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This Article is From Jun 19, 2019

क्या विश्वविद्यालयों से देश को ख़तरा है?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 19, 2019 20:03 pm IST
    • Published On जून 19, 2019 20:03 pm IST
    • Last Updated On जून 19, 2019 20:03 pm IST

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार छात्रों को देशभक्त बनाने के लिए एक अध्यादेश लेकर आई है. उत्तर प्रदेश निजी विश्वविद्यालय अध्यादेश नाम के इस कानून के मुताबिक विश्वविद्यालयों में अगर राष्ट्र विरोधी गतिविधियां हुईं तो उन पर कार्रवाई हो सकती है, उनकी मान्यता भी खतरे में पड़ सकती है.

संकट यह है कि अध्यादेश में यह नहीं बताया गया है कि राष्ट्रविरोधी गतिविधि से सरकार की मुराद क्या है. यानी संभव है कि अगर कोई छात्र कविता पढ़ रहा हो तो यह भी राष्ट्र विरोधी गतिविधि मान ली जाए. अगर कोई छात्र वाद-विवाद प्रतियोगिता में पाकिस्तान के पक्ष में दलील दे रहा हो तो इसे भी राष्ट्र विरोधी गतिविधि के दायरे में रख दिया जाए. और तो और, राष्ट्रों के बनने या बिखरने को लेकर क्लास में चल रही पढ़ाई भी राष्ट्रविरोधी गतिविधि मानी जा सकती है. आखिर किसी छात्र के मन में यह सवाल तो आ ही सकता है कि अगर राष्ट्र राजनीतिक स्वतंत्रता के आधार पर बनने और मिटने की ऐतिहासिक प्रक्रिया से गुज़रते हैं तो भारत भी एक राष्ट्र कब से है और कब तक रहेगा.

यूनिवर्सिटी या विश्वविद्यालय शब्द जिन्होंने भी बनाए- संभवतः विश्वविद्यालयों की इसी प्रकृति को ध्यान में रखते हुए बनाए होंगे. ज्ञान के केंद्रों को वैश्विक होना चाहिए- सिर्फ़ अपने भौगोलिक विस्तार में ही नहीं, अपने मानसिक फैलाव में भी. आख़िर वे राष्ट्रविद्यालय नहीं, विश्वविद्यालय हैं. यह मानसिक फैलाव  और बौद्धिक खुलापन होगा तो विश्वविद्यालयों में निर्भीक होकर सवाल पूछने की प्रवृत्ति रहेगी और इनके दायरे में तात्कालिक राजनीतिक या सामाजिक सवाल ही नहीं होंगे, धर्म, ईश्वर, देश, राष्ट्र, आस्था, जैसे बुनियादी माने जाने वाले मसलों से जुड़े सवाल भी होंगे.

दुर्भाग्य से भारतीय विश्वविद्यालयों में ही नहीं, पूरी भारतीय शिक्षा-संस्कृति में यह बौद्धिक खुलापन नहीं है. उसमें रटने की संस्कृति पर जोर है. उसमें परंपरा या गुरु या पुस्तकों से अर्जित ज्ञान को एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क में जमा कर देना है. विख्यात ब्राजीली शिक्षाशास्त्री पाउलो फ्रेरे ने इस प्रक्रिया पर काफ़ी कुछ लिखा है. ऐसे माहौल में हमारे लिए कल्पना करना दुष्कर है कि कोई ऐसा विश्वविद्यालय हो जो बुनियादी प्रश्न उठाए और अलोकप्रिय होने का जोख़िम मोल लेकर भी उनके कुछ बुनियादी या वैकल्पिक उत्तर खोजे. जेएनयू संभवतः ऐसा विश्वविद्यालय बनने की कोशिश में था. वहां छात्रों और शिक्षकों के बीच संवाद की प्रकृति रही. बेशक, वहां भी बहुत सारे शिक्षक और छात्र परंपरा से अर्जित ज्ञान और पद्धति को ही अपनी पीठ पर लादे आते हैं, लेकिन फिर भी वहां कुछ ज़्य़ादा खुलापन रहा. मगर इसका नतीजा क्या हुआ? जेएनयू को देशद्रोह का अड्डा बताया गया. उसे टुकड़े-टुकड़े गैंग का घर बताया गया.

बहुत संभव है, जेएनयू के खुले माहौल में दस-बारह छात्र ऐसी आज़ाद तबीयत वाले हों जो बिल्कुल देश और राष्ट्र की सरहदों को न मानते हों. उसी तरह दस-बारह ऐसे भी छात्र होंगे जो इस कदर राष्ट्र और देश से बंधे होंगे कि उसे सर्वोपरि मानते होंगे. लेकिन इन दो सिरों के बीच अलग-अलग रंगतों वाले कुछ हज़ार छात्र ऐसे भी होंगे जो सिर्फ़ अपने विषय और अपने करिअर से सरोकार रखते होंगे. आख़िर लाल विचारधारा का गढ़ माने जाने वाले इसी विश्वविद्यालय से आईएएस अफसरों की बड़ी कतार निकलती रही है. इस विश्वविद्यालय ने एक तरफ़ अगर वाम चेतना से लैस कई आंदोलनकारी पैदा किए हैं तो निर्मला सीतारमण और एस जयशंकर जैसे लोगों का भी मानस बनाया है जो बीजेपी सरकार के शीर्षस्थ मंत्रियों में हैं. डर है कि जिस खुलेपन से ये सारे रंग निकलते हैं, वह अब वहां भी ख़त्म न हो जाए.

जेएनयू में जो विवाद शुरू हुआ था, वह अफ़ज़ल गुरु की स्मृति में किए गए एक आयोजन से शुरू हुआ था. इसके कुछ दिन बाद तत्कालीन केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने यह सवाल उठाया था कि अगर किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय में ओसामा बिन लादेन की स्मृति में आयोजन हो तो क्या उसकी इजाज़त दी जाएगी? राष्ट्रवादियों की जमात जब इस सवाल पर ताली बजा ही रही थी तब प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष क्रिस्टोफर एल ईस्गर्बर ने कहा कि उन्हें ऐसे किसी आयोजन पर कोई एतराज़ नहीं होगा. उन्होंने कहा, 'हमें इसे सहन करना चाहिए और हम करेंगे. इससे बहुत हंगामा होगा. इसको लेकर लोग बहुत नाराज़ होंगे. लेकिन इस प्रकृति के बयान देने के लिए हम किसी को अनुशासित नहीं करेंगे.' उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय ऐसे किसी छात्र पर अनुशासन की कार्रवाई नहीं करेगा. अगर कोई एतराज़ की बात होगी तो जरूर वे अपनी असहमति जताएंगे, लेकिन छात्रों को बहस और कार्यक्रम करने का अधिकार रहेगा.

प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी को मालूम था कि छात्रों का बौद्धिक विकास इसी तरह होता है. असंभव कोणों पर जाकर विचार करने की छूट और आदत ही नए क्षितिजों के संधान की संभावना पैदा करती है. वक्त और परिपक्वता के साथ सारी वैचारिक वक्रताएं पीछे छूट जाती हैं. कुछ की रह जाती हों तो वे भी वैचारिक समाज की शोभा होते हैं. अन्यथा बाकी सब तो व्यवस्था का पुर्जा हो जाने को अभिशप्त हो जाते हैं.

निजी विश्वविद्यालयों में वैसे भी इस खुलेपन का ख़तरा पहले से कम था. वहां अमूमन भारी फीस पर बच्चे ऐसे कोर्स करने आते हैं जिनसे जल्दी-जल्दी नौकरी मिल जाए. वे फालतू बहसों में नहीं पड़ते और जेएनयू और दूसरे विश्वविद्यालयों के उन छात्रों पर ताना कसते हैं जो बरसों तक पढ़ाई ही करते रह जाते हैं. ऐसे माहौल के बीच योगी सरकार का अध्यादेश विश्वविद्यालयों की बची-खुची बौद्धिक संभावना पर भी किसी कुल्हाड़ी की तरह गिरेगा. विश्वविद्यालय ऐसे किसी भी रचनात्मक उद्यम से बचेंगे जिसमें राष्ट्र और देश के नाम पर प्रचलित विचार से आगे जाने का ख़तरा हो.

बरसों पहले कवि पाश ने लिखा था, 'अगर देश की सुरक्षा यही होती है / कि बिना जमीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाए / आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द अश्लील हो / और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे / तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है / हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़ / जिसमें उमस नहीं होती / आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है / गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है / और आसमान की विशालता को अर्थ देता है. पाश कहता है, अगर कला का फूल राजा की खिड़की पर ही खिलना है तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है.'

लेकिन ऐसे वक़्त में यह कविता भी खतरनाक है- इसे पढ़ना भी राष्ट्रद्रोह के दायरे में आ सकता है. निजी विश्वविद्यालय के छात्र पाश से भी डरेंगे.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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