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This Article is From Jun 03, 2019

ब्लॉग : 'हिस्सेदारी' नीतीश कुमार का पीछा क्यों नहीं छोड़ती!

Manish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 03, 2019 12:29 pm IST
    • Published On जून 03, 2019 12:27 pm IST
    • Last Updated On जून 03, 2019 12:29 pm IST

राजनीति में चीज़ें जितनी बदलती है उतनी ही अपने मूल स्वरूप में भी रह जाती हैं. ये सच बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष नीतीश कुमार से बेहतर कोई नहीं जानता जो पिछले 5 दिनों से केंद्र के सरकार में हिस्सेदारी को लेकर सुर्ख़ियों में हैं. हालांकि वह हर दिन एक बात की दुहाई देते हैं की NDA में है और अगर केंद्र के सरकार में हिस्सेदारी को लेकर उनकी बात नहीं बनी तो इसका मतलब बिहार में BJP के साथ सरकार पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा और साथ ही वह केन्द्र और बिहार में एनडीए में ही रहेंगे. लेकिन वर्तमान विवाद और संकट का क्या समाधान होगा उसके लिए नीतीश कुमार की राजनीति को 25 साल पहले से देखना होगा. उस समय क्या हुआ था यह बिहार बीजेपी के कई वरिष्ठ नेताओं जैसे सुशील मोदी और नंद किशोर यादव को अच्छी तरह से याद होगा. सत्ता में हिस्सेदारी का ही मामला था कि जब नीतीश कुमार ने लालू यादव से अलग होकर लोक समता पार्टी बनायी थी. यह सबको पता है कि लालू यादव को नेता विपक्ष बनाने का मसला हो या बिहार के मुख्यमंत्री  बनाने में नीतीश कुमार ने उसमें एक अहम भूमिका अदा की थी. शायद इसी का असर था कि शुरू में एक दो सालों तक पार्टी के स्तर पर यह सरकार के फैसलों में लालू यादव नीतीश कुमार की बातों को महत्व देते थे. सरकार में नीतीश की ही चलती थी.

लेकिन आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद जब लालू यादव को इस बात का अंदाज़ा हुआ कि उनकी अपनी लोकप्रियता के कारण पार्टी का जनाधार बढ़ रहा है और सत्ता में उन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता. तब लालू यादव नीतीश कुमार की बातों को नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया और नौबत तो यहाँ तक आ गयी कि उनके गृह ज़िले में अधिकारियों के नियुक्ति में भी लालू यादव अपनी मनमर्ज़ी करना करने लगे. इसका असर यह हुआ कि नीतीश कुमार को भी लगने लगा कि लालू अब सत्ता अपनी मर्ज़ी से चलाना चाहते हैं और हिस्सेदारी तो बिलकुल ही नहीं देना चाहते हैं. यही एक कारण था जो बाद में अन्य मुद्दों के अलावा सबसे प्रभावी कारण समता पार्टी की स्थापना का बना.

लेकिन 25 साल बात शायद नीतीश कुमार को इस बात का अंदाज़ा भी नहीं होगा कि ऐसी ही परिस्थिति एक बार फिर उनके सामने आएगी. जब केंद्र सरकार में अपने पार्टी के मंत्री बनवाने के लिए उन्हें उनके फ़ॉर्मूले को नज़रअंदाज़ कर दिया जाएगा. क्योंकि इस बार केंद्र में बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला है और केंद्रीय मंत्रिमंडल में सांकेतिक प्रतिनिधत्व का एक नया फ़ॉर्मूला दिया. जिसके तहत हर सहयोगी के एक-एक सांसद को मंत्रिमंडल में जगह दी गई.  यह बात अलग थी किसी को कैबिनेट तो किसी को राज्य मंत्री का दर्जा दिया जा रहा था.

नीतीश के पास दो विकल्प थे एक चुपचाप अपने संसदीय दल में से किसी एक सदस्य को शपथ लेने के लिए नामित करते या फिर अपनी असहमति को सार्वजनिक करते हुए उस समय तक का इंतज़ार करना जब तक उनकी इच्छा के अनुसार एक और सदस्यों को मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिल जाती. 

नीतीश ने दूसरा विकल्प चुना और इसके पीछे उनके ठोस कारण थे. बिहार में जो एनडीए को 39 सीटें मिली हैं उस जीत के लिए उन्होंने क़रीब 171 चुनावी सभाएं की जिनमें आधे से अधिक अपने सहयोगी दलों जिसमें BJP के सभी 17 उम्मीदवारों और लोक जनशक्ति पार्टी के सभी छह उम्मीदवार के क्षेत्र में 1 से अधिक कई सभाएं कीं. इसके अलावा नीतीश कुमार ने गठबंधन धर्म का निर्वाह करते हुए अपनी पार्टी का मेनिफेस्टो भी केवल इसी आधार पर जारी नहीं किया क्योंकि मीडिया विवादास्पद मुद्दों जैसे धारा 370, सिटिजनशिप बिल पर बीजेपी से अलग उनके पार्टी के स्टैंड पर ज़्यादा सवाल करती. इसी पृष्ठभूमि में नीतीश को शायद इस बात का अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि अनुपातिक प्रतिनिधित्व के उनके फॉर्मूला पर कोई विचार भी नहीं करेगा. 

हालांकि भाजपा के साथ गठबंधन की सरकार बनाने के बाद कोई ये पहला मौक़ा नहीं हैं कि नीतीश को भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने इस बात का अहसास कराया है कि उनकी हर बात और मांग नहीं मानी जायेगी. इससे पहले भी सार्वजनिक रूप से पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की मांग को भी उसी मंच से प्रधान मंत्री मोदी ने ख़ारिज कर दिया. इसके अलावा विशेष राज्य का दर्जा देने का वादा ख़ुद नरेंद्र मोदी ने बिहार के पूर्णिया के एक सभा में किया था उसे भी ठंडे बस्ते में डाल दिया. ख़ुद उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी कितनी बार सार्वजनिक मंच से कह चुके हैं कि ये मांग मानना अब सम्भव नहीं. नीतीश कुमार ने बिहार में शराबबंदी की लेकिन पड़ोस के दो बीजेपी शासित राज्य झारखंड और उतर प्रदेश में उनकी मांग के बावजूद भी शराबबंदी नहीं हुई. जिसके कारण ये दोनों राज्य बिहार में अवैध शराब के मुख्य श्रोत हैं. 

फ़िलहाल हिस्सेदारी नहीं मिलने के बावजूद बिहार में सरकार को कोई ख़तरा नहीं है. क्योंकि जिस आसानी और समुचित तरीक़े से बिहार बीजेपी के लोगों के साथ नीतीश कुमार का सरकार चलाने का अनुभव हैं वो राष्ट्रीय जनता दल के साथ उसके विपरीत कटु अनुभव रहा था. क्योंकि एक लालू यादव का समानांतर हस्तक्षेप बहुत होता था और दूसरा जब हिस्सेदारी के नाम पर जो सूची अधिकारियों की लालू यादव भेजते थे उसमें अधिकांश दाग़ी या विवादास्पद छवि के लोग होते थे इसलिए वे वर्तमान परिस्थिति में नीतीश कुमार का रिश्ता जहां बिहार BJP के सहयोगियों के साथ ख़ास का मंत्रिमंडल के सहयोगियों के साथ सामान्य होगा वहीं BJP के केंद्रीय नेतृत्व के प्रति जो अविश्वास की स्थिति बनी है उसे अगर जल्द सुलझाया नहीं किया तो भविष्य में का असर बिहार के कामकाज पर भी दिखेगा.

फ़िलहाल पटना में पत्रकारों का काम इस बात को लेकर बढ़ गया है कि अब हर चीज़ में चौकसी बरतनी पड़ रही है. उसके दोनों पक्ष मिलकर एक सुर से 'हम सब साथ-साथ हैं' का राग अलापते हैं. लेकिन नीतीश कुमार का अपना राजनीतिक इतिहास रहा है कि हिस्सेदारी के नाम पर उपेक्षा होने पर उन्होंने न केवल नई राह पकड़ी है बल्कि नए साथी भी चुने हैं. और ये ऐसा सच है जिसे बिहार BJP के नेता जानते हैं और केंद्रीय नेतृत्व अगर इस बात को नज़रअंदाज़ करता है तो उसका खामियाजा सब को उठाना पड़ सकता है. 

मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है 

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