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This Article is From Feb 27, 2017

डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों से बदलती दुनिया की तस्वीर...

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 27, 2017 13:55 pm IST
    • Published On फ़रवरी 27, 2017 13:55 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 27, 2017 13:55 pm IST
यह पहली बार नहीं है कि डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका के प्रभाव के प्रति आशंका जताई जा रही है. जब जार्ज बुश राष्ट्रपति बने थे, तब भी ऐसी बातें की गई थीं, और खूब की गई थीं, लेकिन ट्रंप के बाद जो बातें की जा रही हैं, उनमें दो नई बातें है, जो इन आशंकाओं के सच में तब्दील होने की संभावनाओं को बढ़ा देती हैं. इनमें पहला है, पूरी दुनिया के वर्तमान हालात, तथा दूसरा है, ट्रंप में राजनीतिक समझ का अभाव. और इन दोनों बातों के प्रमाण उनके राष्ट्रपति पद की शपथ लेते ही मिल गए हैं. शुरुआती सप्ताह में लिए गए उनके निर्णयों ने इस बात की घोषणा कर दी है कि उन्हें किसी की परवाह नहीं, और वह जो करना चाहेंगे, करेंगे. साथ ही यह भी कि फिलहाल उनकी आंख एकमात्र 'अमेरिकी हित' पर टिकी हुई है और उन्हें कम से कम अभी तो दुनिया के हितों की चिंता नहीं है. उन्होंने यह भी संदेश दे दिया है कि वह एक अपरंपरागत किस्म के राजनेता हैं, इसलिए वह कब क्या कह देंगे, कर देंगे, अनुमान लगाना राजनीतिक विशेषज्ञों के बस की बात नहीं है. इसलिए अभी तो यही मानकर चला जा रहा है कि 'कुछ भी हो सकता है...'

राष्ट्रपति बनते ही डोनाल्ड ट्रंप ने जहां ताइवान के राष्ट्रपति से फोन पर बात कर चीन को चिढ़ा दिया, वहीं वह शुरू से रूस से दोस्ताना संबंधों की बात करते रहें है. ट्रंप का यह कदम चीन की स्थापित 'वन चाइना पॉलिसी' को दी गई चुनौती थी. वैसे भी पहले ही दक्षिण चीन सागर के मामले को लेकर दोनों के बीच कम तनाव नहीं था. अब यदि 'बाई अमेरिकन हायर अमेरिकन' की नीति के तहत ट्रंप ने अमेरिका के बाज़ार में चीन के लिए कठिनाई खड़ी की तो फिर दोनों बिल्कुल ही आमने-सामने आ जाएंगे, जिससे विश्व-टकराव की ऐसी स्थिति निर्मित हो सकती है, जो द्वितीय विश्वयुद्ध तथा शीत युद्ध का मिला-जुला रूप होगी.

डोनाल्ड ट्रंप मूलतः व्यवसायी हैं. यानी वह नफा-नुकसान की गणना में माहिर हैं. इसलिए यदि वह सोचते हैं कि अकेला अमेरिका ही क्यों नाटो तथा यूएनओ जैसे संगठनों का लगभग 20-20 प्रतिशत खर्च उठाए, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं. ब्रेक्ज़िट का समर्थन कर एक प्रकार से उन्होंने यूरोपीय संघ जैसे संगठनों की निरर्थकता के प्रति अपनी राय ज़ाहिर कर ही दी है. इसके कारण न केवल नाटो और यूरोप, बल्कि पूरी दुनिया में एक प्रकार की बेचैनी फैल गई है.

ऐसी स्थिति में विश्व राजनीति का उभरता हुआ जो नया समीकरण दिखाई दे रहा है, वह यह कि अमेरिका दुनिया के मामलों से खुद को अलग करता जाएगा. इससे जो स्थान रिक्त होगा, उसे भरने के लिए चीन तेजी के साथ आगे आएगा. वैसे भी चीन बीच-बीच में इस तरह के संकेत देता रहा है. यहां ध्यान देने की बात यह है कि सन 1990 में विश्व-व्यापार में जिस चीन की भागीदारी मात्र पांच प्रतिशत के आसपास थी, उसने आज 18 फीसदी पर पहुंचकर अमेरिका को पछाड़ दिया है. दुनिया इस संभावित बदलाव से खुश दिखाई नहीं दे रही है, लेकिन वह कुछ कर सकने की स्थिति में भी नहीं है.

निश्चित तौर पर चीन का इस तरह उभरना भारत के सामने चौतरफा चुनौतियां पेश करेगा. यह चुनौती विश्व-बाज़ार पर प्रभुत्व की चुनौती से कहीं अधिक पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों द्वारा प्रायोजित आतंकवाद से उत्पन्न राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौती होगी. हालांकि एक अच्छी संभावना यह भी दिखाई दे रही है कि अमेरिका द्वारा इस्लामिक स्टेट के आंतकवादियों के विरुद्ध उठाए गए ठोस कदमों से पूरी दुनिया आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट हो सकती है. ऐसी स्थिति में चीन को अपनी पाकिस्तान नीति में थोड़ा बदलाव लाना पड़ सकता है, लेकिन आर्थिक कॉरिडोर के उसके हित उसे पाकिस्तान पर अधिक दबाव डालने से रोकते रहेंगे.

इस प्रकार हो सकता है, एशिया महाद्वीप विश्व-विवाद एवं संघर्षों का केंद्र बन जाए...

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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