अंततः नायक घर लौट आया. खलनायकों ने उसे मारने की बहुत कोशिश की. लेकिन नायक के जीवट के हाथों वे पिट गए. मगर ये गंभीर मसला है. हम कितने हड़बड़ाए हुए समाज हो गए हैं? या फिर यह हड़बड़ाहट भी स्वाभाविक नहीं है? 90 साल के धर्मेंद्र को मीडिया ने मार ही डाला था.
घर-परिवार की झिड़कियों के बाद भी तैयारी चलती रही कि धर्मेंद्र नहीं रहेंगे तो उनके शोक को किस तरह बेचा जाएगा.यह धर्मेंद्र को खो देने के दुख से ज़्यादा बड़ा इस दुख का कारोबार था जिसके लिए मीडिया धर्मेंद्र की फिल्मों से जुड़े नए-पुराने फुटेज जुटाता रहा. वैसे भी इन दिनों मीडिया में त्रासदी तमाशे की तरह चलती है. शोक बिल्कुल शोर के साथ मनाया जाता है- इस प्रतियोगिता के साथ कि सबसे पहले किसने ख़बर दी, किसने सबसे ज़्यादा गाने चलाए, किसने शोक मनाने वालों के मुंह में सबसे तेज़ी से माइक ठूंसा.
संवेदना मरे हुए अक्षरों में बदल गई है- सिकुड़ कर मुश्किल से तीन-चार अक्षरों में काम चलाती हुई. HBD और RIP इस दौर के सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द होते जा रहे हैं. सोशल मीडिया पर खुशी और मातम दोनों इन्हीं दो अक्षर-युग्मों के छोर के बीच टिके रहते हैं. इसके अलावा जो सबसे ज़्यादा नज़र आता है, वह अधैर्य और क्रोध है.
किसी भी घटना पर सबसे तेज़ी से प्रतिक्रिया जताने की हड़बड़ी और किसी भी मामले में सबसे पहले निर्णय सुनाने का उत्साह सोशल मीडिया को बिल्कुल भावनाशून्य मायावी दानव में बदल डालता है. इस दानव का हंसना-रोना-कुछ कहना या चुप रहना सब बाज़ार के इशारों पर होता है. भोले-मासूम लोग समझते हैं कि वे अपना गुस्सा निकाल रहे हैं या अपना फैसला सुना रहे हैं- ये गुस्सा और फ़ैसला दोनों पूर्व निर्धारित होते हैं. यह एक ऐसा तंदूर है जिसमें नई आग पड़ती जाती है, धुआं निकलता जाता है और बाज़ार की रोटियां सिंकती जाती हैं.
रफ़्तार हम सबको बहुत लुभाती है. लेकिन रफ़्तार कोई बहुत अच्छी चीज़ नहीं है. महात्मा गांधी कहते थे कि ज़िंदगी में रफ़्तार से ज़्यादा अहम चीज़ें हैं. आप किसी जंगल से गुज़रें तो जंगल बहुत प्यारा लगता है. पेड़-पौधे, फूल, झरने सब आपका मन मोहते हैं. लेकिन अगर उस जंगल में आप दौड़ना शुरू करें तो वही सब आपको अपना दुश्मन लगने लगेंगे. आप चाहेंगे कि एक-एक पेड़ काट दें, एक-एक लता गुल्म को गिरा दें, पांव रोकने वाली घास ख़त्म कर दें और झरनों को सुखा दें.
धर्मेंद्र पर लौटें. यह सच है कि वे अरसे से बीमार हैं. बीच-बीच में अस्पताल भी जाते रहे हैं. लेकिन यह भी सच है कि इस उम्र में वे फिल्में भी करते रहे हैं. इस साल दिसंबर में भी उनकी एक फिल्म आने वाली है. अमर हममें से कोई नहीं है. हर किसी को कभी न कभी जाना है. लेकिन जीवन की गरिमा इस बात में है कि मृत्यु आए तो उसके सामने कोई गिड़गिड़ाता हड़बड़ाता न दिखे, यह न लगे कि यह जीवन का अपमान है. शेक्सपियर की शोकांतिकाओं के महानायकों की मृत्यु इसलिए नहीं दुखद है कि वे मारे गए, वह इसलिए दुखद है कि इतने बड़े लोग अपनी किसी मामूली कमज़ोरी की वजह से मारे गए.
हिंदी सिनेमा में मृत्यु के दृश्य बहुत सारे हैं- अतिरिक्त भावुकता में डूबे, प्रेमी या प्रेमिका या मां या पिता या दोस्त की गोद में सर रखकर आख़िरी विदाई देने वाले किरदारों के लंबे दृश्य हम सबको याद हैं. 'शोले' में धर्मेंद्र की गोद में दम तोड़ते अमिताभ कई लोगों को अब भी भावुक करते हैं. यही अमिताभ 'आनंद' में कहते हैं- मौत तुम एक कविता हो.
दरअसल, सिनेमा हो, साहित्य हो या कला और संप्रेषण की कोई दूसरी विधा- उसमें मौत पर लगातार विचार दिखता है. कभी हिंदी फिल्मों की तरह स्थूल तो कभी बहुत गंभीर और सूक्ष्म भी. फ़ैज़ का शेर है- 'जिस धज से कोई मक़तल में गया, वह शान सलामत रहती है / यह जान तो आनी-जानी है, इस जान की कोई बात नहीं.'
जर्मन उपन्यासकार मार्कस जुकास के उपन्यास 'बुक थीफ़' में मौत ही सूत्रधार है. वह भी जर्मनी में नाज़ियों द्वारा किए जा रहे नरसंहार को देखकर सिहर जाती है.आज वह मौत आ जाए तो अपना तमाशा बनता देख शर्मिंदा हो जाए.
असल में हमारे समय में न जीवन का सम्मान बचा है, न मौत का. बस बाज़ार का खेल है जिसमें सबकुछ विक्रय योग्य है- खुशी भी और शोक भी. सबकुछ अनुभव किए बिना व्यक्त कर देना है. धर्मेंद्र का शोक मनाने की यही हड़बड़ी थी जो एक तमाशे में बदल गई. धर्मेंद्र अब घर पर हैं, और लंबी उम्र पाएं और स्वस्थ हों तो मीडिया के इस तमाशे पर ठहाका लगाएं- इतनी भर कामना तो हम कर सकते हैं.