
- ओवैसी की सीमांचल न्याय-यात्रा का समापन हो गया. 9 विधानसभा क्षेत्रों के दर्जन भर स्थानों में सभाएं की.
- ओवैसी आम लोगों से मुखातिब होते हैं तो उनके तेवर आक्रामक होते हैं, जो खासकर युवाओं को खूब पसंद आते हैं.
- AIMIM ने 2020 के चुनाव में सीमांचल की 5 सीटें जीती थीं और इस बार अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने का इरादा जताया है.
बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (All India Majlis-e-Ittehadul Muslimeen) प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी भी प्रदेश में सक्रिय हो गए हैं. शु्क्रवार को पूर्णिया के बायसी विधानसभा क्षेत्र के बेलगच्छी में ओवैसी ने जनसभा की. इसमें पहुंचे स्थानीय युवक मोहम्मद रकीबुल कहते हैं, "हम अब तक इस्तेमाल होते रहे हैं. बैरिस्टर साहब(ओवैसी) हमारे सच्चे रहनुमा हैं. वे सीमांचल की बदहाली और गरीबी की बात करते हैं, पलायन दूर करने की बात करते हैं. हम 18 फीसदी हैं, हमें रहनुमाई का मौका मिलना चाहिए. हमें ओवैसी साहब जैसा हिम्मत वाला और हमारी हक-हकूक की बात करने वाला नेता चाहिए.'
जनसैलाब का आलम, उम्मीदों से लबरेज युवा तो कहीं गुरबत के कारण उम्र से अधिक दिखते बुजुर्ग चेहरे. किशनगंज से कटिहार तक ओवैसी की जनसभाओं में करीब -करीब एक जैसा मंजर देखने को मिलता है. ओवैसी जब आक्रामक तरीके से सीमांचल के साथ हुई नाइंसाफी की बात करते हैं या फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तेजस्वी यादव पर निशाना साधते हैं तो खूब तालियां भी बजती है.

ऐसे में क्या यह माना जाए कि सचमुच ओवैसी आज भी सीमांचल में साल 2020 की तरह ही लोकप्रिय हैं. अगर ऐसा है तो फिर क्या एआईएमआईएम 2020 की तरह ही तेजस्वी के मंसूबों पर पानी फेरने में कामयाब हो जाएंगे? अगर इसका जवाब भी हां है तो सवाल है कि आखिर क्यों महागठबंधन, एआईएमआईएम को गले लगाने को तैयार नहीं है. हालांकि यह कहना गलत नहीं होगा कि ओवैसी अपनी चार दिवसीय सीमांचल यात्रा में दूरगामी राजनीतिक प्रभाव छोड़ गए हैं और अगर इस तरह ओवैसी का 'टशन' बना रहा तो वे बिहार विधानसभा चुनाव में गेमचेंजर साबित हो सकते हैं.
चार दिन, 09 विधानसभा क्षेत्र और सियासी जंग
ओवैसी की चार दिवसीय सीमांचल न्याय-यात्रा का शनिवार को समापन हो गया. किशनगंज से शुरू हुआ यह कारवां कटिहार के बलिरामपुर में समाप्त हुआ. इस दौरान उन्होंने 9 विधानसभा क्षेत्रों के एक दर्जन से अधिक स्थानों में नुक्कड़-सभा का आयोजन किया. इन सभाओं में उनका संदेश साफ था कि वे इस बार सीमांचल की 24 में से अधिक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. इसका ठीकरा भी ओवैसी तेजस्वी यादव पर फोड़ते हैं और कहते हैं, "हम सेक्युलर वोटों का बंटवारा नहीं चाहते हैं, लेकिन कथित सेक्युलरवादी पार्टियों ने हमारे प्रस्ताव को खारिज कर दिया. हम जीतने के लिए चुनाव लड़ेंगे. सियासत में मुहब्बत नहीं होती है." अहम है कि ओवैसी ने उन्हीं विधानसभा क्षेत्रों का दौरा किया, जहां मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक या निर्णायक है. जाहिर है एआईएमआईएम को बखूबी पता है कि किस तरह से स्ट्राइक-रेट बेहतर बनाया जा सकता है.

आक्रामक तेवर, स्थानीय मुद्दे की बात
असदुद्दीन ओवैसी जब आमलोगों से मुखातिब होते हैं तो उनका अपना 'टशन' होता है. उनके तेवर आक्रामक होते हैं, जो खासकर युवाओं को खूब पसंद आते हैं. वे जब आरोप लगाते हैं कि सियासत के रहनुमाओं ने आजादी के बाद केवल आपको वोट-बैंक के रूप में इस्तेमाल किया है, आपके साथ इंसाफ नहीं किया है तो यह बातें उनके दिलों में सीधे उतरती है. गरीबी, बदहाली, पलायन और बाढ़ जैसे स्थानीय मुद्दे की बातें भी लोगों को अपील करती है तो दूसरी ओर वे जब कहते हैं कि 'घुसपैठ का मुद्दा सीमांचल के लोगों को बदनाम करने की साजिश है' तो मानसिक रूप से उहापोह के दौर से गुजर रहे लोगों के लिए यह मरहम का भी काम करता है. वे अपने 'कौम' की बात तो करते ही हैं, लेकिन दल के चार बागी हुए विधायकों को भी निशाने पर लेते हुए कहते हैं कि जो कौम और मिल्लत से वफादारी नहीं करते हैं, वे गद्दार कहलाते हैं'. लब्बोलुआब यह कि बैरिस्टर साहब के पास सीमांचल के सभी तबके की समस्याओं के समाधान के लिए अलग-अलग दलीलें है.
AIMIM के लिए मुफीद सीमांचल का समीकरण
ओवैसी को बखूबी पता है कि सीमांचल की डेमोग्राफी उनकी राजनीतिक सफलता के लिए मुफीद साबित हो सकती है. यहां की कुल 24 विधानसभा सीटों में से 12 सीटें ऐसी हैं, जहां अल्पसंख्यकों की आबादी 50 फीसदी से अधिक है. किशनगंज में अल्पसंख्यकों की आबादी 68 फीसदी, कटिहार में 45 फीसदी, अररिया में 43 फीसदी और पूर्णिया में 39 फीसदी है. वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम को इस इलाके में 05 सीटें मिली थी जबकि 03 सीटों पर वह दूसरे स्थान पर रही थी. दूसरे गठबंधनों की बात करें तो एनडीए के खाते में कुल 12 सीटें गई थीं और महागठबंधन को महज 05 सीटों से संतोष करना पड़ा था.
जाहिर है कि यह इलाका एनडीए के लिए भी उपजाऊ-इलाका रहा है. यह अलग बात है कि जब भी वोटों का ध्रुवीकरण होता है तो उसका फायदा एनडीए को ही होता है. राजनीतिक जानकार बताते हैं कि ओवैसी जब भी चुनाव में आक्रामक तरीके से अपनी बातें रखते हैं तो वोटों का ध्रुवीकरण होता है और जिसका लाभ एनडीए को मिलता है. यही वजह है कि राजद और कांग्रेस एआईएमआईएम को भाजपा की बी-टीम बताती रही है.

बढ़ सकती है महागठबंधन की मुश्किलें
सीमांचल न्याय यात्रा में जिस तरह ओवैसी की सभाओं में भीड़ उमड़ती रही है, उससे एआईएमआईएम के हौसले बुलंद हैं तो दूसरी ओर एनडीए और महागठबंधन खेमे में अंदरखाने बेचैनी है. हालांकि भीड़ हमेशा वोट की गारंटी नहीं होती है. अल्पसंख्यक वोट के बारे में कहा जाता है कि वह उसी के खाते में जाता है जो भाजपा को हराने की स्थिति में होता है. वर्ष 2020 से वर्ष 2025 की तुलना करें तो वक्फ बिल, एसआईआर और घुसपैठ मुद्दे के बाद परिस्थितियां कुछ बदली हुई नजर आ रही हैं.
राजनीतिक गलियारे में यह भी चर्चा है कि वर्ष 2020 की तरह ओवैसी फिर बसपा और अन्य कुछ दलों के साथ मिलकर ग्रैंड डेमोक्रेटिक अलायंस फ्रंट भी बना सकते हैं जो एआईएमआईएम को मजबूती ही प्रदान करेगा. ऐसे में महागठंबधन की मुश्किलें बढ़ना तय है. पूर्व की सफलता को एआईएमआईएम दुहरा सके इसलिए ओवैसी अपने समर्थकों पर मनोवैज्ञानिक दवाब बनाने के लिए कहते हैं, "हम गैरों की चौखट पर जाकर भीख नही मांगेंगे. आपके पास इतनी ताकत है कि आप अपने वोट से एआईएमआईएम को फिर से सफल बना सकते हैं."
क्यों गले नहीं लगाना चाहता है महागठबंधन?
साल 2020 में महागठबंधन के कुल वोट पूरे राज्य में एनडीए से केवल 12 हजार कम थे. यही वजह रही कि महागठबंधन सरकार बनाने से दो कदम दूर रह गया था, जिस तरह से एआईएमआईएम की सभा में भीड़ देखी जा रही है, क्या उससे राहुल गांधी और तेजस्वी यादव अनभिज्ञ हैं. निश्चित रूप से यह बात बेमानी है, तो क्या माना जाए कि यह अनदेखी रणनीति का हिस्सा है. राहुल और तेजस्वी की भी पैनी नजर सीमांचल पर है और उन्हें बखूबी पता है कि एआईएमआईएम की वजह से उन्हें कितना नुकसान हो सकता है.
दरअसल, महागठबंधन इसलिए एआईएमआईएम को गले नहीं लगाना चाहती है कि अल्पसंख्यक वोट -बैंक का कोई तीसरा 'स्टेकहोल्डर' पैदा नहीं हो जाए और अगर एक बार हिस्सेदारी मिल गई तो फिर सत्ता की राह में एक बड़ा रोड़ा पैदा हो सकता है.
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