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This Article is From Jan 23, 2019

क्या प्रियंका गांधी तुरुप का पत्ता साबित होंगी?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 23, 2019 14:31 pm IST
    • Published On जनवरी 23, 2019 14:20 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 23, 2019 14:31 pm IST

2019 के चुनावों (Lok Sabha Election) से पहले कांग्रेस (Congress) ने अपना आख़िरी बड़ा पत्ता निकाल लिया है. प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi Vadra) अब कांग्रेस की महासचिव हैं और कहने को उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी दी गई है, लेकिन उनकी उपस्थिति का असर कांग्रेस के पूरे चुनाव अभियान पर पड़ेगा. सवाल है, क्या यह पत्ता तुरूप का पत्ता साबित होगा? मुट्ठी जब तक बंद होती है तो वह लाख की मानी जाती है, खुलती है तो समझ में आता है कि जादू की इस पुड़िया में जादू नहीं रेत है. कांग्रेस के इस फ़ैसले के दो तात्कालिक असर तो देखने को मिलने लगे हैं. बीजेपी ने पहला हमला प्रियंका पर नहीं, राहुल गांधी पर किया है. वह प्रियंका के आगमन को राहुल की नाकामी बता रही है. अब तक उसने प्रियंका पर हमला नहीं किया है, लेकिन जल्द ही यह हमला शुरू होगा जिसके एक सिरे पर वंशवादी राजनीति को बढ़ावा देने का आरोप होगा और दूसरे सिरे पर वाड्रा से जुड़े मामलों को लेकर भ्रष्टाचार की तोहमत मढ़ी जाएगी.

लेकिन इसके बावजूद प्रियंका के राजनीति में आगमन का एक अर्थ है. चाहे यह जितना भी बहसतलब हो, लेकिन भारतीय राजनीति बहुत दूर तक छवियों के आसपास घूमती रही है. नरेंद्र मोदी से लेकर लालू-मायावती तक अपनी छवि के फायदे और नुक़सान उठाते रहे हैं- राहुल भी. पिछले दिनों राहुल की एक पप्पू छवि बनाई गई. अंततः वह छवि टूट रही है. प्रियंका गांधी की भी अपनी संक्षिप्त राजनीतिक सक्रियता के दौरान एक छवि बनी है. यह आम राय है कि उनमें लोगों या कार्यकर्ताओं से घुलने-मिलने का एक सहज गुण है. पिछले चुनावों के दौरान उन्होंने इसे साबित भी किया है. दूसरी बात यह कि लोग उनमें अपनी दादी इंदिरा की छवि देखते हैं. हालांकि प्रियंका में एक तरह की मृदुता है और मानवीयता भी. अपने पिता राजीव गांधी की हत्या के गुनहगारों के प्रति उनका संवेदनशील रवैया बताता है कि वे लीक से हट कर सोचती हैं और प्रतिशोध को मूल्य नहीं मानतीं.

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लेकिन सिर्फ मनुष्य होने, सहज होने या लोगों से घुल-मिल जाने से चुनाव नहीं जीते जा सकते. 2019 का संग्राम ऐसी सरलीकृत धारणाओं से जीता नहीं जाएगा. उसमें सारे समीकरण साधने की एकाग्रता और एक-एक इंच ज़मीन जीतने की युयुत्सा चाहिए होगी. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी में यह आक्रामकता, यह युयुत्सा, यह युद्ध लड़ते रहने की इच्छा दिखती है. दूसरी तरफ राहुल गांधी में अक्सर इसका अभाव दिखता है. कांग्रेस के भीतर अपने सत्तारोहण के मौक़े पर उन्हें अपनी मां की सीख याद आई कि सत्ता ज़हर होती है. बाद के कई अवसरों पर दिखा कि जब दांत भींच कर लड़ने की ज़रूरत रही, वे मुस्कुरा कर कहीं और निकल जाते रहे.

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प्रियंका के आगमन का यहीं से अर्थ खुलता है. अब राहुल और प्रियंका की जोड़ी कांग्रेस में उस महत्वाकांक्षा का नए सिरे से संचार कर सकती है जिसकी कमी कांग्रेस कार्यकर्ता महसूस करता रहा है. वे कांग्रेस के कुछ ठहरे हुए तालाब में एक कंकड़ की तरह हैं जिससे पैदा तरंगें दूर तक जाएंगी. इतनी भर हलचल कांग्रेस कार्यकर्ताओं के लिए चुनावों में एक बड़ा फ़र्क पैदा कर सकती है.

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दूसरी बात यह कि यह समझना ज़रूरी है कि राहुल और प्रियंका की कांग्रेस पुरानी कांग्रेस से काफी भिन्न है. इस कांग्रेस में इंदिरा गांधी की लगाई हुई इमरजेंसी के प्रति एक तरह का संकोच भाव है, 1984 की हिंसा को लेकर राजीव गांधी की प्रतिक्रिया से यह कांग्रेस अलग है. यह दो शरीफ़ और सदाशयी युवाओं की कांग्रेस है जो दलितों-आदिवासियों-किसानों के प्रति ज़्यादा सदय है. मिर्चपुर की हिंसा को लेकर राहुल का रवैया हो या नियामगिरि के आदिवासियों के साथ खड़े होने का मामला- इस कांग्रेस ने अपनी भिन्नता दिखाई है.

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बेशक, यह कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं है. कांग्रेस अब भी कई उन दुर्गुणों की मारी है जो बीजेपी ने उससे कहीं ज़्यादा तेज़ी से सीख लिए हैं. लेकिन संसदीय राजनीति की सीमाओं के भीतर एक बड़े चुनाव से पहले कांग्रेस जो बड़ा दांव खेल सकती थी, यह वह दांव ज़रूर है. क्योंकि इससे लड़ाई का मोर्चा और मैदान भी कुछ बदल जाता है. बीजेपी को अब राहुल के अलावा प्रियंका का भी मुक़ाबला करना है. दूसरे दलों को अब अपने तालमेल या मोलतोल में प्रियंका का भी खयाल रखना है. कांग्रेस कार्यकर्ताओं के लिए यह वह बदलाव है जो उनमें एक नई स्फ़ूर्ति पैदा कर सकता है. इन सबके बावजूद यह सवाल बचा रहता है कि 2019 के चुनाव का नक्शा क्या प्रियंका की उपस्थिति से बदलेगा? इस सवाल का जवाब तो 2019 के चुनाव देंगे, लेकिन यह सवाल बताता है कि हम बहुत छोटे-छोटे संदर्भों में सोचने के आदी हो गए हैं. 2019 के नतीजे जो भी हों, उसके बाद भी प्रियंका की सक्रियता कांग्रेस के लिए ज़रूरी होगी,- और संभवतः भारतीय राजनीति को ज़्यादा संभावनापूर्ण बनाएगी. 

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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