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लोकतंत्र का भ्रम: 'जनता का शासन' बनाम 'जनता पर शासन' 

बिजय शंकर झा
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 29, 2025 18:25 pm IST
    • Published On अक्टूबर 29, 2025 18:24 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 29, 2025 18:25 pm IST
लोकतंत्र का भ्रम: 'जनता का शासन' बनाम 'जनता पर शासन' 

बिहार में विधानसभा चुनाव एक बार फिर दस्तक दे रहा है. जनता इस लोकतंत्र के महोत्सव को जोर-शोर से मनाती दिख रही है. चाहे सड़कों पर पोस्टरों की भरमार हो, टीवी पर विज्ञापनों की बौछार हो या फिर सोशल मीडिया पर वाद-विवाद हो यह सब चुनावी लोकतंत्र के इस महापर्व की तरफ इशारा करते हैं. लेकिन सवाल ये है कि क्या यह वास्तव में लोकतंत्र का उत्सव है या लोकतंत्र के नाम पर एक बड़ा भ्रम? क्या यह जनमत का सच्चा प्रतिबिंब है या जनमत को गढ़ने और मोड़ने की संगठित व्यवस्था?

लोकतंत्र को जनता का शासन कहा जाता है. इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण शर्त होती है कि हर नागरिक चुनाव लड़ सकता है, हर कोई शासन व्यवस्था में आ सकता है और अपनी पसंद के प्रतिनिधि को चुन सकता है. लेकिन जब हम आज के समय में इसको गहराई से देखते हैं तो पाते हैं कि यह स्वतंत्रता अब केवल औपचारिकता भर रह गई है. जनता के पास विकल्प तो हैं पर वे विकल्प दिखावटी हैं. राजनीतिक दलों की लंबी सूची और उम्मीदवारों की भीड़ हमें यह भ्रम जरूर देती है कि हमारे पास बहुत सारे विकल्प हैं, लेकिन असलियत में कोई राजनीतिक दल या उम्मीदवार ऐसा नहीं जो सही मायने में मौलिक या संरचनात्मक परिवर्तन ला सके.

'राजनीतिक बाजार' बना चुनाव

आज का चुनाव एक अर्थ में लोकतंत्र नहीं बल्कि 'राजनीतिक बाजार' का परिचायक बन चुका है. इस बाजार में राजनीतिक दल उत्पाद बेचने वाली कंपनियों की तरह हैं और मतदाता ग्राहक की भूमिका में हैं. यहां हर राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र, विज्ञापन और जनसंपर्क अभियान के जरिए खुद को 'बेहतर ब्रांड' के रूप में पेश करती नजर आती है. जैसे बाजार में अधिकांश उत्पाद लगभग समान होते हैं पर इनकी पेकेजिंग और मार्केटिंग उन्हें अलग दिखाती है, वैसे ही राजनीतिक दलों की नीतियां भले ही एक जैसी हों लेकिन उनकी प्रचार शैली उन्हें अलग और नया बताने का प्रायस करती है.

यहां चुनाव का 'अमेरिकीकरण' करने के तहत इसे व्यक्ति-केंद्रित कर दिया जाता है. इसमें जनसंपर्क एजेंसियां, डेटा-एनालिटिक्स, माइक्रो टारगेटिंग और विज्ञापन अभियान लोकतांत्रिक विमर्श की जगह ले चुके हैं. अब जनता नीतियों का नहीं बल्कि चेहरे पे वोट करती है.

बिहार इस लोकतांत्रिक बाजार का एक का जीवंत उदाहरण है. यहां चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का माध्यम नहीं बल्कि सामाजिक विभाजन, जातीय गणित और छवि निर्माण का युद्ध क्षेत्र बन चुका है.  बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार दो प्रमुख गठबंधन एनडीए और महागठबंधन आमने-सामने हैं.

नीतीश कुमार की अगुआई वाला एनडीए गठबंधन इस समय अपनी सबसे बड़ी परीक्षा से गुजर रहा है.

नीतीश कुमार की अगुआई वाला एनडीए गठबंधन इस समय अपनी सबसे बड़ी परीक्षा से गुजर रहा है.

एनडीए की सबसे बड़ी परीक्षा

नीतीश कुमार की अगुआई वाला एनडीए गठबंधन इस समय अपनी सबसे बड़ी परीक्षा से गुजर रहा है. एक समय में सुशासन बाबू के नाम से पहचाने जाने वाले नीतीश कुमार की छवि अब धुंधली हो चुकी है. उनके बार-बार गठबंधन बदलने की प्रवृत्ति और हाल के सालों में उनके असंतुलित सार्वजनिक व्यवहार ने उनकी विश्वसनीयता को कमजोर किया है. नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू का पारंपरिक ‘सोशल इंजीनियरिंग' फार्मूला अब उतना असरदार नहीं रहा और अब वे बीजेपी और एनडीए के अन्य घटक दलों पर ज्यादा निर्भर हो गए हैं. बीजेपी ने भी सम्राट चौधरी के रूप में एक चेहरा प्रस्तुत करने की कोशिश की लेकिन उनके ऊपर पुराने आरोप और डिग्री को लेकर विवाद की वजह से उन्हें पीछे हटना पड़ा.

इस कारण एनडीए के पूरे चुनाव अभियान का प्रमुख केंद्र उनके डेवलपमेंट विजन की जगह आरजेडी के जंगलराज का भय दिखाकर वोट समेटना हो गया है. हालांकि एनडीए की यह रणनीति कितनी कारगर साबित होगी यह अभी कहना मुश्किल है. वहीं दूसरी ओर विपक्षी महागठबंधन विशेषकर राजद अपनी पुरानी छवि से निकलने की कोशिश कर रहा है. तेजस्वी यादव को युवा नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया गया है ताकि अतीत के ‘जंगलराज' का साया उनसे दूर रखा जा सके. हालांकि उनकी घोषणाएं इतनी अव्यवहारिक हैं कि वे जनविश्वास के बजाए संदेह को जन्म देती हैं. हर घर सरकारी नौकरी, फ्री बिजली, सब्सिडाइज्ड गैस सिलेंडर जैसी जनलुभावन घोषणाएं यह दिखाती हैं कि विपक्ष भी मूलभूत बदलाव नहीं बल्कि भावनात्मक संतुष्टि की राजनीति कर रहा है.

जन लुभावन घोषणाओं का बाजार

बिहार के दोनों खेमों एनडीए और महागठबंधन एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप और जन लुभावन घोषणाओं के आधार पर चुनाव लड़ रही है. बिहार की जनता दोनों गुटों को कई बार आजमा चुकी है, लेकिन बिना किसी वैकल्पिक आर्थिक-सामाजिक मॉडल का होने से वह एक ऐसी राजनीतिक चक्र में फंस गई है, जिससे वह निकल नहीं पा रही है. इस स्थिर और जड़ राजनीतिक माहौल में प्रशांत किशोर का ‘जनसुराज आंदोलन' एक नई दिशा देने का दावा करता है. उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी और प्रवासन जैसे बुनियादी मुद्दों को अपने अभियान का केंद्र बनाया है. इतना ही नहीं उन्होंने इन मुद्दों को जनसंवाद और जमीनी संगठन के माध्यम से चुनावी विमर्श में प्रमुख स्थान दिलाने की कोशिश की है. हालांकि प्रशांत किशोर आज एक फेनोमेनन बन चुके हैं. उनका नाम, चेहरा और शैली किसी भी विचारधारा से ज्यादा चर्चा में हैं. इसकी वजह से यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि क्या जनसुराज वास्तव में वैकल्पिक राजनीति का प्रतिनिधित्व कर पाएगा या वह अंततः व्यक्ति केंद्रित आंदोलन बन कर रह जाएगा? 

बिहार चुनाव हमें एक गहरी सच्चाई से अवगत कराता है जिसमें लोकतंत्र का संकट केवल सत्ता परिवर्तन में नहीं, बल्कि राजनीतिक कल्पना की कमी में है. चुनाव अब विचारों की प्रतिस्पर्धा नहीं अपितु छवियों, जातीय समीकरणों और ब्रांडिंग का खेल बन गए हैं. राजनीतिक दल जनता की भावनाओं को भड़काकर और नीतियों की विफलता से उनका ध्यान हटाने की कला में निपुण हो चुके हैं. इस तरह गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषय विमर्श बाहर हो चुके हैं. इस तरह चुनावी राजनीति के नाम पर लोकतंत्र को धीरे-धीरे खोखला किया जा रहा है. संविधान ने जिस 'जनता के शासन' की कल्पना की थी, अब वह 'जनता पर शासन' में बदल चुका है.

महागठबंधन ने राजद नेता तेजस्वी यादव को युवा नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया है, जिससे वह जंगलराज की छवि से बाहर आया जा सके.

महागठबंधन ने राजद नेता तेजस्वी यादव को युवा नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया है, जिससे वह जंगलराज की छवि से बाहर आया जा सके.

जागरूक जनता की जरूरत

लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए जनता का जागरूक होना अनिवार्य है. बिहार जैसे राज्य में, जहां राजनीतिक चेतना का लंबा इतिहास है, वहां यह उम्मीद करना अनुचित नहीं है की लोग एक दिन इस चक्रीय जाल से बाहर निकलेंगे. लेकिन यह तभी संभव है जब जानता अपनी भूमिका केवल 'वोट देने वाले की नहीं' बल्कि 'नीति निर्धारण करने वाले नागरिक' की निभाए. चुनाव का असली उद्देश्य सत्ता में बदलाव नहीं बल्कि व्यवस्था में सुधार होना चाहिए. जब तक यह सोच नहीं बदलेगी तब तक लोकतंत्र एक सुंदर मुखौटा बना रहेगा, जिसमें भीतर से तो वह खोखला होगा परंतु बाहर से एकदम चमकदार.

चुनाव का असली उद्देश्य सत्ता में बदलाव नहीं बल्कि व्यवस्था में सुधार होना चाहिए. जब तक यह सोच नहीं बदलेगी तब तक लोकतंत्र एक सुंदर मुखौटा बना रहेगा, जिसमें भीतर से तो वह खोखला होगा परंतु बाहर से एकदम चमकदार. चुनाव का असली उद्देश्य सत्ता में बदलाव नहीं बल्कि व्यवस्था में सुधार होना चाहिए. जब तक यह सोच नहीं बदलेगी तब तक लोकतंत्र एक सुंदर मुखौटा बना रहेगा, जिसमें भीतर से तो वह खोखला होगा परंतु बाहर से एकदम चमकदार.

डिस्क्लेमर: लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में सहायक प्रोफेसर हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है. 

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