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This Article is From Jun 28, 2019

हमारी व्‍यवस्‍था इस गटर से बाहर कब निकलेगी?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 28, 2019 02:38 am IST
    • Published On जून 28, 2019 02:38 am IST
    • Last Updated On जून 28, 2019 02:38 am IST

न्यूज़ देखना अब टिक टॉक देखने जैसा हो गया है. पूरा समाज और सिस्टम अपना केरिकेचर बन गए हैं. यानी ख़ुद का मज़ाक बन गए हैं. उन्नाव में जेल में पार्टी हो रही है तो लुधियाना की जेल में गोली चल रही है. सीआरपीएफ बुलानी पड़ती है. एक बंदा आता है जो रिवाल्वर ताने दिखता है, लेकिन उसे शायरी भी आती है. वो शायरी भी सुनाता है. व्हाट्सएप शायरी जिसके झांसे में बड़े बड़े लोग आ जाते हैं. सब कुछ का वीडियो मिल जाता है. तुरंत का नहीं मिलता है तो एक महीने बाद मिल जाता है. जैसे ही ये सब गुज़रता है योग की खूबियों पर प्रधानमंत्री का भाषण आ जाता है. जैसे लगता है कि अब सब ठीक हो जाएगा, एक विधायक बल्ला लेकर आ जाता है और किसी को मारने लगता है. हम समझने की कोशिश छोड़ देते हैं. खटा खट एक वीडियो लेते हैं और उस पर फेसबुक पर कुछ लिख देते हैं. लिखने के लिए हाहाकार या सत्कार पक्ष चुन लेते हैं. इससे फ्री होते ही सीसीटीवी का फुटेज चल जाता है कि फरीदाबाद में मेडिकल की छात्रा को एक लड़का चाकू से मार रहा है. छात्रा से छेड़छाड़ की कोशिश हो रही थी. लड़की की हालत गंभीर है. अभी ये वीडियो ठीक से देखा नहीं कि आंखों के सामने किसी ने ये क्लिपिंग भेज दी. बाड़मेर की एक मां है जो एक एक कर अपनी पांच बेटियों को कुएं में फेंक देती है. फिर खुद भी कुएं में कूद कर मर जाती है. हमारा समाज बेटियों को मारने की मानसिकता रचने वाला समाज है. लेकिन अगर बेटियां किसी खेल में कोई कप जीत लें तो समाज खुश भी होता है. बेटियों पर गर्व करता है.

इन तस्वीरों से गुज़रते हुए हमने इतना तो किया ही है कि हाईवे पर चलने वाली हर मालवाहक गाड़ी पर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का नारा लिख दिया है. बगैर इस नारे को देखते हुए आप कहीं से गुज़र नहीं सकते हैं. ऐसा नहीं है कि कुछ भी पोज़िटिव नहीं हो रहा है. बिल्कुल पोज़िटिव हो रहा है.

क्या यह पोज़िटिव न्यूज़ नहीं है कि बुलेट ट्रेन के लिए 54000 मैंग्रोव के पेड़ों को काट दिया जाएगा. एक पेड़ को बड़ा होने में दस से 15 साल लग जाते हैं. समुद्र के किनारे की दलदली ज़मीन पर मैंग्रोव के ये जंगल सरकार की वृक्षारोपण योजना से तैयार नहीं हुए हैं. लेकिन अब इन्हें काटा जाएगा. ताकि मुंबई से अहमदाबाद बुलेट ट्रेन पहुंच सके. मंत्री ने कहा है कि इनकी जगह पांच गुना पेड़ लगा देंगे. सवाल है ऐसी ज़मीन कहां से लाएंगे. दलदली ज़मीन पक्षियों के भोजन का चारागाह होती है. उस पर पेड़ लगाएंगे तो पक्षियों को भोजन नहीं मिलेगा. फिर पेड़ आज लगाएंगे जिन्हें बड़ा होने में 15 साल लग जाएंगे. ये पोज़िटिव न्यूज़ है. हम जिस वक्त में पानी के लिए तरस रहे हैं. चेन्नई सूख गया है. दूसरे शहरों के सूख जाने का एलान हो चुका है, उसी वक्त में अगर हम और आप 54000 पेड़ों को काट देने का साहस जुटा रहे है तो ये पोज़िटिव बात है. हम और आप 54,000 मेंग्रोव पेड़ के जंगलों को काटने को लेकर निश्चिंत हैं. पर्यावरण का सवाल स्कूलों में ड्राईंग कंपटीशन से आगे कभी जाएगा नहीं. इसे तूल देंगे तो वही पब्लिक और नेता कहेंगे कि ब्राज़ील से सीखो, वहां पिछले साल दस लाख फुटबाल मैदान के बराबर जंगल ही गायब हो गए. फिर भी ब्राज़ील के राष्ट्रपति बोलसोनारे जी-20 की बैठक में ताकतवर बनकर शान से घूमने पहुंच गए हैं. बोलसोनारो ने खुलकर बोला है कि अभी और जंगल काटेंगे और काटने वाले की सज़ा भी कम कर देंगे. इनका ही मंत्री है जो बोल रहा है कि ग्लोबल वार्मिग मार्क्‍सवादियों का प्लॉट है. उनकी बनी बनाई कल्पना है. ऐसे नेताओं से सावधान रहने की बिल्कुल जरूरत नहीं है बल्कि भारत में भी खोजिए कि इस क्वालिटी का नेता कहां मिलेगा. और मिल जाए तो किताब काफी फेंक कर उसे तुरंत जिताइये. बोलसोनारो अगर चेन्नई आ जाए तो यही कहेगा कि यहा के लोग पानी संकट के कारण नहीं मार्क्सवादी प्लॉट के शिकार हो गए हैं. इन्हें पानी संकट का सपना आ रहा है जबकि चेन्नई में पानी ही पानी है. हमारे न्यूज़ चैनलों की हालत ये है कि अगर बोलसोनारो भारत आ जाएं तो वो मारे खुशी के झूम उठेंगे कि भारत की पूछ बढ़ गई है. ताकतवर नेता यहां हाज़िरी लगा रहे हैं. दर्शकों ध्यान दें मैं बोलेरो गाड़ी की बात नहीं कर रहा, ब्राज़िल के राष्ट्रपति बोलसोनारो की बात कर रहा हूं. ऐसे समाज में बिल्कुल उम्मीद न करें कि मुंबई के लोग 54000 मैंग्रोब बचाने के लिए बाहर निकलेंगे. वे निकलेंगे तभी जब बुलेट ट्रेन आएगी और बोलसोनारो आएगा. आजकल मैं गजब तरीके से सही साबित होने लगा हूं.

ऐसा नहीं है कि दुनिया बिल्कुल वैसी है जैसा हम देख रहे हैं. पर जो हम देख रहे हैं वो इसी दुनिया की ही है. इसलिए हम सबने देखना बदल दिया है. मगर कुछ लोग हैं जो अब भी देखने के उसी रवायत पर कायम हैं. मेक्सिको के अखबार ला जर्नाडा की रिपोर्टर जुलिया ले द्यूक की तस्वीर देखने से हम सब भाग रहे हैं. इस तस्वीर को वही देख सके हैं जो उस राजनीति को देख पा रहे हैं जिसके नतीजे में दो लाश एक नदी की पानी में तैर रही है.

नदी का नाम पहले बताता हूं. रिओ ग्रान्डे. इस नदी का एक छोर मेक्सिको में है. दूसरा सिरा अमरीका के टेक्सस से मिलता है. तस्वीर में एक पिता की लाश तैर रही है. पिता की टी शर्ट में उसकी बेटी फंसी है. दोनों नहीं बच सके. पिता का नाम अल्बर्तो मार्तनेज़ रामरेज़ और बेटी वलेरिया उन नीतियों की पैदाइश हैं और उन नीतियों के कारण मरे हैं जो दुनिया के ताकत देश और नेता अपने अहंकार और लूट के लिए रचते रहते हैं. एक गरीब मुल्क है अल सल्वाडोर. अल सल्वाडोर और वेनेजुएला ऐसे दो देश हैं जो युद्धरत नहीं हैं फिर भी यहां मरने वालों की संख्या उन देशों से अधिक है जो युद्धरत हैं. गैंग वार में लोग आए दिन भून दिए जाते हैं. इसलिए मानवता और विकास के हर उस भ्रम को तोड़ देती है. अगर तोड़ती है तो. अल्बर्तो मेक्सिको से पार कर सपनों के देश अमरीका पहुंचना चाहता था. अल्बर्तों ने अपनी बेटी को किनारे पहुंचा दिया था. उसके बाद अपनी पत्नी को लाने लगा इस बीच बेटी पानी में गिर गई और उसे बचाने के लिए लौटा, लेकिन तब तक नदी की धारा ने इरादा बदल लिया था. पिता और पुत्री दोनों डूब गए. पिता ने बेटी को नदी की तेज़ धारा से बचाने की बहुत कोशिश की. अपने टी शर्ट में घुसा लिया ताकि धारा बहा न ले जाए मगर दोनों साथ डूब गए.

जूलिया ने गार्डियन अखबार से कहा है कि अगर इस तरह की स्टोरी से हम सोचने पर मजबूर नहीं होते हैं, इनकी ज़िंदगी के बारे में नहीं सोचते हैं, इसका मतलब है कि हमारा समाज बहुत बुरा हो चुका है. कुछ भी बदलना इतना आसान नहीं है. इस तस्वीर ने दुनिया के बचे खुचे लोगों को झकझोर दिया है. वे आज स्तब्ध हैं. लेकिन टिक टाक वाले इस समय में हर मौत एक वीडियो है. जिसके संदर्भों तक हम नहीं पहुंचना चाहते हैं. संदर्भों से मतलब उस राजनीति, उस नीति, उस फैसले तक जिसके कारण कोई आम इंसान ऐसी मौत मारा जाता है, ऐसी ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर किया जाता है. उम्मीद का आवेग बहुत तेज़ होता है, बस वो पूरी होती है धीमे धीमे. कई साल में कई दशक में. तस्वीरों मे संवेदनाएं होती हैं लेकिन ज़रूरी नहीं कि देखने वाले में भी हो.

छाती भर नाले में खड़ा नीतू आज बच गया. वह दिल्ली के तिलकनगर के इस नाले में उसी तरह मर जाता जैसे मेक्सिको की नदी रियो ग्रांडे में डूब कर अल्बर्तो और उसकी बेटी वलेरिया की मौत हो गई. 5 ट्रि‍लियन की इकॉनमी के स्वागत की तैयारी में हम सब खड़े हैं और नीतू नाले में खड़ा है ताकि नाले की सफाई हो सके. न इनके पास कोई उपकरण था न सेफ्टी का कोई इंतज़ाम. नाले के दलदल में फंस गया था मगर नीतू के भतीजे ने बचा लिया. क्या आप इस वीडियो को देखकर संवेदनशील हैं. इसे जूलिया ने नहीं दिल्ली सफाई कर्मचारी एक्शन कमेटी के अध्यक्ष वीरेंद्र चूड़ियाना ने शूट किया है. विजय ने पुलिस को भी शिकायत की. इस हालात में काम न करने के कानून वगैरह सब हैं कि तीन फुट से ज्यादा गहरे नाले या सीवर में नहीं उतार सकते हैं. नाले की सफाई तो जेसीबी मशीन जैसे उपकरण से होती है. मगर सुपरवार इंडिया का यह नीतू नाले में फिर भी खड़ा है. हमारे उपभोग का सामान यहां तैर रहा है.

15 जून को गुजरात के बड़ौदा में होटल के सेप्टिक टैंक को साफ करते हुए 7 सफाई कर्मचारी मर गए. उनका दम घुट गया था. आज यानी 27 जून को कोयंबटूर में तीन सफाई मज़दूर सेप्टिक टैंक की सफाई करते वक्त दम घुटने से मर गए. 26 जून यानी बुधवार को रोहतक में भी एक घटना हुई. चार लोग सफाई करते हुए दम घुटने से मर गए. इनमें कैथल का अनिल है, बिहार का संजय है, रोहतक से धर्मेंद्र और सोराकोठी. इनमें से तीन प्राइवेट ठेकेदार के यहां काम करते थे. अस्पताल में सफेद चादरों से लिपटे इनके पार्थिव शरीर से आपको उस हालात का अंदाज़ा नहीं होगा. दरअसल ये काम यहां कर रहे थे. रोहतक कच्चा बेरी रोड पर. बिना सुरक्षा उपकरण के सीवर के चलते हुए पंप को साफ करने उतरे. जैसे ही वाल्व खोला गैस से दम घुट गया और मौके पर ही मौत हो गई. गैस का खतरा होने के बाद भी मास्क तक नहीं दिया गया. ये सभी जन स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारी थे. सबको पता है कि इस तरह के मामले में मौत हो जाती है मगर सब ऐसे बेखबर हैं जैसे मौत का इंतज़ार कर रहे हों. इनके परिवारों की बात अब मुआवज़े की बात होगी. ये गरीब लोग हैं इसलिए इनकी ज़िंदगी मुआवज़े के एलान के बाद पटरी पर लौटती हुई मान ली जाती है.

सोचिए 15 जून से लेकर 27 जून तक सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए दम घुटने से 14 लोग मर गए हैं. ऐसे समाज में आप उम्मीद करें कि वह 54000 मैंग्रोव के पेड़ काटने से बेचैन हो जाएगा, आप उसके साथ नाइंसाफी कर रहे हैं. आप नहीं चाहते हैं कि वह व्हाट्सएप में गुडमार्निंग मेसेज फार्वर्ड करता रहे. 5 साल स्वच्छता का सघन अभियान चला है. उस हालात में बदलाव नहीं आया है जिससे ऐसी मौत रुके. सरकार हमेशा गंभीर होती है. यह सरकार की सबसे अच्छी बात है. गुजरात हाईकोर्ट ने आज ही राज्य सरकार के काम पर असंतोष ज़ाहिर किया है कि वह मैला उठाने की प्रथा को समाप्त करने में पर्याप्त काम कर नहीं रही थी. कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार ने जो रिपोर्ट दी है उससे हम खुश नहीं हैं और जो रिपोर्ट है उससे तस्वीर अच्छी भी नहीं है. 2014 मे सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि ऐसी मौत के लिए सरकार को मुआवज़ा देना होगा, मशीन देनी होगी. मौत दी जा रही है. बाकी सब कागज़ पर है.

ये सारे लोग आपसे बातें करना चाहते हैं. आपके पास कहां वक्त है. इसलिए इन तस्वीरों से ये आपके घरों में झांकना चाहते हैं. बोलना चाहते हैं कि जो कचरा हम लोग पैदा कर रहे हैं उसे साफ करने के हालात कैसे हैं. हम चाहते हैं कि आप धीरे-धीरे एक एक तस्वीर देखें और सोचें कि आखिर तरक्की और तकनीकि कहां आई जो इस हालात को नहीं बदल सकी. पांच साल तक स्वच्छता का अभियान चला है, ज्यादातर तस्वीरें हाल फिलहाल की हैं. अभी तक आप ऐसी तस्वीरों में पुरुषों को काम करते देख रहे थे लेकिन इस काम में महिलाएं भी हैं. दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में इन तस्वीरों की एक प्रदर्शनी 28 जून से शुरू हो रही है. दो साल के दौरान हाथ से और सर से मैला ढोने वाली कई महिलाओं की ज़िंदगी को डाक्यूमेंट किया गया है. पद्म पुरस्कार से सम्मानित फोटोग्राफर सुधारक ओल्वे और बेजवाड़ा विल्सन ने बिहार, यूपी, मध्य प्रदेश और झारखंड के इलाकों में जाकर इन तस्वीरों को खींचा है. कुछ तस्वीरें तमिलनाडु की भी हैं और एम पलानी कुमार की हैं. सफाई कर्मचारी आंदोलन, सेंटर फॉर इक्वीटी स्टडीज़ ने दो साल लगाकर रिसर्च किया है. देखा गया कि इस काम को जो भी छोड़ कर गए, उन्हें कोई काम नहीं मिला, लिहाज़ा वे मजबूर हुए फिर से इसी काम को करने में. कानून है कि जो भी यह काम छोड़ देगा, सरकार सात महीने के भीतर 40,000 रुपये देती है और दूसरे काम की व्यवस्था कराती है. रिसर्च में पाया गया कि ऐसा नहीं हुआ है. इस प्रदर्शनी का नाम ही है जो बाहर कर दिए गए हैं उन्हे शामिल करना. हां है मगर दूसरी समस्याएं खड़ी हो रही है. मशीन महंगी है तो जो सफाई कर्मचारी है उन्हें तो इस काम से मुक्ति मिल जा रही है लेकिन कोई और काम नहीं मिल रहा है.

हैदराबाद के बाद दिल्ली सरकार ने 150 मशीने ऐसी मंगाई हैं जो गटर की सफाई कर रही हैं. 35-40 लाख की मशीन से समाधान तो मिला, एक बदलाव इस मशीन से यह आ रहा है कि दूसरे वर्ग के लोग इस पेशे में आ रहे हैं लेकिन तब जब यह महंगी मशीनों के कारण इंडस्ट्री या बिजनेस की शक्ल इख्तियार कर लेता है. इस पहलु पर विस्तार से बात फिर कभी लेकिन अगर मशीन ही समाधान है तो क्या हम इन तस्वीरों से मुक्ति के लिए इसमें निवेश नहीं कर सकते. दुनिया भर में गटर की सफाई ऐसे तो नहीं होती है. तो फिर किसी को समझ क्यों नहीं आई यह बात वो भी तब जब हर दूसरे दिन सीवर की सफाई करते हुए मौत की खबर आ जाती है. यह मशीनें भी उसी दिल्ली में कम पड़ जाती हैं तभी तो तिलकनगर में किसी को नाले में नंगे बदन उतरना पड़ता है. इस मशीन से मात्र 15 मिनट में गटर की सफाई हो गई जबकि इसी काम को हाथ से करने में 2-3 घंटे लग जाते हैं.

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