इजरायल-हमास युद्ध के मध्य पूर्व की क्षेत्रीय भू-राजनीति पर व्यापक प्रभाव पड़ने के आसार हैं. हमास द्वारा किया गया आतंकी हमला एक ऐसे समय में हुआ है, जब मध्य पूर्व में इजरायल और अरब देशो के बीच रिश्ते व्यापक रूप से सुधर रहे थे. वर्ष 2020 में इजरायल, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के बीच अब्राहम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद से क्षेत्र में इजरायल के खाड़ी देशों के साथ सहयोग में व्यापक रूप से वृद्धि हुई थी. इसी शृंखला में इजरायल और सऊदी अरब के बीच रिश्तों में सुधार तथा शांति संधि की व्यापक संभावनाएं भी बन रही थीं. एक ऐसे समय में जब इजरायल और सऊदी अरब के बीच अमेरिका की मध्यस्थता में बड़े स्तर पर रिश्तों के सामान्यीकरण की कोशिशें चल रही थीं, हमास का इजरायल पर हमला इस बातचीत को तोड़ने या इसमें हानि पहुंचाने की मंशा से किया गया हो सकता है, क्योंकि अगर इजरायल और सऊदी अरब में संधि हो जाती है तो ये पश्चिम एशिया की क्षेत्रीय भू-राजनीति में इजरायल की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण परिवर्तन के रूप में देखा जाता. हालिया स्थिति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि अब इस समझौते के होने की संभावना कुछ कम है. निसंदेह इजरायल को अब कुछ और दिनों तक इंतजार करना पड़ सकता है. हालांकि अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने कहा है कि अमेरिका का फोकस अभी इजरायल की सुरक्षा और सहयोग पर है, लेकिन इजरायल-सऊदी अरब समझौते पर भी इस समय कोई औपचारिक पूर्ण विराम अभी तक नहीं लगा है. हालांकि इतना स्पष्ट है कि एक ऐसे समय में जब लगभग पूरी इस्लामिक दुनिया इजरायल के खिलाफ और फिलस्तीन के मुद्दे के साथ खड़ी दिखाई दे रहा है, ऐसे में सऊदी अरब, इजराइल के साथ शांति समझौते को कुछ दिन के लिए अभी मेज से दूर ही रखेगा, जिससे उसकी साख इस्लामिक दुनिया में बनी रहे.
इजराइल- हमास युद्ध का दूसरा सबसे बड़ा प्रभाव पश्चिम एशिया की क्षेत्रीय राजनीति में फिलिस्तीन के विषय को पुनर्जीवित करना भी होगा, जो 1993 के ओस्लो शांति समझौते तथा 1994 में जॉर्डन के साथ इजराइल की संधि के बाद से बड़े अरब देशों के लिए एक प्रतीकात्मक विषय बन गया था. वर्ष 2020 के बाद से तो खाड़ी के देशों ने भी, खासकर संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के द्वारा इजरायल के साथ संबंधों की स्थापना के बाद से फिलिस्तीन का मुद्दा लगातार पश्चिमी एशिया में अपने महत्व को खोता जा रहा था. निसंदेह, इजराइल-हमास युद्ध ने कुछ समय के लिए तो फिलिस्तीन के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में जीवंत कर दिया है.
इतना ही नहीं यह इजरायल-हमास युद्ध के संदर्भ में यह पहली बार है जब पश्चिम एशिया के देश भी बंटे हुए दिखाई दे रहे हैं. संयुक्त अरब अमीरात ने हमले के पहले दिन ही हमास को आड़े हाथ लिया था, वहीं सऊदी अरब भी युद्ध के संदर्भ में संतुलन की नीति पर चलता दिखाई दे रहा है. हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि इजरायल और हमास के बीच बढ़ती टेंशन सऊदी अरब को ईरान के और पास ले जायगी.
वैसे इजरायल और गाजा दोनों कच्चे तेल के निर्यातक देश तो नहीं है, लेकिन इस युद्ध का अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों पर प्रभाव पड़ना लगभग तय है, जिसे युद्ध के शुरुआती दौर में ही देखा जा रहा था. युद्ध के दूसरे दिन क्रूड आयल की कीमतों में चार प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी. यदि युद्ध लम्बा चला, जैसा की अभी लग भी रहा है तो इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस युद्ध से कच्चे तेल की कीमतों पर बड़ा प्रभाव न पड़े. यदि ईरान द्वारा समर्थित शिया अलायंस (लेबनान, सीरिया, यमन तथा इराक) इजरायल के खिलाफ युद्ध में आते हैं तो ऐसी परिस्थिति में इस बात की गुंजाईश को बिलकुल भी दर किनार नहीं किया जा सकता है कि इसका अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा बाजार पर कोई प्रभाव न पड़े. साथ ही यदि ये युद्ध लम्बा चलता है तो निसंदेह इसका कोविड 19 के बाद से किये जा रहे वैश्विक आर्थिक सुधार के प्रयासों पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ेगा.
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ईरान एक लम्बे समय से हमास की सहायता करता रहा है. इस बार भी कथित तौर पर ईरान का हाथ होने की बात को बार-बार इजराइल की ओर से कहा जा रहा है. लेबनान के अलावा सीरिया और इराक, दो और ऐसे देश हैं जहां पर बड़ी संख्या में ईरान समर्थित शिया लड़ाकों की उपस्थिति है. पिछले कुछ सालों में इजरायल भी इन दोनों देशों में लगातार नियमित अंतराल पर हवाई हमले करता रहा है. एक ऐसी स्थिति में जहां इजरायल और हमास के बीच लड़ाई विध्वंसक मोड़ पर पहुंच जाती है, सीरिया और इराक के द्वारा भी इजरायल के खिलाफ अपने मोर्चा खोलने की व्यापक संभावना है और यदि ऐसा होता है तो यह 2011 के अरब स्प्रिंग के बाद पूरे पश्चिमी एशियाई क्षेत्र को वापस से गंभीर अस्थिरता के दौर में ले जा सकता है.
ईरान लगातार इजरायल के खिलाफ युद्ध में शामिल होने की धमकियां दे रहा है और यदि युद्ध में ईरान भी शामिल हो जाता है तो निसंदेह यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति तथा वैश्विक ऊर्जा बाजार के लिए भी एक व्यापक संकट बन जायगा तथा रूस -यूक्रेन युद्ध से जूझ रही वैश्विक अर्थव्यवस्था पर यह किसी ग्रहण से कम नहीं होगा.
(डॉ. जतिन कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, इजरायल एवं लेबनान से जुड़े विषयों के जानकर हैं.)
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