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This Article is From Apr 01, 2014

2014 के चुनाव में बनते-बिगड़ते राजनीतिक समीकरण

Sushil Mohapatra
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  • Updated:
    नवंबर 20, 2014 13:26 pm IST
    • Published On अप्रैल 01, 2014 15:04 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 20, 2014 13:26 pm IST

यह लोकसभा चुनाव काफी दिलचस्प होने वाला है। कांग्रेस की कमान राहुल गांधी संभाल रहे हैं तो भारतीय जनता पार्टी की नरेंद्र मोदी। इसके अलावा, बहुत कम समय में अरविंद केजरीवाल ने खुद को साबित किया है। उन्होंने एक ऐसा नया महल खड़ा किया है कि लोग आम आदमी पार्टी को एक विकल्प के रूप में देखने लगे। लेकिन फिलहाल यह सिर्फ दिल्ली और कुछ बड़े शहरों तक सीमित है। असली लड़ाई राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच है। राहुल युवा हैं जिनके पास बहुत तजुर्बा नहीं है। उन्हें गांधी परिवार का सदस्य होने का फायदा मिलता है। जबकि मोदी तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री बन चुके हैं।

राहुल का हाथ खाद्य सुरक्षा और लोकपाल जैसे विधेयक के साथ है। उनके हर भाषण में इससे संबंधित बातें सामने आती हैं। वहीं हर बार गुजरात की गूंज के साथ नरेंद्र मोदी का रंग-बिरंगा भाषण आजकल लोगों को लुभा रहा है। ऐसा लगता है कि मोदी कोई भाषण नहीं दे रहे हैं, बल्कि गुजरात का प्रचार कर रहे हैं। मुझे लगता है कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के पीछे जितनी भाजपा की कामयाबी है, उससे ज्यादा इसके लिए कांग्रेस की विफलता जिम्मेदार है। वह एक अच्छा शासन देने में नाकाम साबित हुई है।

हालांकि पिछले कुछ समय से कांग्रेस अपनी छवि बदलने की कोशिश जरूर कर रही है। लेकिन ऐसा लगता है कि चुनाव से पहले ही वह हार मान चुकी है। कांग्रेस के कुछ सहयोगी भी राजग के साथ जाने लगे हैं। पिछले दस-बारह साल से राजग से दूर रहने वाले रामविलास पासवान फिर से इस गठबंधन में शामिल हो गए। 2002 में गुजरात दंगे के बाद राजग सरकार के मंत्री पद से इस्तीफा देकर मिसाल कायम करने वाले रामविलास पासवान को आज नरेंद्र मोदी 'सेक्युलर' लगने लगे हैं! रामविलास पासवान शायद यह अंदाजा लगा रहे होंगे कि इस बार यूपीए के साथ जाने से कोई फायदा नहीं होने वाला है। अगर वे कम से कम अपनी सीट बचा लेते हैं तो फिर से केंद्र सरकार में मंत्री बन सकते हैं। लेकिन रामविलास पासवान ऐसा सोचने वाले अकेले नहीं हैं। सभी क्षेत्रीय दल अपने फायदे के लिए जुगाड़ बिठाने में लगे हैं। पिछली सरकार में यूपीए को समर्थन देने वाले करुणानिधि को भी मोदी अच्छे लगने लगे हैं। अब ऐसा लग रहा है कि मौका मिलते ही द्रमुक राजग के साथ जा सकता है।

उधर जयललिता खुद को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती हैं। लेकिन उन्हें जिस तीसरे मोर्चे में सबसे कद्दावर राजनीतिक के तौर पर देखा गया, उसके प्रति उनका रवैया अब बदल चुका है। शायद इसलिए कि उन्हें लगता है कि तीसरे मोर्चे में प्रधानमंत्री पद के बहुत सारे उम्मीदवार हैं। अब ममता बनर्जी और मायावती के साथ मिल कर वे फेडरल फ्रंट की तैयारी में हैं। लेकिन मुझे लगता है कि इसका भविष्य भी अच्छा नहीं है। जयललिता मौके के इंतजार में हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि वे पहले भी राजग की सहयोगी रह चुकी हैं। मायावती और मुलायम सिंह यादव हवा के साथ रुख बदलते हैं। उनका असली रंग चुनाव के बाद सामने आता है। जनता दल (एकी) भी चुप नहीं बैठा है। नीतीश कुमार थाली और कटोरा पीट कर कह रहे हैं कि जो बिहार को विशेष राज्य का दरजा देगा, हम उसका समर्थन करेंगे। लेकिन नीतीश के पास और कोई रास्ता नहीं है। वे राजग से अलग हो चुके हैं और यूपीए से उनका कोई गड़जोड़ नहीं बन सका। जो हो, अब तक के अनुभवों के आधार पर यही कहा जा सकता है कि तीसरे मोर्चे का कोई भविष्य नहीं है। अगर कोई चमत्कार होता भी है तो कांग्रेस और भाजपा के बिना तीसरे मोर्चे की सरकार नहीं बन सकती। हालांकि हर चुनाव के पहले इस तरह के मोर्चे की बात शुरू होती है और चुनाव खत्म होते-होते वह हवा में उड़ जाती है।

इन सबके बीच बिहार में लालू प्रसाद यादव भी लालटेन लेकर प्रचार के लिए निकल पड़े हैं। उन्हें लगता है कि पिछले चुनाव में कांग्रेस के साथ नहीं जाकर उन्होंने जो गलती की थी, उसे इस बार नहीं दोहराना है। इसलिए इस बार थोड़ी हां-ना के बाद उन्होंने कांग्रेस का साथ पक्का कर लिया। नवीन पटनायक अपने राज्य में खुश हैं। तीसरा मोर्चा अगर नहीं बना तो भी उन्हें कोई परवाह नहीं। वे किसी भी गठबंधन के साथ नहीं रहे, यही उनके लिए फायदेमंद साबित हुआ है।

क्षेत्रीय दलों का चुनावी समीकरण खड़ा होना हमारे देश में नया नहीं है। ज्यादा से ज्यादा दल चुनाव लड़ना चाहते हैं। 1951 केपहले लोकसभा चुनाव में तिरपन दलों ने चुनाव में हिस्सा लिया था। लेकिन तीस से भी ज्यादा दल अपना खाता तक नहीं खोल पाए। फिर 1957 केचुनाव में मुकाबले में खड़े दलों की तादाद घट कर पंद्रह हो गई। दरअसल, ज्यादातर छोटे दल बड़ी पार्टियों में शामिल हो गए। इतने सालों बाद 2014 में अड़तीस से ज्यादा दलों के अपना उम्मीदवार खड़ा करने की उम्मीद है।भारत की राजनीति में सब कुछ संभव है। छोटे और क्षेत्रीय दल भी बड़ी पार्टियों को चुनौती देते हैं जो लोकतंत्र के लिए अच्छा है। लेकिन जाति और धर्म के नाम पर जिस तरह राजनीति हो रही है, वह हमारे लोकतंत्र के लिए चिंता की बात है।

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