कैसी होगी उत्तर प्रदेश की सियासी लड़ाई?

कैसी होगी उत्तर प्रदेश की सियासी लड़ाई?

अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव (फाइल फोटो)

पिछ्ले करीब 27 सालों से विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में सांप्रदायिकता बनाम धर्म-निरपेक्षता के नाम पर चल रही राजनीतिक लड़ाइयों में कई राजनीतिक और गैर राजनीतिक ताकतों का जन्म हुआ. उनमें से कई कमजोर पड़ कर ख़त्म हो गईं, जबकि कई अन्य इतनी ज्यादा ताकतवर हो कर उभरीं हैं कि राष्ट्रीय परिदृश्य पर पहचान बनाने के करीब हैं. लेकिन इस बीच जिन तथाकथित धर्म-निरपेक्ष संगठनों का उदय हुआ भी, उन्होंने भी अपने को मजबूत करने के लिए किसी न किसी समय उन्हीं 'सांप्रदायिक ताकतों' के साथ हाथ मिलाया, जिनके खिलाफ लड़ाई लड़ना उनका उद्देश्य हुआ करता था.

अब, जब बिहार में इस समीकरण के चलते एक बेमेल गठबंधन सत्ता पर काबिज है, वहीं उत्तर प्रदेश में दोनों पक्षों की ताकतें 2017 के चुनाव में सत्ता पाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं. लेकिन आश्चर्यजनक है कि ऐसी महत्वपूर्ण चुनावी चुनौती से निबटने से ठीक पहले सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को अपने अंदरूनी घमासान से निबटना पड़ रहा है.
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके चाचा व वरिष्ठ मंत्री शिवपाल यादव के बीच उपजे विरोधों को शांत करने के लिए मुलायम सिंह यादव ने जो सुलह करवाई है, उसके अंतर्गत सोमवार 26 सितम्बर को उन दोनों मंत्रियों को अखिलेश मंत्रिमंडल में वापस ले लिया गया, जिन्हें दो हफ्ते पहले कथित तौर पर भ्रष्टाचार के आरोप में बाहर का रास्ता दिखाया गया था. ताजा फेरबदल में कुछ वर्तमान मंत्रियों को पदोन्नति दी गई और कुछ नए मंत्री रखे गए. कुल संकेत यही देने की कोशिश की गई है कि जो कुछ भी हुआ है, वह सब मुख्यमंत्री ने अपने 'विशेषाधिकार' के अंतर्गत किया है.

वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत यदि किसी मंत्री को मंत्रिमंडल से निकाला जाता है, तो यह माना जाता है कि वह मुख्यमंत्री का विश्वास खो चुके हैं और यदि उन्हें फिर से मंत्रिमंडल में लिया जाता है तो इसका अर्थ यह है कि मुख्यमंत्री को उन पर विश्वास है कि वे अपनी जिम्मेदारियां संविधान के अनुरूप निभाएंगे. ऐसे में उन दो मंत्रियों को निकाला जाना, जिन्हें दोबारा लिया गया, यह संकेत देता है कि दोनों ही ने दो हफ़्तों के भीतर ही मुख्यमंत्री का विश्वास दोबारा जीत लिया है.
सोमवार को मंत्रिमंडल के फेरबदल समारोह के बाद जिस तरह इनमें से एक मंत्री ने पूर्णतया दंडवत होकर मुख्यमंत्री और फिर पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव के प्रति आभार व्यक्त किया, उससे साफ़ जाहिर है कि अपने ऊपर विश्वास पुनर्जागृत होने से ये मंत्री कितना कृतज्ञ हैं.

पार्टी में प्रत्याशियों के चयन और टिकट वितरण के अधिकार को लेकर शुरू हुए विवाद को कैसे हल किया गया, वह पार्टी का अंदरूनी मामला है. लेकिन दागी छवि के मंत्रियों को दोबारा शामिल करके पार्टी में लगभग स्पष्ट तरीके से दो पक्षों की उपस्थिति, और असंतोष को शांत करने के लिए मंत्रिपद को एक तरीके के तौर पर इस्तेमाल करके सत्तारूढ़ पार्टी किस तरह से अपनी 'सांप्रदायिकता विरोधी' चुनावी रणनीति बनाएगी, यह अब सामने आने की उम्मीद है. संकेत यही हैं कि अखिलेश यादव के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा जाएगा, लेकिन क्या पार्टी संगठन और समर्थक एकजुट होकर प्रत्याशियों का प्रचार करेंगे, यह बड़ा सवाल है.

एक ओर मुलायम के संसदीय क्षेत्र आजमगढ़ में सपा की प्रस्तावित रैली स्थगित कर दी गई है, क्योंकि वहां स्थानीय लोगों ने अमर सिंह के खिलाफ प्रदर्शन कर उनका पुतला जलाया. दूसरी ओर कांग्रेस के राहुल गांधी की प्रदेश यात्रा अनवरत जारी है और वे अपने अंदाज में लोगों से मिलते जा रहे हैं, चाहे उसका चुनावी परिणाम कुछ भी हो. मायावती और भारतीय जनता पार्टी का भी प्रचार अभियान अपनी गति से चल ही रहा है. ऐसे में समाजवादी पार्टी को जल्द ही तय करना होगा कि उनकी आपसी लड़ाई कहीं उनके चुनावी परिप्रेक्ष्य पर भारी न पड़ जाए.

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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