- बिहार के पहले चरण के मतदान में रिकॉर्ड 64.69% मतदान हुआ, जो पिछले चुनाव से लगभग सात प्रतिशत अधिक है.
- महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने इसे बदलाव की इच्छा और नए 36 लाख वोटों के समर्थन से जोड़ा है.
- एनडीए के वरिष्ठ नेता ने वोटिंग बढ़ोतरी को प्रधानमंत्री की कल्याण योजनाओं और सुशासन के प्रति समर्थन बताया है.
लोकतंत्र की यह भूमि एक बार फिर अपने सवालों के साथ खड़ी है. पहले चरण के मतदान के बाद जब ईवीएम में बंद हुए भविष्य के साथ बिहार की रात गुजरी, तो एक ही आंकड़ा गूंज रहा था. रिकॉर्ड 64.69% मतदान. यह उछाल,जो पिछले विधानसभा चुनाव से लगभग 7% अधिक है. सत्ता की गलियों में एक भूचाल ले आया है. दशकों से चला आ रहा राजनीतिक गणित अचानक लड़खड़ाता दिख रहा है. क्या यह उछाल सरकार विरोधी लहर का संकेत है, जो बदलाव की उम्मीद में बूथ तक आई? या फिर सत्ताधारी गठबंधन की विकास योजनाओं पर मोहर लगाने वाला 'प्रो-इन्कम्बेंसी' (सत्ता समर्थक) उत्साह? बंपर वोट के बाद नेताओं के दावे भी बंपर हैं. लेकिन यह पहेली इतनी सीधी नहीं है. इसे समझने के लिए हमें डेटा, जमीनी हकीकत और राजनीतिक रणनीतियों के त्रिकोण को भेदना होगा.
'36 लाख नए वोट सीधे महागठबंधन के पक्ष में गए'
राजनीतिक अखाड़े में शह और मात बढ़े हुए मतदान प्रतिशत को अपनी-अपनी जीत की गारंटी बताने का सिलसिला मतगणना से पहले ही शुरू हो गया है. विपक्ष के युवा नेता और महागठबंधन के चेहरे, तेजस्वी यादव, का दावा बिल्कुल स्पष्ट है. उन्होंने इसे 'बदलाव के पक्ष में जनादेश' बताते हुए कहा, "युवाओं ने, रोजगार की तलाश में भटक रहे लोगों ने, महंगाई से त्रस्त गृहणियों ने वोट किया है. यह वोटिंग प्रतिशत इस बात का प्रमाण है कि बिहार अब 'परिवर्तन' चाहता है." उनका आकलन है कि यह जन-उभार 15 साल के 'थकाऊ शासन' और बेरोजगारी के खिलाफ आया है और यह बढ़े हुए 36 लाख नए वोट सीधे महागठबंधन के पक्ष में गए हैं.
'कोई एंटी-इन्कम्बेंसी नहीं, बल्कि 'प्रो-इन्कम्बेंसी'
वहीं, सत्ताधारी गठबंधन, एनडीए, के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री प्रधान ने इस दावे को सिरे से नकार दिया. उनका तर्क है, "यह कोई एंटी-इन्कम्बेंसी नहीं, बल्कि 'प्रो-इन्कम्बेंसी' है. प्रधानमंत्री की कल्याणकारी योजनाओं, मुफ्त अनाज की सुनिश्चितता और मुख्यमंत्री के सुशासन पर महिलाओं तथा गरीब वर्ग का अटूट विश्वास है." उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि महिला मतदाता, जिन्हें एनडीए अपनी 'सीक्रेट वोटर' मानता है, उन्होंने भारी संख्या में बाहर निकलकर एनडीए को आशीर्वाद दिया है, और सुशासन के कारण ही पहले चरण में हिंसा रहित और शांतिपूर्ण मतदान हुआ है.
प्रशांत किशोर का क्या है दावा
एक्स-फैक्टर की तलाश बिहार के चुनावी इतिहास पर नजर डालें तो, अत्यधिक मतदान हमेशा सत्ता परिवर्तन का सीधा संकेत नहीं रहा है. लेकिन यह एक मजबूत आहट जरूर देता है. पिछली बार के 57.05% के मुकाबले इस बार 64.69% मतदान हुआ है, जो पिछले कई विधानसभा चुनावों के पहले चरण में सबसे अधिक है. यह तथ्य दर्शाता है कि जनता में राजनीतिक उदासीनता नहीं, बल्कि एक प्रबल इच्छा शक्ति है. इस बंपर वोटिंग के पीछे असल में कौन सी ताकत काम कर रही है, इसे लेकर राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर एक नया 'एक्स-फैक्टर' पेश करते हैं. उन्होंने दावा किया है कि, "यह वोट न तो एनडीए को मिला है, न ही महागठबंधन को. यह वोट बदलाव के लिए है और सबसे बड़ा फैक्टर है प्रवासी मजदूर." किशोर के अनुसार, बड़ी संख्या में बाहर से लौटे, काम की तलाश में भटक रहे और राज्य की खस्ताहाल व्यवस्था से नाराज युवाओं ने पहली बार अपनी मुखरता और नाराजगी दर्ज कराई है. यह वर्ग जाति या धर्म की पारंपरिक राजनीति से ऊपर उठकर 'विकास' और 'रोज़गार' के नाम पर वोट दे रहा है, और यह वोट निर्णायक साबित होगा.
राजनीतिक विश्लेषक क्या कह रहे हैं?
महिला बनाम युवा मगध क्षेत्र के एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक, प्रोफेसर रमेश चंद्र, इस पूरे घटनाक्रम को सामाजिक-आर्थिक कोण से देखते हैं. वह कहते हैं, "ग्रामीण क्षेत्रों में खासकर दलित और अति पिछड़ा वर्ग की महिलाओं ने जिस उत्साह से वोट डाला है, वह सिर्फ़ जाति या मुफ्त अनाज तक सीमित नहीं है. वह अपने बच्चों के भविष्य और रोजमर्रा के जीवन में बदलाव की एक आकांक्षा है." वह बताते हैं कि इस बंपर वोटिंग का सबसे बड़ा द्वंद्व युवा बेरोज़गारी और महिला सशक्तिकरण के बीच है. एक तरफ महागठबंधन दस लाख नौकरियों के वादे से युवा बेरोजगारों को साध रहा है, तो दूसरी तरफ एनडीए 'जीविका दीदियों' के विशाल नेटवर्क और उन्हें दिए गए सामाजिक सम्मान को भुनाना चाहता है.
'साइलेंट किलर' फैक्टर... जो किसी भी गठबंधन का गणित पलट सकता
राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी के अनुसार, ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में जबरदस्त उछाल दर्ज हुआ है, जबकि पटना जैसे शहरी क्षेत्रों में वोटिंग कम रही. यह पैटर्न साफ बताता है कि इस चुनाव में किसान, मजदूर और गांव की महिलाएं सबसे मुखर मतदाता बनकर उभरे हैं, और यही वह 'साइलेंट किलर' फैक्टर है जो किसी भी गठबंधन का गणित पलट सकता है.
किसकी जीत, किसका संदेश? बंपर वोट के बाद नेताओं के दावे भले ही आसमान छू रहे हों, लेकिन लोकतंत्र का संदेश अक्सर दावों से कहीं अधिक गहरा होता है. बिहार की जनता ने अपना काम कर दिया है. उन्होंने अपने हिस्से का इतिहास ईवीएम में बंद कर दिया है. सवाल अब सत्ता और विपक्ष का नहीं, बल्कि बिहार के भविष्य का है. क्या यह वोटिंग प्रतिशत एक स्थिर, सक्षम सरकार देगी जो राज्य के विकराल सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों,बेरोज़गारी, पलायन और स्वास्थ्य सुविधाओं,का सामना कर सके? यह मत पूछिए कि यह वोट किसे मिला. पूछिए, इस बार यह वोट किस उम्मीद पर पड़ा है? जनता ने अपनी आवाज़ तेज़ कर दी है, अब देखना यह है कि 14 नवंबर को जब ईवीएम का ताला खुलेगा, तो यह 'रिकॉर्ड' आवाज़ किस दल के लिए सत्ता का गलियारा खोलती है. बिहार की चुनावी कहानी में अभी क्लाइमेक्स बाकी है, क्योंकि लोकतंत्र में अंतिम फैसला हमेशा जनता का होता है.
श्रेष्ठा नारायण की रिपोर्ट
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