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This Article is From Jun 18, 2019

सामंती घोड़ों पर सवार हमारे लोकतंत्री नवाब

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 18, 2019 16:42 pm IST
    • Published On जून 18, 2019 16:42 pm IST
    • Last Updated On जून 18, 2019 16:42 pm IST

केंद्र में उपप्रधानमंत्री तथा राज्यों में एक-एक उपमुख्यमंत्री के बारे में तो हम लोग सुनते आए थे, लेकिन एक राज्य में पांच उपमुख्यमंत्री- यह आंध्र प्रदेश ने हमें पहली बार दिखाया है. और ऐसा तब है, जब इस पदनाम के रूप में न उनके पास कोई अतिरिक्त अधिकार होंगे, न किसी तरह की भी कोई विशेष सुविधा, तो फिर ऐसा क्यों है...? केंद्र में नए मंत्रिपरिषद के सदस्यों ने अपने-अपने पदभार ग्रहण किए. दूरदर्शन पर आए इस समाचार के विज़ुअल्स को आप याद करें. मंत्री की कार साउथ या नॉर्थ ब्लॉक के विशाल भवन के सामने आकर रुकती है. वहां मौजूद चार-पांच लोगों का झुंड कार के रुकते ही उस पर झपट पड़ता है. इनमें से कोई एक कार का पिछला दरवाजा खोलता है. मंत्री जी शान से उतरते हैं, और वहां उपस्थित लोगों की परवाह किए बिना भवन में प्रवेश कर जाते हैं.

चुनाव प्रचार के दौरान रोड शो करने की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. यह अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास कराना भर नहीं है, बल्कि उससे कहीं अधिक अपनी उस भावना का प्रदर्शन करना है, जो सत्ताधारियों की चेतना में 'झरोखा दर्शन' के रूप में आज भी फंसी हुई है, अन्यथा रोड शो में तो भाषणबाजी तक की गुंजाइश नहीं होती है.

एक जिला कलेक्टर अपने जिले के वृद्धाश्रम में चले जाते हैं. वहां के वृद्धों से वह अफसरी से थोड़ा नीचे उतरकर मनुष्य के स्तर पर बात कर लेते हैं. इतने भर से वहां के वृद्ध और वृद्धाश्रम धन्य-धन्य हो उठते हैं. और यह घटना बाकायदा टेलीविज़न पर बहस का विषय बन जाती है - नौकरशाही से लोकशाही की ओर - क्या यह ब्रिटिश-सत्तामुक्त भारत के लिए सही विषय है...?

दरअसल, चाहे वह हमारे देश की राजनीति हो अथवा समाज, आज़ादी के इतने सालों के बाद वह आज तक मूलतः सामंतवादी ही बनी हुई है. शक्तिसंपन्न व्यक्ति; चाहे वह गांव का पटवारी ही क्यों न हो, आम लोगों के लिए 'माई-बाप' और 'जी हुज़ूर' ही है. यह दोनों के ही दिमाग में है - कुर्सी पर बैठी हुई खोपड़ी में भी और कुर्सी के चारों ओर ज़मीन पर मजमा लगाई हुई खोपड़ियों में भी. जबकि आज हमारे यहां न कोई राजा है, न सामंत-ज़मींदार.

इस दृष्टि से मुझे यूरोपीय चेतना समझ में नहीं आती. ब्रिटेन में आज भी महारानी हैं. वहां के राजकुमार और राजकुमारियों के किस्से दुनिया के अखबारों में छपते हैं. वहां के लोगों के मन में अपनी महारानी और उनके वंशजों के प्रति प्रेम और सम्मान का भाव भी है. लेकिन वहां के राजनेताओं तथा नौकरशाहों के प्रति लोगों का वह व्यवहार ज़रा-सा भी दिखाई नहीं देता, जो भारत में दिखाई देता है. यूरोप के स्पेन जैसे अन्य देशों की भी स्थिति यही है. यहां तक कि एशिया महाद्वीप के जापान में राजवंश के प्रति गहरी निष्ठा है, जो होनी ही चाहिए. लेकिन राजनीति एवं प्रशासन के प्रति वे उतने भयभीत, उतने लालायित जान नहीं पड़ते. इन्हें वे अपने ही बीच का नागरिक मानते हुए उनके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं, विशिष्ट मानते हुए नहीं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने प्रथम कार्यकाल में लोकचेतना और लोकतंत्र के इस अंदरूनी टकराव को महसूस करते हुए कार में लालबत्तियों के उपयोग को प्रतिबंधित किया था. उन्होंने हवाई अड्डे पर स्वयं को विदा देने वाले राजनेताओं की भीड़ पर भी रोक लगा दी थी, लेकिन उनके ये प्रयास 'सूट-बूट की सरकार' के जुमले के सामने असहाय हो गए.

अब मोदी जी के हाथों फिर एक ऐसा अनोखा मौका आया है, जब वह भारतीय चेतना को सामंतवादी अवशेषों की चुभन से मुक्ति दिला सकते हैं. प्रशासन में की गई 'लेटरल भर्ती' को इस दिशा की यात्रा की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है; भले ही यह कितनी भी छोटी क्यों न हो.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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