ऑपरेशन सिंदूर के बाद इतना तो साफ़ हो चुका है कि भारत के ख़िलाफ़ खड़े रहने में पाकिस्तान के साथ चीन हर मोर्चे पर एक दूसरे का सहयोग करने के लिए तत्पर है. हाल ही में सामने आई एक रिपोर्ट से पता चला है कि पाकिस्तान और चीन अब एक ऐसे प्रस्ताव पर एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य एक नया क्षेत्रीय संगठन बनाना है. गौरतलब है कि ये नया संगठन 1985 में स्थापित दक्षिण एशियाई देशों के संगठन 'सार्क' को समाप्त करके खुद उसकी जगह ले सकता है. हाल ही में चीन के कुनमिंग नगर में पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश के बीच एक त्रिपक्षीय बैठक हुई थी. ऐसा माना जा रहा है कि ये बैठक इसी संगठन को एक ढांचागत व्यवस्था प्रदान करने के लिए रखी गई थी. ऐसे में सवाल उठता है क्या सार्क के विकल्प में चीन और पाकिस्तान द्वारा कोई नया क्षेत्रीय संगठन खड़ा किया जा सकता है ? यदि ऐसा होता है तो कौन से देश इस नई संगठन से जुड़ सकते हैं या जुड़ेंगे? उसमे भारत की क्या भूमिका या चुनौतियां होंगी?
क्षेत्रीय संगठन और सार्क
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से क्षेत्रीय संगठनों की सफलता का रिकॉर्ड मिश्रित रहा है. जहां एक ओर यूरोपीय संघ (ईयू) को क्षेत्रीय संगठनों के लिए एक मानक के रूप में देखा जाता है, वहीं दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन यानी सार्क अपनी स्थापना के कई वर्षों बाद भी प्रभावी रूप से कार्य नहीं कर सका है. सार्क की स्थापना दक्षिण एशियाई देशों के बीच सद्भावना के आधार पर की गई थी, ताकि विश्व के सबसे घनी आबादी वाले, लेकिन सबसे कम एकीकृत क्षेत्रों में से एक में शांति, आर्थिक विकास और समृद्धि सुनिश्चित की जा सके. हालांकि, सार्क का यह उत्साह कभी कार्यरूप में परिणत नहीं हो सका, मुख्यतः क्योंकि इस संगठन का एक सदस्य देश पाकिस्तान कभी भी ऐसा होने नहीं देना चाहता है. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि पाकिस्तान अपनी नीति के तौर पर सीमा-पार आतंकवाद का उपयोग अपने पड़ोसी मुल्कों, विशेष रूप से भारत के ख़िलाफ़ करता रहा है. वह सार्क के मंच को भी दक्षिण एशिया में भारत को अलग-थलग करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है. परिणामस्वरूप भारत को इस संगठन में अपनी कूटनीतिक पूंजी खर्च करने से हतोत्साहित होना पड़ा है.
अतीत में भारत ने सार्क को एक ऐसे संगठन के रूप में विकसित करने के लिए ठोस प्रयास किए हैं जो व्यापार, विकास और सभी सदस्य देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा दे सके, लेकिन भारत का यह प्रयास ज्यादा दूर तक नहीं जा सका. जानकारों का मानना है की वर्तमान एनडीए सरकार, जिस पर सार्क को पुनर्जनन के लिए पर्याप्त प्रयास न करने का आरोप लगता रहा है, शायद कई बार असफल होने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँची है कि भारत के लिए सार्क के बजाए बिम्सटेक जैसे क्षेत्रीय संगठन अधिक प्रासंगिक और लाभदायक हैं. यहां ध्यान रखना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्क को सकारात्मक दिशा में ले जाने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन पाकिस्तान ने हर बार उनको विफल किया है. उन्होंने अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत 2014 में सार्क देशों के नेताओं को अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित करके की थी. उन्होंने काठमांडू में 2014 के सार्क शिखर सम्मेलन में भी सक्रिय रूप से भाग लिया, जहाँ उन्होंने क्षेत्रीय संपर्क पर जोर दिया और सार्क मोटर वाहन समझौते की भी वकालत की, जिसका उद्देश्य सीमा-पार परिवहन को बढ़ाकर आर्थिक और व्यक्तिगत संबंधों को मजबूत करना था. हालांकि, पाकिस्तान द्वारा इस समझौते को समर्थन न देने से सार्क का विकास रुका और इससे भारत का उत्साह भी कम हुआ.

नेपाल की राजधानी काठमांडू में आयोजित सार्क की बैठक में शामिल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य नेता.
इसके साथ-साथ 2014 में मोदी सरकार ने सार्क उपग्रह का प्रस्ताव रखा, जिसे 2017 में दक्षिण एशिया उपग्रह के रूप में लॉन्च किया गया, जो सार्क देशों (पाकिस्तान को छोड़कर, जिसने इसमें हिस्सा नहीं लिया) को संचार और मौसम संबंधी सेवाएं प्रदान करता है. मार्च 2020 में मोदी ने COVID-19 महामारी से निपटने के लिए एक वर्चुअल सार्क नेताओं की बैठक बुलाई, जिसने सालों की निष्क्रियता के बाद इस मंच का पुनर्जनन किया. उन्होंने सार्क COVID-19 आपातकालीन कोष का प्रस्ताव रखा, जिसमें भारत ने करीब 18 मिलियन डॉलर में से 10 मिलियन डॉलर का योगदान दिया. 2021 में मोदी के नेतृत्व में भारत ने बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और मालदीव जैसे सार्क देशों को अनुदान और वाणिज्यिक सौदों के माध्यम से COVID-19 टीके प्रदान किए. ये उदाहरण दर्शाते हैं कि भारत सार्क को एक मजबूत क्षेत्रीय संगठन बनाने की कोशिश करता रहा है, जो सदस्य देशों के लिए लाभकारी हो, लेकिन उसे पाकिस्तान की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, जो इस मंच का उपयोग भारत के साथ अपने स्कोर सेटल करने के लिए करना चाहता है.
नई नहीं है पाकिस्तान और चीन की चाल
लंबे समय से, सार्क के विकल्प के रूप में एक संगठन विकसित करने की कोशिशें की जा रही हैं. हाल ही में चीन और पाकिस्तान ने सार्क के विकल्प की चर्चा को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. हालाँकि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख प्रोफेसर यूनुस ने सार्क की भावना को पुनर्जीवित करने की बात की है, लेकिन बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने ही ढाका, बीजिंग और इस्लामाबाद के बीच संभावित गठजोड़ की धारणा को यह कहते हुए खारिज कर दिया है कि यह कॉन्फ्रेंस 'राजनीतिक' नहीं थी. वहीं दूसरी ओर भारत ने लगातार सार्क के पुनर्जनन को पाकिस्तान द्वारा सीमा-पार आतंकवाद के समाधान से जोड़ा है. फरवरी 2025 में ओमान में एक शिखर सम्मेलन के दौरान विदेश मंत्री डॉक्टर एस जयशंकर ने बांग्लादेश को सार्क के पुनर्जनन की वकालत करने के लिए यह दावा करते हुए फटकार लगाई थी कि आतंकवाद, जो परोक्ष रूप से पाकिस्तान से जुड़ा है, इसके पुनर्जनन में बाधा डाल रहा है. ऐसे में यदि कोई नया क्षेत्रीय संगठन अस्तित्व में आ भी जाता है तो इस नए संगठन के योजनाकारों को ही यह तय करना होगा कि वे किन देशों को इसमें शामिल करना चाहते हैं. हालांकि यह भी एक तथ्य है कि भारत के पड़ोसी देश जैसे श्रीलंका, भूटान और नेपाल, भारत को पूरी तरह से नाराज़ नहीं करना चाहेंगे. वे उस क्षेत्रीय संगठन में शामिल नहीं होना चाहेंगे जिसमें भारत मौजूद नहीं हो या होना नहीं चाहता. भले ही कुछ देशों के भारत के साथ मुद्दे हो सकते हैं, लेकिन वे दिल्ली द्वारा स्पष्ट रूप से 'भारत-विरोधी' के रूप में देखे जाने से बचना चाहेंगे.
एक बात तो स्पष्ट है कि दक्षिण एशिया के बारे में कोई भी चर्चा, चाहे वह सार्क को पुनर्जनन करने की हो या एक नया संगठन बनाने की, भारत के बिना अधूरी रहेगी. इसके कई ठोस कारण भी हैं. भारत न केवल विश्व की चौथी सबसे बड़ी, बल्कि इस क्षेत्र की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. क्षेत्रफल के लिहाज़ से भी यह क्षेत्र का सबसे बड़ा देश है जो एक मजबूत लोकतंत्र होने के साथ-साथ, दुनिया की चौथी सबसे बड़ी स्थायी सेना और हिंद महासागर में मजबूत उपस्थिति वाली नीली जल नौसेना रखता है. यह भी एक तथ्य है कि सार्क के अधिकांश देश एक-दूसरे के साथ सीमाएं साझा नहीं करते, केवल भारत ही लगभग सभी देशों (पाक-अधिकृत कश्मीर के माध्यम से अफगानिस्तान सहित) के साथ भूमि सीमाएं साझा करता है. इसके अलावा भारत सार्क के संयुक्त जीडीपी का लगभग 80 फीसदी हिस्सा रखता है. भारत सार्क के व्यापार पारिस्थितिकी तंत्र में केंद्रीय है, इसमें बांग्लादेश का लगभग 90 फीसदी क्षेत्रीय व्यापार, नेपाल का 80 फीसदी और श्रीलंका व भूटान का महत्वपूर्ण हिस्सा भारत के साथ होता है. यह भी ध्यान देने योग्य है कि सार्क के भीतर व्यापार केवल 5 फीसदी है, जो अन्य क्षेत्रीय संगठन, जैसे आसियान के 25 फीसदी की तुलना में बहुत कम है. भारत की आबादी सार्क की कुल 1.9 अरब आबादी में से लगभग 1.4 अरब है, जो करीब 75 फीसदी है. नेपाल और भूटान जैसे भू-आबद्ध देशों के लिए भारत अत्यंत आवश्यक है, जो वैश्विक व्यापार के लिए भारतीय बंदरगाहों (जैसे कोलकाता, विशाखापत्तनम) पर निर्भर हैं. जी-20 और क्वाड (QUAD) जैसे मंचों में भारत का वैश्विक प्रभाव इतना बड़ा है कि सार्क के सदस्य इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते.
भारत के बिना दक्षिण एशिया अकल्पनीय!
प्रधानमंत्री मोदी के प्रशासन के तहत भारत ने अपने व्यापक मानवीय सहायता और आपदा राहत (एचएडीआर) रणनीति के माध्यम से पड़ोसी देशों में आपदाओं के लिए प्राथमिक उत्तरदाता के रूप में खुद को स्थापित किया है. 2015 के नेपाल भूकंप के दौरान भारत ने ऑपरेशन मैत्री शुरू किया. इसमें भारतीय वायु सेना और सेना कुछ ही घंटों में राहत, चिकित्सा सहायता और बचाव कार्यों के लिए जुट गई. भारत ने 2014 के जल संकट के दौरान मालदीव को तुरंत पानी की आपूर्ति करके और 2017 की बाढ़ के दौरान श्रीलंका को नौसैनिक जहाजों के माध्यम से आपूर्ति भेजकर वक्त पर सहायता प्रदान की. ये तथ्य इस बात को सिद्ध करते हैं कि भारत के बिना दक्षिण एशिया, दक्षिण एशिया ही नहीं है!
चीन और पाकिस्तान द्वारा प्रस्तावित नए क्षेत्रीय संगठन की अवधारणा केवल एक भू-राजनीतिक कदम है, जिसके माध्यम से चीन न केवल भारत पर दबाव डालना चाहता है, बल्कि भारत के निकट अपनी उपस्थिति को संस्थागत करना चाहता है और उस क्षेत्र में भारत की नेतृत्वकारी भूमिका को नकारना चाहता है जिसे भारत का पिछवाड़ा माना जाता है. यह वही मंशा है जो चीन अपनी स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स रणनीति के माध्यम से पूरी करने की कोशिश कर रहा है. हालांकि, इस क्षेत्र के अधिकांश देश यह महसूस करते हैं कि उनकी संस्कृति, सभ्यता और इतिहास के मामले में भारत के साथ उनकी अधिक समानता है, न कि चीन के साथ. ये देश कभी-कभी भारत से डर सकते हैं, लेकिन भारत के आकार और केंद्रीयता के कारण इसे नजरअंदाज भी नहीं कर सकते. मालदीव इसका एक उदाहरण है. राष्ट्रपति मुइज्जु 'इंडिया आउट' अभियान के साथ सत्ता में आए थे. ऐसी अटकलें थीं कि दोनों देशों के बीच संबंधों को अपूरणीय क्षति होगी. लेकिन न केवल मुइज्जु ने भारत का दौरा किया, बल्कि उन्होंने भारत के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने की आवश्यकता को भी स्वीकार किया. दोनों पक्षों ने द्विपक्षीय संबंधों को एक व्यापक आर्थिक और समुद्री सुरक्षा साझेदारी में बदलने पर सहमति व्यक्त की. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत के पड़ोसी देश इस तथाकथित नए संगठन में शामिल होने के निमंत्रण का उपयोग भारत के खिलाफ उससे सौदेबाजी के रूप में एक हथियार के रूप में कर सकते हैं, ताकि वे भारत के साथ बेहतर सौदा कर सकें.इसके बाद भी वे भारत की संवेदनशीलता को काफी हद तक ध्यान में रखेंगे.
अस्वीकरण: डा पवन चौरसिया,इंडिया फाउंडेशन में रिसर्च फेलों के तौर पर काम करते हैं और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति पर लगातार लिखते रहते हैं. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.
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