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कितना सही है इतिहास की किताबों में बदलाव

Dr Sandeep Chatterjee
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 22, 2025 17:43 pm IST
    • Published On जुलाई 22, 2025 17:20 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 22, 2025 17:43 pm IST
कितना सही है इतिहास की किताबों में बदलाव

भारतीय-उपमहाद्वीप के  1947 से पहले के नक्शों को देखें तो पूरे उपमहाद्वीप में ऐसे स्थान मिल जाएंगे जो भारत के किसी भी कोने में रहने वाले के लिए पवित्र हैं. चाहे वह कराची के पास का शक्तिपीठ हिंगलाज हो या चटगांव का सीताकुंड शक्तिपीठ. दुर्भाग्य से यह दोनों ही स्थान हमारे वर्तमान मानचित्र का हिस्सा नहीं हैं. लेकिन इससे इनकी महत्ता किसी भी प्रकार कम नहीं होती. भारतवर्ष कई मामलों में एक राजनीतिक नेशन ना होकर आध्यात्मिक राष्ट्र है. इसकी मूलभूत एकता इसके हर कोने में बने पवित्र तीर्थ स्थलों से बनती है. हालांकि 1947 के बाद राजनीतिक हालात बदल गए है किंतु आमजनमानस में इन क्षेत्रों की पवित्रता किसी भी प्रकार से कम नहीं हुई है. आज भी नवरात्रों के दौरान जागरण में दिल्ली के किसी मुहल्ले में हिंगलाज माता के जयकारे सुनाई देते हैं. इन स्थानों के प्रति यह भाव आधुनिक कदापि नहीं है. आज से करीब 500 साल पहले वृंदावन में एक बंगला ग्रंथ लिखा गया था, 'चैतन्य चरितामृत'. इस ग्रन्थ में चैतन्य महाप्रभु द्वारा उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी से शुरू किए गए उनके दक्षिण  भारत के तीर्थ यात्रा का विषद वर्णन है. अपनी यात्रा के क्रम में आधुनिक आंध्र, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, नर्मदा तट और गुजरात की पैदल यात्रा चैतन्य महाप्रभु ने की. उन्होंने ना केवल यात्रा की बल्कि उनके साथ जो सज्जन गए थे उन्होंने हर स्थान की सूची भी बनाई. गौर करने वाली बात ये है की सुदूर दक्षिण के ये तीर्थ इस बंगाली संत के लिए पर्याप्त पवित्र हैं तभी इतनी लंबी दूरी तय करके वह इन स्थानों में जाते हैं. वे इन स्थानों से जुड़े कथा-कहानी, मंदिर और देवताओं का जिक्र करते हैं. बाद में 'चैतन्य चरितामृत' में इन सबका संयोजन किया जाता है.प्रसिद्ध इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने चैतन्य के दक्षिण भ्रमण पर एक पुस्तक भी लिखी थी. ऐसे ही कई मध्यकालीन संतों की तीर्थ यात्राओं पर पुस्तकें मिलती हैं. 16वीं सदी में प्रसिद्ध कन्नड़ संत वादिराज अपने तीर्थ प्रबंध ग्रंथ में अपनी यात्राओं का जिक्र करते हैं.

भारत के मंदिर और तीर्थ

मंदिर और तीर्थ हमारी सामुदायिक सांस्कृतिक चेतना और सभ्यता के प्राण केंद्र रहे हैं. यही कारण है की मध्यकालीन सत्ता संघर्ष में सबसे अधिक आक्रमण इनपर किया गया. राजनीतिक संघर्ष के बहाने धार्मिक प्रतीकों को तहस-नहस किया गया. इसका उदाहरण कुतुब मीनार परिसर से बंगाल के अदीना मस्जिद  (आदिनाथ मंदिर) और महाराष्ट्र के नागेश्वर मंदिर तक में दिखते हैं. 

हालांकि स्वतंत्रता के बाद से अब तक इतिहास के पाठ्य पुस्तकों में ना तो भारतीय चेतना के इस मूलभूत ढांचे के विषय में अधिक कहा गया और ना ही मध्यकालीन मंदिर विध्वंस के संबंध में ठीक-ठाक ढंग से कुछ बताया गया है. पाठ्य पुस्तकों का अधिक जोर मंदिरों के विध्वंस को केवल मात्र राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों से जोड़कर दिखाना ही था. हालांकि यह एक आधा अधूरा इतिहास लेखन था. इसके मूल में छद्म धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत था, जिससे मध्यकालीन सभ्यताओं के संघर्षों को केवल मात्र राजनीतिक रंग दिया जा सके. 

जहांगीर ने पुष्कर के वराह मंदिर को क्यों तुड़वाया था

इस संदर्भ में एनसीआरटी की ओर से आठवीं कक्षा के सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में किए गए बदलाव ना केवल स्वागत योग्य है बल्कि इस प्रकार के और अधिक बदलावों की आवश्यकता है. हमें इतिहास के हर अध्याय को जानने की आवश्यकता है. बाबर और औरंगजेब की क्रूरता के किस्से तो अमूमन किसी ना किसी तरह से सभी जानते हैं. किंतु क्या हमें इसकी जानकारी नहीं होनी चाहिए की तथाकथित कला प्रेमी और शांतिप्रिय जहांगीर ने पुष्कर के वराह मंदिर को केवल इस कारण से तुड़वाया था क्योंकि उसे वराह बहुत ही निकृष्ट पशु लगा. वैसे वराह और सूअर में अंतर है, जिसे शायद जहांगीर को किसी ने बताया नहीं होगा. किंतु यह एक कटु सत्य है कि उसने घृणा के कारण ऐसा किया. जब हम अध्येताओं को उसके अन्य प्रतिभाओं के संबंध में बताते हैं तब इस बात का उल्लेख करना भी जरूरी हो जाता है. एक सम्राट के तौर पर उसके व्यक्तित्व के हर पहलू की जानकारी होना जरूरी है.

औरंगजेब जो अपने क्रूर कारनामों के लिए कुख्यात है ही, उसके संबंध में प्राय: यह बताया जाता है कि वह राजकोष से किसी भी प्रकार का पैसा नहीं लेता था.वह अपने खर्चे के पैसे क़ुरान की हस्तलिखित प्रतियां लिखकर जुटाता था. मेरे जेनरेशन के किसी भी छात्र से आप पूछेंगे तो उनको ये  बातें  जरूर पता होंगी क्योंकि विद्यालयों में शिक्षक ये बाते खास तौर पर बताते आए हैं. हालांकि उसके व्यक्तित्व के और भी पहलू हैं जिसे अब तक पाठ्यपुस्तकों से दूर रखा गया है. औरंगजेब की कट्टरता पर तो एक अलग पुस्तक लिखी जा सकती है. उसकी क्रूरता की एक-दो घटनाओं का उल्लेख जरूरी है. इससे एनसीआरटी में नए जोड़े गए व्यक्तव्यों की पुष्टि भी हो जाएगी. औरंगजेब जब बीजापुर में था तो उसने ओडिशा के जगन्नाथ मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया. ओडिशा के स्थानीय राजाओं ने किसी तरह मंदिर को बचा लिया. उन्होंने चंदन की नकली मूर्तियों को औरंगजेब के पास भेज दिया. औरंगजेब ने उन नकली मूर्तियों को असली मान उसे बीजापुर के मस्जिद की सीढ़ियों में दबवा दिया. कट्टरपन के इस उदाहरण को पता नहीं कैसे राजनीतिक और आर्थिक चश्मे से देखा जाएगा!

कैसे हुई देव विग्रहों की रक्षा

महाराष्ट्र के दो बहुत प्रसिद्ध मंदिर हैं, कोल्हापुर का महालक्ष्मी मंदिर और औंध का नागेश्वर ज्योतिर्लिंग. इन दोनों मंदिरों की संरचनाएं बहुत रोचक हैं. मंदिर का निचला हिस्सा प्राचीन या पूर्व मध्यकालीन है जबकि शिखर बहुत ही नया है. इसका कारण है दिल्ली सल्तनत और मुगल शासकों द्वारा इन मंदिरों को ध्वस्त किया जाना. औरंगजेब के बाद जब मुगल सत्ता कमजोर हुई तो मराठा साम्राज्य ने विशेषकर महारानी अहिल्याबाई ने 18वीं सदी में इन मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया. औंध का नागेश्वर मंदिर तो इस मामले में बहुत ही दिलचस्प है कि मूल ज्योतिर्लिंग एक छोटे तहखाने में है और ठीक उसके ऊपर एक नकली शिवलिंग स्थापित है. ये सारे इंतजाम केवल मात्र मूर्तियों की सुरक्षा के लिए किए गए थे. जहां ऐसा नहीं हो सका वहां से मूर्तियां को सुरक्षित किसी दूसरे स्थान पर भेज दिया गया. जैसे जब औरंगजेब ने मथुरा पर हमला किया तब वृन्दावन के मंदिरों को खाली कर वहां के देव विग्रहों को सुरक्षित राजस्थान भेज दिया गया था. मथुरा का मुख्य जन्मभूमि मंदिर तो तोड़ दिया गया किंतु समय रहते वृंदावन के देव विग्रह बच गए. 

मथुरा जैसे प्रसिद्ध तीर्थ में पूरे मध्यकाल किसी भी बड़े मंदिर के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं. कई शताब्दियों बाद मथुरा कृष्ण जन्मभूमि का मंदिर बुंदेलखंड के राजा वीर सिंह बुंदेला ने जहांगीर के समय बनवाया था. जहांगीर ने इसकी इजाजत राजा द्वारा उसको दिए गए सहायता के कारण दी गई थी. हालांकि यह मंदिर कुछ ही सालों बाद औरंगजेब की नीतियों की बलि चढ़ गया. आज भी राजस्थान के कई बड़े शहरों में वृंदावन से लाए गए ये विग्रह जनता की आस्था के केंद्र हैं. 

क्या मध्यकाल को अंधकार युग कहना सही है

महाराष्ट्र के कोल्हापुर और औंध के मंदिरों की बेमेल निर्माण शैली हमारी सभ्यता के संघर्षों का जीता जागता प्रमाण है. प्रत्येक मंदिर, तीर्थ और पवित्र स्थानों में जहां भी यह विनाश लीला चली, वहां विध्वंस के बाद भी हमारी सामूहिक चेतना ने उसकी पवित्रता और महत्ता को जीवित रखा. क्या मध्यकालीन इतिहास के अध्येताओं और विद्यार्थियों को इन बातों की जानकारी नहीं होनी चाहिए? इतिहास की पूर्णता तब है जब अकबर के दीन ए इलाही के साथ-साथ हमें इन घटनाओं के विषय में भी बताया जाए. ऐसा नहीं है कि इस ज्ञान से किसी नवीन शत्रुबोध का उदय होगा. बल्कि मेरे विचार से इतिहास में हुए रक्तरंजित प्रसंगों की जानकारी से आने वाली पीढ़ियों को अपने पूर्वजों पर गर्व होगा. इससे उनमें देश की विरासत को संभालने की क्षमता विकसित होगी. आज आवश्यकता है कि हम अपने पूर्वाग्रहों से दूर इतिहास को उसकी समग्रता से देखने का प्रयास करें. इतिहास की रसीली बातों के साथ उसके कड़वेपन को भी याद किया जाए. इस संदर्भ में एनसीआरटी द्वारा किए गए बदलाव स्वागत योग्य हैं. हालांकि मध्यकाल को अंधकार युग कहना तर्क संगत नहीं है. राजनीतिक ऊहापोह की स्थिति और विध्वंस का काल होने के बावजूद यह समय भक्ति संतों के उदय का है, जिन्होंने अपनी वाणियों से मध्यकालीन जनता को भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक बल दिया. जब धर्म और अध्यात्म के दृश्य प्रतीकों (मंदिरों और विग्रहों) पर संकट छाया तब इन संतों ने कीर्तन - भजन के माध्यम से भारतीय अध्यात्म की ज्योति को सतत जलाए रखा. इस संदर्भ में मध्यकाल भारतीय दर्शन और अध्यात्म का स्वर्णकाल ही है. मौजूदा इतिहासलेखन और पाठ्यपुस्तकों के संदर्भ में एनसीआरटी की ओर से किए गए बदलाव छोटे किंतु महत्वपूर्ण हैं. ऐसे और बड़े बदलावों की जरूरत है. 

अस्वीकरण: डॉक्टर संदीप चटर्जी, दिल्ली विश्विद्यालय के शहीद भगत सिंह कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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