शिक्षक की पूजा नहीं की जानी चाहिए. शिक्षक देवता नहीं है. होना भी नहीं चाहिए. देवता होने पर कर्म का भाव गायब हो सकता है. वह अपनी जिम्मेवारियों से बच निकल सकता है. और अपनी गलतियों पर पर्दा डाल सकता है. शिक्षक को सबसे पहले यह स्वीकारना चाहिए कि वह मनुष्य है. और मनुष्य होने के नाते उसकी मनुष्यता के प्रति जिम्मेवारी बड़ी है. उसमें भी गुण है, उसमें भी दोष है. मुझे इस सन्दर्भ में सलमान रुश्दी की एक पंक्ति याद आती है, ''मैं मनुष्य हूं, और मनुष्य होने के नाते मैं ईश्वर की लिखी किताब और मनुष्यों की लिखी किताबों के बीच चुनना होगा तो मैं मनुष्यों की लिखी किताबों के साथ ही खड़ा रहूंगा.'' यह भाव ही मनुष्य होने का भाव है. शिक्षकों को देवत्व के भाव से निकलना चाहिए. यह अकर्म का भाव है.
गलतियां कौन करता है
गलतियां शिक्षण का अनिवार्य हिस्सा है. और जब वह इन जिम्मेवारियों का निर्वहन करेगा तो उससे भी गलतियां होंगी. अगर हमसे समाज में गलतियां होती हैं तो हमें उनके विरोध को झेलना पड़ता है. सभी प्रकार के कार्यस्थलों पर भी गलतियों के लिए कानूनी सजा तैयार रखी हुई होती है. मंदिरों और मस्जिदों में भी गलतियों की सजा पाप, पुण्य, स्वर्ग, नरक आदि के रूप में मिलती है. फिर आदमी गलतियां करें कहां? जो समाज गलतियों के लिए जगह नहीं छोड़ता वह मृत हो जाता है. मध्य पूर्व के देशों को देखिए, उसने गलतियों के लिए जगह नहीं छोड़ा. कुछ देशों ने ईश्वर के हाथों में ही सत्ता की बागडोर थमा दी. सत्ता तो जीवित बनी रही, लेकिन समाज मृतप्राय हो गया. गलतियां, निर्माण और रचनात्मकता का मूल है. विश्विद्यालय ही एकमात्र ऐसा कार्यस्थल है, जहां गलती करना और स्वीकारना एक तरह से मौलिक अधिकार और कर्तव्य है. यह ज्ञान उत्पादन और पुनरुत्पादन का केंद्र है. ज्ञान के उत्पादन के प्रयोगस्थली होने के कारण यहां गलतियां इसका एक अनिवार्य स्तंभ हैं.
जब छात्र शिक्षकों को पूजते हैं और जब उनकी तुलना ब्रह्मा, विष्णु और महेश से करते हैं, तो हमारे भीतर एक भय भी साथ-साथ जन्मता है. वह भय होता है गलतियों से बचने का या उसे छुपाने का. मैं फिर दुहराना चाहूंगा कि हम मनुष्य हैं और इसलिए गलतियां करना हमारा अधिकार भी है और यह अपरिहार्य भी है. पूजा जाना शिक्षण की पूरी प्रक्रिया को बाधित कर देती है. शिक्षक और छात्र दो विरोधी मूल्यों की तरह आमने-सामने आ जाते हैं. एक सीखाने का भाव लिए और दूसरा बेमन से सीखने का भाव बनाए. दुनिया बदल गई है. समाजशास्त्री एल्विन टोफ्लर कहते हैं, ''अनुभव नई जानकारी के सामने नतमस्तक हो चुका है. नई तकनीकों के सामने हमारी पुरानी तकनीकी जानकारी निरर्थक हो चुकी है.'' इसलिए शिक्षण को एक 'बाईलेटरल' प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चहिए. हम सब एक दूसरे से सीखे-सीखाएं.
साहस और नैतिकता
साहस सभी प्रकार की नैतिकता का मूल है. अगर साहस नहीं है तो फिर नैतिकता की बात बेमानी मानी जाएगी. हम सच्चे हो सकते हैं, लेकिन भय के कारण हम सच्चाई को त्याग सकते हैं. हममें करुणा भी हो सकती है, लेकिन भय के कारण हमारी करुणा सूख सकती है. हम कर्तव्यपरायण भी हो सकते हैं, लेकिन भय के कारण हम भ्रष्ट हो सकते हैं. हमारे पास ज्ञान भी हो सकता है, लेकिन भय के कारण हमारा ज्ञान कभी हमारे कर्मों का हिस्सा नहीं बनेगा. इसलिए शिक्षकों का पहला कर्तव्य है कि वह साहसी बने और आने वाली पीढ़ियों को भी साहसी बनाएं. गलतियां होती रहेंगी, छात्रों से भी और शिक्षकों से भी- लेकिन उन गलतियों को सार्वजानिक तौर पर स्वीकारने का साहस ही हमें भविष्य में गलतियों से बचाएगा.
शिक्षक को सबसे पहले अपना साहस क्लासरूम में दिखाना चाहिए- यह कहकर कि मैं सबकुछ नहीं जानता हूं और मेरे जानने-समझने की भी सीमाएं हैं, मुझमें भी मानवीय दुर्बलताएं हैं- यह बड़ा साहस है. देवता होने पर उसका अपनी इन सीमाओं को स्वीकारने का साहस गायब हो सकता है. सुकरात ने भी कहा था, ''मैं ज्ञानी हूं, क्योंकि मैं यह जानता हूं कि मैं कुछ नहीं जानता.'' एक बार सुकरात को किसी व्यक्ति ने कहा, ''आप लालची हैं, आपमें कामना और वासना है, आपमें क्रोध है.'' यह बोलकर वह वहां से चला गया. शिष्य ने पूछा, ''गुरुदेव इसमें से कोई गुण आपमें नहीं है फिर आपने उस व्यक्ति का प्रतिवाद क्यों नहीं किया? सुकरात ने कहा वह व्यक्ति सही था, ये तमाम दुर्बलताएं मुझमें हैं, बस अंतर इतना है कि एक अतिरिक्त चीज मुझमें है- 'विवेक', जिसके कारण मैं इन दुर्बलताओं को नियंत्रण में रखता हूं. यह एक महान शिक्षक का साहस था.
कितना कठिन है मनुष्य होना
शिक्षक होना वस्तुतः मनुष्य होना है; लेकिन वह सामान्य मनुष्य नहीं होता; असमान्य इस अर्थ में कि वह अपने संघर्षों को अनदेखा करते हुए मानवीय मूल्यों को बचाए रखने का प्रयास करता है. वह जिन समस्याओं से खुद जूझता है, उनसे मनुष्यता को बचाए रखने का प्रयास करता है. मनुष्य होना कठिन है, इसलिए शिक्षक होना भी आसान नहीं. देवता होना आसान है, उसमें मानवीय संघर्ष नहीं है, मनुष्य बनना कठिन है, क्योंकि उसमें संघर्ष ही संघर्ष है. दुनिया बड़ी है. बहुत बड़ी है. ब्रह्माण्ड उससे भी बड़ा. फिर नजरें उठाकर आसमान की तरफ देखिए, समंदर की तरफ देखिए और या फिर पहाड़ों की चोटियों की तरफ- हमारा देवत्व भाव विलुप्त हो जाएगा. शेष बचा भाव ही मनुष्य होने का भाव है, शिक्षक होने का भाव है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): केयूर पाठक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखकों के निजी विचार हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.