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पर्वतों की पुकार: उत्तराखंड के बदलते आर्थिक और सामाजिक सरोकारों की गहन पड़ताल

Himanshu Joshi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 06, 2025 08:15 am IST
    • Published On अप्रैल 06, 2025 08:11 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 06, 2025 08:15 am IST
पर्वतों की पुकार: उत्तराखंड के बदलते आर्थिक और सामाजिक सरोकारों की गहन पड़ताल

अरुण कुकसाल, जिनकी यायावरी की आंखों ने पहाड़ों के दर्द को करीब से देखा है और चन्द्रशेखर तिवारी, जिनकी शोधपरक दृष्टि ने तथ्यों को गहराई से जाँचा है, इन दोनों ने मिलकर 'उत्तराखण्ड का पर्वतीय समाज और बदलता आर्थिक परिदृश्य' नामक एक ऐसी किताब लिखी है, जो पाठकों को पहाड़ की धड़कनों से सीधे जोड़ देती है. यह पुस्तक केवल एक अध्ययन नहीं, बल्कि तीन दशकों के अंतराल में उत्तराखंड के ग्रामीण जीवन में आए उथल-पुथल का जीवंत दस्तावेज़ है.

लेखकों ने अपनी यात्राओं पर यह किताब लिखी है और इसमें उन्होंने पहाड़ की जिन विसंगतियों को उजागर किया है, वे चौंकाने वाली हैं. टूटी सड़कें, जंगली जानवरों द्वारा फसलों का नुकसान, सरकारी स्कूलों की दयनीय हालत और पीने के पानी का संकट, ये वे कारण हैं जिन्होंने पिछले तीस सालों में पहाड़ों से पलायन को बढ़ावा दिया है. आज सड़कों की स्थिति में सुधार तो हुआ है लेकिन बाकी समस्याएं और विकराल हो चुकी हैं. सड़कें अब पलायन को और आसान बना रही हैं.

एक विदेशी अन्वेषक की तरह: पहाड़ की कहानी को नए नज़रिए से देखना

दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र से प्रकाशित यह किताब पढ़ते समय कई बार ऐसा लगता है, मानो आप किसी विदेशी खोजकर्ता की डायरी पढ़ रहे हों. लेखकों ने इन गाँवों की वास्तविक तस्वीर को इतने सजीव ढंग से प्रस्तुत किया है कि पाठक स्वयं को उन घाटियों और ढलानों पर खड़ा पाता है. स्थानों का विवरण इतना सटीक है कि आप वहां की हवा को महसूस कर सकते हैं. पशुधन और मानव आबादी के आँकड़े इतने विस्तृत दिए गए हैं कि वे पाठकों को अचंभित कर देते हैं. 

पहाड़ का दर्पण है यह किताब जिसके आवरण से ही झलका है कठिन जीवन

किताब का कवर पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों को दर्शाता है. पुस्तक के अंतिम आवरण पर लेखकों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है, जो आजकल की अधिकतर पुस्तकों में देखने को मिलता है. बी.के. जोशी द्वारा लिखित 'आमुख' और लेखकों के निबंध 'कहो! कैसे हो पहाड़' को पढ़कर पाठकों की रुचि जाग उठती है. यह पुस्तक पहाड़ के संघर्षों को समझने के लिए एक अनिवार्य स्रोत बन जाती है. 'अनुक्रम' से पता चलता है कि यह पुस्तक दो अलग-अलग समयावधियों, साल 2016 और 1986 के अनुभवों पर आधारित है.

रेखाचित्रों में छिपी कहानियां  

पुस्तक में डॉ. नन्द किशोर हटवाल और निधि तिवारी द्वारा बनाए गए रेखाचित्र पहाड़ की जीवंत छवि प्रस्तुत करते हैं. ये चित्र साल 1986 और 2016 के बीच के बदलावों को दर्शाते हैं. प्रत्येक अध्याय के शीर्षक के साथ छोटे-छोटे रेखाचित्र पुस्तक की सुंदरता को बढ़ाते हैं.

तीस सालों में क्या बदला? लेखक की नज़र से

पुस्तक की शुरुआत में लेखक देहरादून और उसके आसपास के क्षेत्रों में तीन दशकों में आए बदलावों का वर्णन करते हैं। उदाहरण के लिए, वे लिखते हैं "तब ब्लॉक ऑफिस तक पहुँचने के लिए खेतों से गुजरना पड़ता था, आज वहाँ चमचमाती दुकानें हैं."

लेखकों ने गांवों की भौगोलिक स्थिति को समुद्रतल से ऊंचाई के साथ दर्शाया है, जिससे पाठकों को उस स्थान की कल्पना करने में आसानी होती है. उदाहरण के लिए "चुरानी स्थल, जो बांज, बुरांश और देवदार के जंगलों से घिरा है, समुद्रतल से 8500 फीट की ऊँचाई पर स्थित है. यह नागनाथ से 10 किमी, चकराता से 20 किमी और मसूरी से 55 किमी दूर है.".

आंकड़ों के साथ समस्याओं की पड़ताल

पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह समस्याओं को सिर्फ बयान नहीं करती, बल्कि उन्हें आँकड़ों के साथ प्रमाणित भी करती है. पशुपालन में गिरावट एक प्रमुख मुद्दा है, जिसे लेखकों ने विस्तार से दर्ज किया है। उदाहरण के लिए "पहले हर परिवार के पास औसतन एक जोड़ी बैल होते थे, लेकिन आज 50 परिवारों में से केवल 10 के पास बैलों की जोड़ी बची है."

सरकारी योजनाओं का ग्रामीणों तक सही ढंग से न पहुँचना भी एक बड़ी समस्या है. लेखकों ने हैंडपंप और बेकार पानी के चैंबर जैसे उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया है कि बिना ज़मीनी सर्वेक्षण के लागू की गई योजनाएं कैसे विफल हो जाती हैं.  

स्वास्थ्य सुविधाओं की दयनीय स्थिति पर एक ग्रामीण का कथन "हमारे गाँव में मौत आसान है, बीमारी से नहीं!" पाठकों को झकझोर देता है.

समस्याओं का समाधान भी तलाशती है यह किताब

लेखकों ने केवल समस्याएं ही नहीं गिनाईं, बल्कि उनके संभावित समाधान भी सुझाए हैं. उनकी मानवीय संवेदना पुस्तक में स्पष्ट झलकती है. एक जगह वे लिखते हैं "क्वाला गाँव आते समय मिली गाय अभी भी उसी पेड़ के नीचे खड़ी है, और हमें जाते देख असहाय नज़रों से ताकती रह जाती है."  

इसी संवेदनशीलता के कारण वे महिपाल सिंह जैसे प्रगतिशील किसानों से मिलकर पहाड़ों में खेती को बचाने के उपाय भी सुझाते हैं.

 शिक्षा व्यवस्था पर उनकी टिप्पणी "ग्रामीणों का कहना है कि स्कूलों में जो शिक्षा दी जा रही है, वह ग्रामीण परिवेश के अनुकूल नहीं है. पढ़-लिखकर बाहर रोजगार ढूंढने की मानसिकता हावी है." यह सोचने पर मजबूर करती है कि शिक्षा नीति में बदलाव की कितनी आवश्यकता है.

ग्राउंड रिपोर्टिंग का उत्कृष्ट उदाहरण

लेखकों ने 'मानिला का डांडा' जैसे रोचक शीर्षकों के साथ शराब की लत, सरकारी लापरवाही और अन्य सामाजिक मुद्दों को बड़ी बारीकी से उठाया है. उनकी यात्रा में कई बाधाएँ आई, कभी बारिश तो कभी बाघ का सामन. लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ तैयार किया.  

पुस्तक के अंत में: साथियों की आवाज़

पुस्तक के अंत में अध्ययन किए गए गांवों का विवरण और लेखकों के साथियों की टिप्पणियां दी गई हैं. इनमें नवीन जोशी, राज्यसभा सांसद प्रदीप टम्टा, लेखक देवेंद्र मेवाड़ी और सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला जैसे लोगों के विचार शामिल हैं.

अरुण कुकसाल को उनकी पुस्तक 'चलें साथ पहाड़' के लिए 'राहुल सांकृत्यायन पर्यटन पुरस्कार' मिला है, यह पुस्तक भी 'चलें साथ पहाड़' की तरह ही पहाड़ की समस्याओं को उजागर करने वाली एक महत्वपूर्ण कृति है. अब उम्मीद की जानी चाहिए कि चन्द्रशेखर तिवारी के साथ लिखी गई यह नई पुस्तक उत्तराखंड की समस्याओं के समाधान की दिशा में सार्थक पहल करेगी.

(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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