मानवाधिकार-आजादी की बातें सिर्फ पत्थर फेंकने वालों के लिए!

मानवाधिकार-आजादी की बातें सिर्फ पत्थर फेंकने वालों के लिए!

प्रतीकात्मक फोटो

सात राज्यों में प्रति व्यक्ति आय जम्मू-कश्मीर के मुकाबले कम है. इन राज्यों में यूपी, एमपी, बिहार, झारखंड जैसे राज्य शामिल हैं. शिक्षा के मामले में भी छह राज्य जम्मू-कश्मीर के नीचे हैं.

देशभर में 20,306 सरकारी अस्पताल हैं जिसमें सबसे ज्यादा 3,145 राजस्थान में हैं. दूसरे नंबर पर 2,812 अस्पतालों के साथ जम्मू-कश्मीर है. सारे केंद्रीय विश्वविद्यालयों में जम्मू-कश्मीर के छात्रों के लिए कोटा है. उन्हें स्पेशल वज़ीफा भी मिलता है. जम्मू-कश्मीर में लगभग सवा करोड़ की आबादी में लगभग 99 लाख लोग अभी भी रियायती राशन का लाभ उठाते हैं. धारा 370 को लेकर गला फाड़ने वाले यह भी बताएं कि जितना पैसा कश्मीर को दिया जाता है उसके आसपास कोई दूसरा राज्य है?

फिर सवाल है कश्मीर नाराज़ क्यों है ...
चलिए मान लेते हैं कि कश्मीर के भारत से जुड़ने में कई राजनीतिक खामियां रह गईं, लेकिन कश्मीर के कथित संघर्ष को वहाबी-सलाफी कौन बना रहा है? घाटी से पंडितों को खदेड़कर पूरे संघर्ष को साम्प्रदायिक बनाने में क्या कश्मीरी आवाम जिम्मेदार नहीं है? सवाल यह भी है कि कश्मीर भारत में शामिल कैसे हुआ? क्या नेहरू कटोरा लेकर गए थे?  या यह राजा हरि सिंह का लालच था? कबायलियों के भेष में पाकिस्तानी सैनिक किसने भेजे? जो खाली खत में अपनी शर्तें भरने का ख्वाब हरि सिंह को दिखा रहे थे... जो शेर-ए-कश्मीर को जेल से रिहा करने को तैयार नहीं थे. जब श्रीनगर तक यह कथित कबायली पहुंच गए तब हरि सिंह ने हिंदुस्तान से मदद मांगी. शर्त थी शेख अब्दुल्ला की रिहाई और भारत में विलय... और शर्त क्यों न हो? बतौर राष्ट्र कश्मीर हमारी रणनीतिक-सामरिक ताकत है. बहरहाल ... बीच-बीच में घुसपैठ की कोशिश होती रही, लेकिन कमोबेश कश्मीर जन्नत बना रहा.

लेकिन 80 के दशक में हुए विधानसभा चुनावों में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट हार से इस कदर बौखलाया कि उसके नेता सैयद अली शाह गिलानी पाकिस्तान और अलगाववाद के पाले में जाते दिखे. कहते हैं इस चुनाव में केन्द्र ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ मिलकर भारी धांधली की. इसके बाद ही घाटी में पंडितों के खिलाफ माहौल बनना शुरू हुआ. सन 1989 में 109 पंडितों की हत्या के बाद घाटी से पंडित विस्थापित होने लगे. केन्द्र में कांग्रेस के राज में कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा ... फिर एक खूनी इतिहास लिखा जाने लगा, जिसमें कोलैट्रल डैमेज जनता को भी भुगतना पड़ा.

किससे करें बात
चार दशक बीत गए, सुनते-सुनते कि कश्मीर समस्या का हल बातचीत से निकलेगा. लेकिन सवाल है बातचीत करें तो किससे? अलगाववादियों का स्टैंड साफ है.. या तो पाकिस्तान या फिर आजादी. हिंदुस्तान दोनों में से कुछ देने को तैयार नहीं है. वैसे कोई भी संप्रभु राष्ट्र ऐसा करे भी तो कैसे?  फिर सवाल सिर्फ घाटी के सुन्नियों का नहीं है. शिया, सिख, हिन्दू, बौद्ध भारत में रहना चाहते हैं... लोगों ने सरकार चुनी है, उन्हें भी तिरंगे से प्यार है. फिर क्या हम मुठ्ठी भर लोगों के सामने घुटने टेक दें?  फिर सवाल यही है किससे बात करें और कितनी? नाराज़गी क्या है?  क्या वहां का युवा शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार जैसे मुद्दों पर ध्यान नहीं देता? कश्मीर सियासी समस्या है लेकिन दुनिया में एक ऐसा लोकतांत्रिक देश बता दें जहां राष्ट्र की अवधारणा पर यकीन न करने वालों के विदेश यात्रा, स्वास्थ्य, सुरक्षा पर सालाना करोड़ों खर्च किए जाते हों!  बंदूक की बातें करने वालों से फूल से तो नहीं निबटा जा सकता. बतौर राष्ट्र चीन अंतरराष्ट्रीय पंचाट के फैसले नकार देता है, अमेरिका कई देशों को तबाह कर देता है, सिर्फ आशंका के आधार पर... तो क्या हम हिंसा को कुचल भी नहीं सकते! सैनिकों से हथियार छीनना छोटा अपराध नहीं राष्ट्रद्रोह के दायरे में आता है. आप क्या उम्मीद करते हैं ऐसे अपराध के लिए लोगों को बिठाकर उनसे बातें की जाएं.
     
बड़ी तादाद में कश्मीर की आवाम भी अमन पसंद है, क्या उनकी आजादी के मायने हैं?  या तमाम मानवाधिकार-आजादी की बातें सिर्फ पत्थर फेंकने वालों के लिए हैं! हिंसा का समर्थन करना हमारे मूल में नहीं है, लेकिन रोज अपने सैनिकों को, कश्मीरी आवाम को भी तो मरते नहीं देखा जा सकता.  

आप कह सकते हैं कि इतनी जटिल समस्या का यह बेहद आसान-अमानवीय समाधान है, फिर एक जवाब बस दे देना कि 40 सालों में कौन सा समाधान ढूंढ लिया गया?  न कश्मीर शांति से जी रहा है, न देश! जम्हूरियत में इकबाल अहम है ... उसे बचाए रखना हमारी जिम्मेदारी भी है. साथ ही यह भी याद रखना कि आजादी और स्वतंत्रता में फर्क है... हम आजाद नहीं हैं, एक तंत्र के अंदर हैं... जिसका नाम है संविधान.

(अनुराग द्वारा एनडीटीवी में एसोसिएट एडिटर हैं)

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