भगवद् गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, - "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" -
अर्थात् अपने धर्म में मृत्यु भी श्रेष्ठ है, पराये धर्म का अनुसरण भयानक है.यहाँ स्वधर्म का तात्पर्य अपने मूल स्वभाव, अपनी प्राकृतिक प्रवृत्ति और उस पथ से है जो हमारे लिए स्वाभाविक रूप से निर्धारित है. इसके अनुसरण से ही हम सच्ची सुख-शांति और संतोष प्राप्त कर सकते हैं. इस विषय पर सामान्य शब्दों में कहीं बताया गया था कि “स्वधर्म का मतलब है अपनी स्थिति के प्रति ईमानदारी. स्वधर्म का मतलब है कि अगर तुम्हारे दाएँ हाथ में दर्द है तो दवा दाएँ हाथ में लगाओ.और परधर्म का मतलब है कि तुम्हारे घर में और आस पास सब बाएँ हाथ में दवा मलते हैं तो तुम भी बाएँ हाथ पर ही मल रहे हो, भले दर्द तुम्हारे दाएँ हाथ में है, ये है परधर्म.इसी अभिप्राय से कहा गया है कि ये देखो तुम्हारे चित्त में , आत्मा में कहाँ चोट है , उसका उपचार करो. भागवत "परधर्मो “को भयावह बताता है.और ये कोई सामान्य चीज नहीं अपितु सही में एक भयावह कृत्य है.
मेरे बाबूजी भी अन्य बातों के अलावा हमेशा ये कहा करते थे कि एक विचार, अगर पूरे विश्वास के साथ अपनाया जाए, तो वह अपराजेय होता है.वो विचार फिर एक समय के बाद स्वायत्त हो जाता है , वो अपनी एक स्वतंत्र लय खोज लेता है और फिर उसके बाद आप और आपके विचार में कोई अंतर न रह जाता. आप देखेंगे कि जीवन यात्रा में कई विचारों से आपका तारतम्य होता है उसमे से कुछ आपके व्यक्तित्व का मूल होता है.लेकिन आप कई बार, कई कारणों से उस से दूर हो जाते हैं.समय और अनुभवों के साथ आपको भान होता है कि आप अपने स्वधर्म से विमुख हुए हैं .जीवन का हर दिन आपको कचोटता है.फिर कही से एक गहरी चोट आती और आपको विवश करती कि आप अपने चोट को देखें, उसके लिए प्रतिकार करें.आप सब कुछ के बदले तब अपने स्वधर्म को चुनते हैं.
मेरा मानना है कि आज के मायावी संसार में ये सबसे सामयिक चीज है और बहुत दम है इस बात में.प्रश्न ये उठता कि आपका/ मेरा स्व क्या है? निश्चित तौर पर यह आपको स्वयं के अलावा कोई नहीं बता सकता . व्यक्ति जैसे जैसे जागरूक होता है, अपने अनुभवों से और घावों से वो अपने घर की ओर , अपने "स्व” की ओर लौटता ही है . अंतर सिर्फ़ इतना है कि कई बार यह यात्रा बहुत लंबी हो जाती है,कई बार तो मृत्युं शय्या पर ये भान होता है . लेकिन सबसे दुख की बात ये है कि बहुसंख्यक तौर पर हम अपना सारा जीवन इसी भ्रम के साथ गुज़ार देते कि “क्यूँकि हमने अपने सारे दुनियावी कर्तव्यों का निर्वाह किया , क्यूँकि हमें दुनिया, समाज ने ये प्रमाणित किया है हम एक सफल जीवन जी चुके हैं, अतः हम सफल एवम् सार्थक हुए हैं.”
मेरे विचार और अनुभव से ये एक बड़ी ही भयावह स्थिति है. और इसका फ़लक क्यूँकि आपका जीवन है और उस पर आपके आस पास के लोगों के द्वारा उकेरी हुई एक भ्रामक व्यवस्था है, आप और हम सब इसके शिकार हैं. इसमें विक्टिम सिर्फ़ शोषण लेने वाला नहीं है अपितु शोषण करने वाला भी है. विचार और स्वधर्म के स्तर पर यह विमुखता हमारे तार्किक समाज के अनुरूप नहीं है. हमारा पूरा प्राचीन और आधुनिक वाङ्मय इस विषय की महत्ता को स्थापित करता है.यहाँ उपनिषद्, गीता , षट्दर्शन सब का मूल उद्देश्य था कि यायावर जीवन में “स्व” की खोज.अनेकानेक महिषियों ने अपने जीवन से इसको परिभाषित किया है.
लिखना , वाचना , वंचना करना मेरे स्वधर्म का एक हेतु रहा है.स्वान्तसुखाय के ज़रिए ख़ुद को उत्प्रेरित करना मुझे अपना "स्व”लगता लेकिन आस पास बहुत क़रीब बहुत कुछ देखकर मन का एक उबाल भी है .कोशिश यह रहता है कि इस उबाल से कुछ निकले मेरे लिये और प्रकारांतर में कई स्वधर्मियों के लिए.अतः यह एक तरीक़े से यह मेरा धारण करने योग्य धर्म भी बन गया है.
कुल मिलाकर यही लगता है कि जीवन में प्रामाणिकता का होना अत्यंत महत्वपूर्ण है. प्रामाणिकता का अर्थ है, अपने सच्चे स्वरूप में जीना, अपने मूल्यों , अनुभवों और विश्वासों के प्रति सच्चे रहना. यह वह आधार है जिस पर
हमारा संपूर्ण अस्तित्व निर्भर करता है. अगर आप व्यक्ति है तो आप सोचेंगे. पश्चिमी विचारक रेने डेकार्ट ने कहा था : "I think, therefore I am”
पहले आप अपने आप पे सोचें . आप /हम कौन हैं?आप गहराई से सोचें तो पायेंगे कि हम/आप इस जीवन व्यापार में एक चतुर व्यापारी की भूमिका निभा रहे हैं.हर क्षण लाभ हानि की गणना कर रहे हैं. हर संध्या “क्या खोया क्या पाया” का हमारा विश्लेषण बहुत ही सतही होता है.हर पल हम आप चौकन्ने होते हैं, सतर्क!
एक तरह से हम वैसे ही बंजर हैं जैसा की कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने इंगित किया :
"तुम बंजर हो जाओगे
यदि इतने व्यवस्थित ढंग से रहोगे
यदि इतने सोच समझकर
बोलोगे चलोगे
कभी मन की नहीं कहोगे
सच को दबाकर झूठे प्रेम के गाने गाओगे
तो मैं तुमसे कहता हूँ
तुम बंजर हो जाओगे.”
और स्वानुभूति से ही आपको एक दिन , एक क्षण ज्ञात होगा कि अपने स्वधर्म का पालन करते हुए आप सबसे अधिक जीवित हैं/थे. जिस जीवन की आप बात करते हैं या सराहते हैं वो और कुछ नहीं कुछ क्षण होते हैं, कुछ मोमेंट्स होते हैं.और आपको ध्यान आएगा कि उस क्षण में आप अपने सबसे क़रीब थे , आप एक छवि को नहीं पाल रहे थे अपितु आप स्वयं उपस्थित थे उस क्षण में.आज के भीड़ तंत्र में जहां संख्या और समूह आपके जीवन का ढर्रा तय करता है यह अत्यंत आवश्यक है कि अपने स्वधर्म की खोज करे और उसी अनुसार जीने का प्रयास करें.जीवन जीना, हमें हमारी अद्वितीय पहचान और उद्देश्य की ओर ले जाता है. यह हमें उस शक्ति से जोड़ता है जो हमारे भीतर है, और हमें अपने आप को और अपने आस पास के परिवेश से जोड़ता है.
रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था, "जहाँ मन भयमुक्त हो और सिर उच्च उठाया जाता हो, वहीं मेरा स्वर्ग है. “हम सबका एक नैसर्गिक कर्तव्य है कि हम अपने लिए एक स्वर्ग बनाये. जो स्वर्ग बताया जाये उसे अपने स्व से परखें, अपने धर्म से मूल्यांकन करें.
और अंत में फिर से बाबूज़ी के कहे के सार पे आता हूँ जो कि स्वामी विवेकानंद और उनके अनुभवों से प्रभावित था :
“एक विचार लो. उस विचार को अपना जीवन बना लो – उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जियो. अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो.यही सफल होने का तरीका है. “
चट्टान बन जाओ. ना हिल पाओ. उनके लिए एक रूप में सम्भव तो तुम्हारे लिए भी.इसीलिए स्वामी विवेकानंद “पोटेंशियल डिवीनिटी” की बात करते हैं. इसीलिए वो भय को पाप मानते हैं.उन्होंने कहा, "भय हमें कमजोर बनाता है, भय हमें नष्ट करता है." उन्होंने उपनिषद से इस बात की पुष्टि की कि निर्भीकता ही जीवन का सार है. "अभयं वै प्राप्तोसि" यानी "तुम निर्भीक हो गए हो" - यह उपनिषद का एक महत्वपूर्ण संदेश है जो हमें बताता है कि निर्भीकता ही सच्ची स्वतंत्रता है. किसी भी परिस्थिति में अगर कुछ अपेक्षा है और भीतर से कुछ है तो उसके लिए चट्टान बन जाओ.लुंज पुंज रहने का मतलब मौत है.
जीवन में अनेक बार हम अपने मूल विचार से भटक जाते हैं. अल्बर्ट कामू के प्रोवेबियल सिसीफ़स के तरह यह स्वाभाविक है . परंतु जैसा कि महाकवि निराला ने “राम की शक्ति पूजा “में राम और आधुनिक मानव के परिप्रेक्ष्य में कहा:
“वह एक और मन रहा राम का जो न थका;
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय “
और पुनः
“आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर;
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,
शक्ति की करो मौलिक कल्पना”
अतः आवश्यकता “शक्ति की मौलिक कल्पना “की है और यह मौलिक कल्पना आपके और मेरे स्वधर्म के अनुरूप ही हो सकती है.अगर हम ऐसा कर पाए तो अवश्य ही निराला के राम की तरह हमारी विजय होगी .
“होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!''
कह महाशक्ति राम के वदन में हुईं लीन.
(लेखक मुकेश झा भारतीय रेवेन्यू सर्विस (IRS) अधिकारी हैं)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.