विज्ञापन

सोशल मीडिया: लाइक, कमेंट, फॉलोवर और वायरल वीडियो की लत लोगों को बीमार बना रही है

Arun Kumar Gond & Keyoor Pathak
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 20, 2025 11:11 am IST
    • Published On जुलाई 20, 2025 10:51 am IST
    • Last Updated On जुलाई 20, 2025 11:11 am IST
सोशल मीडिया: लाइक, कमेंट, फॉलोवर और वायरल वीडियो की लत लोगों को बीमार बना रही है

सोचिए, सुबह उठते ही हम सबसे पहले मोबाइल उठाते हैं और रात को उसी के साथ ही सोते हैं; किसकी स्टोरी लगी है, किसका संदेश आया है, किसने क्या पोस्ट किया है, कौन सी नई खबर है. दिनभर हम स्क्रीन से चिपके रहते हैं, जैसे हमारी असली दुनिया वहीं सिमट कर रह गई हो. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस डिजिटल भीड़ में हम अंदर से कितने अकेले होते जा रहे हैं. सोशल मीडिया पर हंसी के पीछे छिपी होती हैं तनाव, अकेलापन, अवसाद और बेचैनी जैसी समस्याएं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की सितंबर 2024 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक किशोरों में सोशल मीडिया उपयोग 2018 के सात फीसद से बढ़कर 2022 में 11 फीसद हो गया है. रिपोर्ट के मुताबिक 12 फीसद किशोरों में गेमिंग लत का खतरा भी पाया गया है. ये आंकड़े 44 देशों के 2.8 लाख बच्चों पर किए गए शोध पर आधारित हैं.रिपोर्ट बताती है कि ये डिजिटल आदतें बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य, नींद और आत्म-सम्मान को नुकसान पहुंचा रही हैं. डब्लूएचओ ने स्वस्थ डिजिटल आदतों को बढ़ावा देने और स्क्रीन टाइम सीमित करने की सिफारिश की है.

देखा जाए तो अब हम सिर्फ जानकारी लेने वाले नहीं रहे, बल्कि खुद अपने जीवन के किस्से, विचार और तस्वीरें दुनिया से साझा करने लगे हैं. एक क्लिक में हम दूर-दराज के लोगों से भी जुड़ने लगे हैं. शुरुआत में तो यह बदलाव काफी अच्छा लगा और लोगों को अपनी बात कहने की आजादी मिली. जो बातें पहले दिल में रह जाती थीं,उन्हें अब सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए लोगों को बताया जा रहा है. रिश्तेदारों से जुड़ाव बना है, पुराने दोस्त भी फिर मिलने लगे हैं और एक तरह का डिजिटल परिवार बनने लगा है. लेकिन धीरे-धीरे जुड़ाव की जगह तुलना ने ली ली है. अब हम यह देखने लगे हैं कि किसके पोस्ट पर कितने लाइक या कमेंट आए,किसका वीडियो वायरल हुआ है और किसे सबसे ज्यादा लोग फॉलो कर रहे हैं.

इस प्रकार सोशल मीडिया का ज्यादा और बिना सोच-समझ के किया गया इस्तेमाल युवाओं में कई तरह की मानसिक समस्याएं पैदा कर रहा है. इनमें प्रमुख है- चिंता, अवसाद, अकेलापन, तनाव, शारीरिक बनावट को लेकर चिंता, कहीं कुछ छूट न जाए और खाने-पीने की गड़बड़ी इत्यादि.

अवसादग्रस्त लोगों को गढ़ता सोशल मीडिया

आजकल हम सब सोशल-मीडिया पर हर रोज ढेरों खुशहाल तस्वीरें, बड़ी उपलब्धियां, महंगी छुट्टियां और खुशहाल पोस्ट देखते हैं. लोग अपने रिश्तों, पहनावे, कैरियर और जीवन की परिपूर्ण झलक सोशल-मीडिया प्लेटफार्म पर साझा करते हैं. लेकिन इन तस्वीरों और पोस्ट्स को देखकर बहुत से लोग भीतर ही भीतर खुद से तुलना करने लगते हैं. यही तुलना धीरे-धीरे चिंता का रूप ले लेती है. जब कोई सोचता है कि मेरी जिंदगी वैसी क्यों नहीं है? या मैं इतना सफल क्यों नहीं हूं?, तो एक अजीब-सी बेचैनी मन में होने लगती है. यह चिंता और हीनभावना सिर्फ निजी जिंदगी तक सीमित नहीं रहती, बल्कि लोग दूसरों की उपलब्धियां देखकर खुद को पीछे महसूस करने लगते हैं. यह निरंतर तुलना मन को दुखी करती है. कई बार इसे विशेषज्ञ फेसबुक डिप्रेशन कहते हैं, एक ऐसी स्थिति जहां सोशल-मीडिया का अत्यधिक उपयोग हमें अंदर से कमजोर करने लगता है.

अवसाद केवल उदासी नहीं है, बल्कि यह एक गहरी भावनात्मक थकान है जो लंबे समय तक हमारे जीवन को प्रभावित करती है. इससे नींद  की समस्या हो जाती है, खाने की आदतें बदलने लगती हैं, मन में खालीपन होने लगता है. शोध बताते हैं कि सोशल-मीडिया का अत्यधिक या असंवेदनशील उपयोग इस स्थिति को और भी गंभीर बना सकता है, खासकर उन लोगों के लिए जो पहले से ही अवसादग्रस्त हैं. बच्चों और किशोरों के लिए यह और भी खतरनाक है, क्योंकि उनका मानसिक विकास अधूरा होता है. वे यह नहीं समझ पाते कि सोशल मीडिया की दुनिया दिखावटी है. कई शोधों ने यह स्पष्ट किया है कि सोशल मीडिया पर सक्रिय किशोरों में डिप्रेशन के लक्षण कहीं अधिक देखने को मिलते हैं. यहां तक कि वयस्कों और बुज़ुर्गों में भी यह प्रवृत्ति सामने आई है. ज्यादा स्क्रॉल करना, दूसरों से तुलना करना और धीरे-धीरे सामाजिक गतिविधियों से कटते जाना. हालांकि हर अध्ययन में सीधा संबंध नहीं दिखता, लेकिन लगातार यह देखा गया है कि सोशल-मीडिया का बढ़ता उपयोग हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर असर डाल रहा है. 

भरे हुए संसार में अकेला होता इंसान

जुड़ाव के इस डिजिटल भ्रम के बीच, बहुत से लोग पहले से कहीं ज्यादा अकेलापन और सामाजिक दूरी महसूस कर रहे हैं. अध्ययन में पाया गया है कि जो लोग सोशल-मीडिया, खासकर फेसबुक पर अधिक समय बिताते हैं, वे अक्सर 'Belonging' यानी जुड़ाव की भावना पाने की कोशिश कर रहे होते हैं. लेकिन विडंबना यह है कि यह जुड़ाव अस्थायी होता है, जितना हम स्क्रॉल करते हैं, उतना ही हम भीतर से खाली महसूस करते हैं. कोरोना महामारी के समय यह भावना और गहरी हो गई थी, जब बाहर की दुनिया ठहर गई थी और सारी हलचल मोबाइल, कंप्यूटर और लैपटॉप के स्क्रीन पर सिमट गई थी. एक ओर कुछ लोग सोशल-मीडिया पर संवाद और जुड़ाव के लिए आते हैं, वहीं दूसरी ओर, कुछ लोग वही संवाद पाकर खुद को पहले से ज्यादा अकेला महसूस करने लगते हैं. 

सोशल-मीडिया का अत्यधिक उपयोग धीरे-धीरे तनाव का एक बड़ा कारण भी बनता जा रहा है. खासकर छात्रों और युवाओं में इसका असर गहराई से देखा गया है. लगातार स्क्रॉल करते रहना, दूसरों की ज़िंदगी से खुद की तुलना करना, और हमेशा ऑनलाइन रहने का दबाव; ये सभी चीजें मानसिक थकान और बेचैनी को जन्म देती हैं. एक लंबे समय तक चले अध्ययन में यह पाया गया कि सोशल-मीडिया का अत्यधिक और समस्याजनक उपयोग नींद में बाधा, जीवन असंतोष, और आत्महत्या जैसे गंभीर विचारों से जुड़ा हो सकता है. इसके विपरीत, जब कुछ प्रतिभागियों ने सोशल-मीडिया से दूरी बनाई या उसे सीमित किया, तो उनकी ज़िंदगी में संतोष, मानसिक शांति और तनाव में कमी साफ देखने को मिली. अध्ययनों से यह साफ है कि जब हम सोशल-मीडिया में इतने डूबते चले जाते हैं, जो हमारी मानसिक ऊर्जा को धीरे-धीरे खत्म करता जाता है. कभी-कभी, थोड़ा रुकना, थोड़ी दूरी बनाना ही हमें फिर से अपने भीतर लौटने का रास्ता दिखाता है.

कहीं कुछ छूट तो नहीं रहा है

सोशल-मीडिया पर हर तरफ सुंदर और फिट दिखने वाली तस्वीरें बिखरी पड़ी हैं. प्लेटफॉर्म पर पोस्ट्स देखकर युवा अपने शरीर को लेकर बेचैन हो उठते हैं. उन्हें लगता है कि जब तक वे परफेक्ट नहीं दिखते, तब तक वे काबिल नहीं हैं. यह सोच धीरे-धीरे शारीरिक छवि की चिंता और खानपान से जुड़ी मानसिक बीमारियों में बदल जाती है. कई लड़कियां और लड़के सोशल-मीडिया पर बार-बार फिल्टर की गई तस्वीरें देखकर खुद को दूसरों से कमतर समझने लगते हैं. वे डाइटिंग, जरूरत से ज्यादा एक्सरसाइज या कभी-कभी भूखे रहने जैसे तरीकों का सहारा लेते हैं. यह काम सिर्फ शरीर का नहीं है, बल्कि आत्म-सम्मान, मानसिक संतुलन और भावनात्मक सुरक्षा का भी है.

डिजिटल युग में एक नई मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति उभर कर सामने आई है, FOMO (Fear of Missing Out), जिसका अर्थ है 'कुछ छूट जाने का डर'. यह वह मानसिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति को यह लगातार चिंता बनी रहती है कि वह किसी महत्वपूर्ण अनुभव, घटना या अवसर से वंचित हो रहा है. सोशल-मीडिया ने इस भावना को पहले से कहीं अधिक तेज और व्यापक बना दिया है. प्लेटफार्म्स पर जब हम बार-बार दूसरों की यात्राएं, पार्टियां, रिश्तों की खुशी, सफलता की घोषणाएं या खास लम्हे देखते हैं, तो हमारे भीतर वंचना और तुलना की भावना जन्म लेती है. यह तुलना अक्सर हीनता का बोध, असंतोष और तनाव का कारण बनती है. किशोरों और युवाओं में सामाजिक स्वीकृति की भावना बेहद प्रबल होती है. जब वे अपने साथियों को सोशल-मीडिया पर मजे करते, सफल होते, या खुश दिखते हुए देखते हैं, तो उनके भीतर यह डर पनपता है कि वे कहीं पीछे तो नहीं छूट रहे हैं. शोधों में यह स्पष्ट हुआ है कि FOMO का सीधा संबंध अवसाद, बेचैनी, नींद में कमी और कम आत्मसम्मान से जुड़ा है. इसकी वजह से सोशल-मीडिया प्लेटफार्म का बार-बार उपयोग, बार-बार नोटिफिकेशन चेक करना और हर अपडेट पर तुरंत प्रतिक्रिया देना जैसी आदतें विकसित होती हैं. यह न केवल मानसिक थकावट को जन्म देता है, बल्कि व्यक्ति की एकाग्रता, कार्यक्षमता और आत्मनियंत्रण पर भी बुरा असर डालती है.

सोशल मीडिया का कितना इस्तेमाल करें

इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में देखें तो सोशल-मीडिया आधुनिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है. यह हमें जोड़ता है, सूचना देता है और अभिव्यक्ति का मंच प्रदान करता है. लेकिन इसकी आभासी चमक के पीछे एक ऐसा 'डार्क साइड' भी है, जो हमारे मानसिक-स्वास्थ्य को गहराई से प्रभावित कर रहा है. ये प्लेटफॉर्म जितना हमें दूसरों से जोड़ते हैं, उतना ही दुखी  भी करते हैं. हर लाइक, हर कमेन्ट, हर स्टोरी और हर फॉलोअर के पीछे हम अपनी खुशी, आत्ममूल्य और सामाजिक मान्यता को खोजने लगते हैं. इसका परिणाम यह होता है कि कई युवा FOMO, डिप्रेशन, अकेलापन और तनाव जैसे मानसिक संकटों से जूझने लगते हैं. शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि सोशल-मीडिया का अत्यधिक और असंवेदनशील उपयोग, खासकर किशोरों और युवाओं में, भावनात्मक असंतुलन, आत्म-संदेह, और शारीरिक असंतोष को जन्म देता है. इसलिए अब जरूरत है डिजिटल सजगता (Digital Mindfulness) की. हमें सोशल-मीडिया का प्रयोग करते समय सीमाएं तय करनी होंगी और यह समझना होगा कि हमारी असली पहचान फॉलोअर्स में नहीं, बल्कि हमारे स्वभाव, संबंधों और अनुभवों में छुपी हुई है. शिक्षा संस्थानों, परिवारों और नीति-निर्माताओं को चाहिए कि वे बच्चों और युवाओं में डिजिटल साक्षरता, भावनात्मक जागरूकता और ऑफलाइन सामाजिक जीवन को प्रोत्साहित करें, ताकि हम एक ऐसा समाज बना सकें जहां सोशल-मीडिया हमारे मानसिक-स्वास्थ्य का दुश्मन नहीं, बल्कि साथी हो.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): केयूर पाठक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. अरुण कुमार गोंड इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र हैं. इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखकों के निजी विचार हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com