- बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार नीतीश कुमार की बड़ी अग्निपरीक्षा होने वाली है
- बिहार में इस बार दो चरणों में चुनाव होंगे, तेजस्वी और प्रशांत ने राज्य में भ्रष्टाचार का मुद्दा जमकर उठाया है
- बिहार चुनाव में नीतीश के लिए महिला वोटर एक बार फिर से एक्स फैक्टर साबित हो सकती हैं
चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनावों के तारीखों की औपचारिक घोषणा कर दी है- 121 सीटों पर पहला चरण उत्तर बिहार में तो 122 सीटों पर दूसरा चरण दक्षिण बिहार में होना है. पहला चरण का चुनाव छह नवंबर को होगा, जो बिहार के महापर्व छठ के करीब एक हफ्ते बाद है. इस महापर्व के दौरान देश भर में रहने वाले बिहारवासी अपने अपने घर सालाना छुट्टी लेकर पहुंचते हैं. बिहार चुनाव का दूसरा दौर 11 नवंबर को है और मतगणना देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिवस 14 नवंबर के दिन होनी है.
चुनाव प्रचार के लिए केवल एक महीने का वक्त बचा है, तो चुनावी बयार किस ओर बह रही है? बिहार चुनाव में मुख्य मुद्दे क्या हैं जो 14 नवंबर को नतीजे निर्धारित करेंगे?
बिहार की राजनीति के बदलते परिदृष्य में आगामी 2025 बिहार विधानसभा चुनाव का नतीजा न केवल राज्य के लिए एक निर्णायक पल होगा बल्कि भारतीय लोकतंत्र पर भी यह व्यापक असर डालेगा. बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व के दो दशकों से भी अधिक समय के दरम्यान अवसरों के साथ ही चुनौतियां भी देखी गई हैं, और इन चुनौतियों ने चुनाव को प्रभावित करने वाले कारकों को जन्म दिया है, जो राज्य के चुनावी दिशा को आकार देगा. हम यहां उन सात कारणों को बता रहे हैं जो उस बिहार के नब्ज को टटोलने में अहम कारक साबित होंगे जहां इतिहास की गूंज है, युवाओं का चित्कार है और महिलाओं की धीमी आवाज एक गहन नजरिया पेश करती हैं.
वो 10 चीजें जो बिहार के विधानसभा चुनावों में होंगी पहली बार, जानें
1. बेरोजगारी: शांत तूफान
चुनावी तूफान के केंद्र में बेरोजगारी का मुद्दा है. 20 सालों तक सत्ता में रहने के बाद, एनडीए सरकार अब अभूतपूर्व सत्ता-विरोधी लहर का सामना कर रही है तो इसकी मूल वजह रोज़गार के अवसरों की कमी का होना है. हालांकि, नीति आयोग के मुताबिक बिहार में बेरोजगारी की आधिकारिक दर 2022-23 में 3.9% थी (भारत में औसत 3.2% था), तो यह देखते हुए कि बिहार मुख्य रूप से कृषि और गांवों पर आधारित प्रदेश है (2011 की जनगणना के अनुसार केवल 11 प्रतिशत शहरी है), यहां बेरोजगारी बहुत अधिक है. यही कारण है कि कभी बिहार के भविष्य के निर्माता आज के युवा अब निराश हैं, उनके सपने रोजगार को लेकर सरकार की निष्क्रियता की वजह से दम तोड़ रहे हैं. उनके असंतोष की यह खामोश लहर चुनावी माहौल में हर जगह महसूस की जा सकती है, जो मतदाताओं को नीतीश कुमार के लंबे शासन की बुनियाद पर ही सवाल उठाने के लिए मजबूर कर रही है. सत्ता विरोधी रुझान मुख्य रूप से बेरोजगार युवाओं की वजह से है जो बड़े पैमाने पर अलग-थलग पड़ चुके हैं. और यही युवा सरकार के सत्ता विरोधी लहर का नेतृत्व कर रहे राहुल गांधी, तेजस्वी यादव और प्रशांत किशोर का मुख्य आधार हैं.
2. भ्रष्टाचार: सत्ता के गलियारे में घोटालों की छाया
भ्रष्टाचार वो काली छाया बन गई है जो सत्ता के गलियारे को डरा रही है. खास कर शराब और रेत माफियाओं के गलत कामों के आरोपों की तेज होती आवाजें एनडीए के राजनेताओं और अधिकारियों की तरफ बढ़ रही हैं. प्रशांत किशोर अपने जनसुराज पार्टी के साथ एक मुखर आलोचक के रूप में उभरे हैं और उन्होंने उपमुख्यमंत्री और अन्य राजनेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए हैं. उस युग में जहां पारदर्शिता की मांग होती है, भ्रष्टाचार की छाया बहुत गहरी हो गई है, और यह सत्ताधारी गठबंधन की विश्वसनीयता को और कमजोर कर रही है.
3. राज्य से बाहर जा रहे युवाः उम्मीदों का पलायन
बिहार के युवाओं का पलायन राज्य की समस्याओं का एक दुखद संकेत है. जब कोई युवा बेहतर पढ़ाई या नौकरी की तलाश में बाहर जा रहा हो तो यह स्थानीय व्यवस्था की कमजोरी बताता है. यह पलायन न केवल राज्य की क्षमताओं को कमतर बताता है, बल्कि राजनेताओं से मतदाताओं को दूर भी कर देता है, क्योंकि बहुत से युवा जो पहले समृद्ध बिहार के सपने संजोए थे अब अपना भविष्य राज्य से बाहर कहीं और बना रहे हैं.
4. SIR: चुनावी एकजुटता का आह्वान
चुनाव आयोग की स्पेशल इंटेंसिव रिव्यू (एसआईआर) राज्य में चर्चा का मुख्य बिंदु बन गया है, राहुल गांधी और तेजस्वी यादव जैसे नेताओं ने इसे बड़े पैमाने पर उठाया है. 16 दिवसीय वोट अधिकार रैली में में ‘वोट चोरी' के खिलाफ नारा लगाकर उन्होंने चुनावी ईमानदारी के प्रति अपनी चिताएं जाहिर की हैं. उनकी यह चिंता मतदाताओं के बीच भी बहुत गहरी दिखती है क्योंकि जब लोकतंत्र ही खुद सवालों के घेरे में हो तब चुनावी प्रक्रिया में विश्वास करना ही सबसे अधिक जरूरी होता है.
5. शिक्षा की क्वालिटी- राज्य की बड़ी दुविधा
वैसे तो शिक्षा के बुनियादी ढांचे का विस्तार तो हुआ है, पर उसकी क्वालिटी अब भी एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है. स्कूलों, कॉलेजों की बढ़ती संख्या क्षिक्षा के स्तर में सुधार नहीं ला सकी है, बल्कि आज बिहार एक ऐसे चौराहे पर दिख रहा है जहां क्वालिटी पर क्वांटिटी यानी शिक्षण संस्थानों की संख्या भारी है. परीक्षा पेपर्स का लीक होना और खुलेआम नकल की नियमित खबरें इन घोटालों के पैमाने को दर्शाता है. शिक्षा व्यवस्था की विफलता ने युवाओं के असंतोष को बढ़ाया है और यह राजनीतिक लामबंदी का एक मजबूत जमीन बन गया है, क्योंकि उम्मीदवार शिक्षा में विश्वास बहाल करने की चुनौती से जूझ रहे हैं. प्रशांत किशोर का मुख्य एजेंडा शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करना और बिहार के हर जिले में नेतरहाट (झारखंड में रांची के पास एक अनोखा आवासीय विद्यालय) जैसा स्कूल बनाना है. उनकी ये बात युवा, शिक्षित शहरी बिहारियों के बीच बहुत लोकप्रिय हो रही है, और यही कारण है कि उन लोगों के बीच प्रशांत किशोर की लोकप्रियता बढ़ रही है.
6. महिला मतदाताः अदृश्य ताकत
इस जटिल ताने-बाने में, महिला मतदाता एक निर्णायक शक्ति के रूप में उभरी हैं. नीतीश कुमार की सार्वजनिक नीतियों— शराबबंदी से लेकर महिलाओं के लिए डायरेक्ट फाइनैंशियल ट्रांसफर तक— को महिला मतदाताओं का बहुत अच्छा खासा समर्थन मिला. एनडीए के पक्ष में यह समर्थन युवाओं में मौजूद सत्ता-विरोधी भावनाओं को संतुलित करने का काम करता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल ही में एलान किया कि 75 लाख महिलाओं को 10,000 रुपये की राशि हस्तांतरित की जाएगी, इसे मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में प्रचारित ‘लाडली बहना' और ‘लड़की बहिन' जैसी योजनाओं की तरह ही बिहार की राजनीति में गेमचेंजर माना जा रहा है. यह आधी आबादी और राजनीति के बीच आपसी संबंध की सूक्ष्म गतिशीलता को दर्शाती है, जहां महिलाओं के वोट पीढ़ियों के अंतर को पाटते हुए शायद चुनावी नतीजों को बहुत हद तक निर्धारित कर सकते हैं.
7. घुसपैठिया एजेंडाः ध्रुवीकरण की रणनीति
बीजेपी ने घुसपैठिया नैरेटिव पर लोगों का ध्यान खींचा है जो यहां के समुदायों के ध्रुवीकरण में एक विवादास्पद हथियार के रूप में काम करता है. राज्य से पलायन के बहस को धार्मिक चश्मे से देखने और लोगों के सामने उसी रूप में पेश करके बीजेपी हिंदू मतदाताओं को लामबद्ध करना चाहती है. जोखिम से भरी यह रणनीति अलग-अलग जातियों में बंटे हिंदू समाज को एकजुट करने की एक सोची समझी कोशिश को दर्शाता है.
अंत में, बिहार के सार्वजनिक अस्पतालों में गिरते स्वास्थ्य मानक, मिथिलांचल और सीमांचल के उत्तरी क्षेत्रों में बढ़ती गरीबी, जाति, वर्ग और शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच बढ़ती असमानता ऐसी कई समस्याएं हैं जो जनता में नाराजगी पैदा कर रही हैं. यदि एनडीए इन मुद्दों पर चुनावी प्रचार के दौरान ध्यान नहीं देता तो ये शिकायतें विरोधी लहर को और बढ़ावा देने का कारण बन सकती हैं. कुल मिलाकर, बिहार विधानसभा चुनाव 2025 एक महत्वपूर्ण और देखने वाली तस्वीर पेश करेगी, जो राज्य की आकांक्षाओं, शिकायतों और सामाजिक बदलावों का प्रतिबिंब होगी. जैसे-जैसे मतदाता इन सात महत्वपूर्ण कारकों पर विचार करेंगे, इन्हें समझेंगे, उनका फैसला न केवल बिहार के भविष्य को आकार देगा, बल्कि यह राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर एक सूक्ष्म दर्पण भी साबित होगा. प्रजातंत्र की इस पावन भूमि पर, जहां अतीत और वर्तमान में गहरा जुड़ाव है, चुनावी मतपत्र पर दिए गए फैसले, राज्य की राजनीति से कहीं आगे जा कर भारतीय लोकतंत्र के दिल में गूंजेंगी.
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