत्रों में भारतीय आपूर्तिकर्ताओं की लागत बढ़ेगी और जीडीपी के विकास दर में संभावित रूप से कमी आने की प्रबल संभावना है. टैरिफ व्यवस्था में संरचनात्मक अंतर, गहराते भू-राजनीतिक विवाद और रुके हुए सौदे भारत-अमेरिका आर्थिक संबंधों की नाज़ुक प्रकृति को उजागर करते हैं. भारतीय निर्यातकों के लिए, आगे का रास्ता बाजार विविधीकरण, नीतिगत लचीलेपन और एक निष्पक्ष द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर निर्भर करता है. यह कदम कूटनीतिक सफलता का संकेत देता है या नहीं, यह देखना अभी बाकी है.

टैरिफ सुधारों की आड़ में राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से भारत पर लगाए गए व्यापार प्रतिबंध के ठीक एक दिन बाद पाकिस्तान के साथ व्यापारिक समझौते में विस्तार, भारत के भू-राजनीतिक संरेखण पर दबाव डालने के उद्देश्य से लिए गए निर्णय प्रतीत होते हैं. व्यापार विवादों को भारत के रूस से संबंधों से जोड़कर, अमेरिका एशिया में एक महत्वपूर्ण साझेदार को अलग-थलग करने का जोखिम उठा रहा है. अमेरिका को दंडात्मक कार्रवाई के बजाय, आपसी हितों पर आधारित रचनात्मक कूटनीति, रणनीतिक स्वायत्तता के प्रति सम्मान और रक्षा विविधीकरण पर संवाद दोनों देशों के लिए बेहतर होगा. भारत की बात करें तो इस व्यापार निर्भरताओं को पुनर्निर्धारित करने, बहुपक्षीय मंचों पर नेतृत्व स्थापित करने और एक अधिक आत्मनिर्भर, लचीला आर्थिक मॉडल गढ़ने के अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए. इस विकसित होती व्यापारिक बिसात में भारत झुकता है, संतुलन बनाता है या संघर्ष करता है, यह देखना अभी बाकी है. लेकिन एक बात स्पष्ट है कि वैश्विक व्यापार के नियम एक बार फिर से लिखे जा रहे हैं. ऐसे में भारत को चतुराई से खेलने के लिए तैयार रहना होगा.

अस्वीकरण: लेखक ओडिशा के भुबनेश्वर स्थित कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी में अंतरराष्ट्रीय व्यापार और विपणन पढ़ाते हैं.  इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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