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This Article is From Sep 06, 2016

पीएम मोदी के राज्‍य गुजरात में 10 हजार से कम वेतन पर नौकरी को मजबूर कांट्रेक्‍ट कर्मचारी..

पीएम मोदी के राज्‍य गुजरात में 10 हजार से कम वेतन पर नौकरी को मजबूर कांट्रेक्‍ट कर्मचारी..
प्रतीकात्‍मक फोटो
  • मोदी के सीएम रहते ही लागू की गई थी फिक्स तनख्वाह नीति
  • वेतन में वृद्धि की मांग को लेकर हड़ताल पर हैं ये कर्मचारी
  • हाईकोर्ट ने पक्ष में निर्णय दिया तो सुप्रीम कोर्ट पहुंची राज्‍य सरकार
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अहमदाबाद.: सातवें वेतन आयोग में देश में नियमित कर्मचारियों का न्यूनतम वेतन भले ही 18,000 कर दिया गया है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अपने ही राज्‍य गुजरात में कांट्रैक्‍ट कर काम कर रहे कर्मचारी इससे काफी कम वेतन पर काम करने को मजबूर हैं. इन कर्मचारियों के लिए सरकारी कर्मचारियों के बराबर वेतन पाना अभी तक सपना ही बना हुआ है.

वेतन बढ़ाए जाने की इस मांग को लेकर अहमदाबाद के 6000 से ज्यादा सफाईकर्मी पिछले एक सप्ताह से ज्यादा समय से हड़ताल पर हैं. उनका कहना है कि कई लोगों की फुलटाइम भर्ती बहुत पहले हो गई लेकिन सरकार उन्हें बिलकुल तवज्जो नहीं दे रही. कांट्रैक्‍ट सिस्टम की वजह से उनकी हालत बुरी है. लंबी लड़ाई के बाद सरकार ने उन्हें दो साल पहले ही सरकारी कांट्रैक्‍ट पर रखा है जो कभी भी रद्द हो सकता है. ये लोग सिर्फ दिहाड़ी मजदूर बनकर रह गए हैं. इन्हें रविवार को भी छुट्टी नहीं मिलती. यही नहीं, अगर बीमार पड़ गए तो उस दिन का पैसा गया.  नरेंद्र  मोदी देश के प्रधानमंत्री हो गए हैं लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री रहते उन्होंने जो नीतियां बनाईं, उनसे कर्मचारी आज भी खफा हैं.

गीताबेन राठौड़ नाम की कर्मचारी यहां तक कहती हैं कि उन्हें मुश्किल से हर माह 7000 से 8000 रुपए तक मिल पाता है. ये भी पिछले 15 साल से ज्यादा से काम करने के बाद. किराये के मकान में रहते हैं, 3-4 हजार किराया देते हैं, बच्चों की पढ़ाई कराएं कि अपना पेट भरें. इन्हें न मेडिकल मिलता है न रविवार की छुट्टी. यही नहीं, अगर घर में किसी की मौत हो जाए तो भी तनख्वाह कटवाने की नौबत आती है.

अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के मलेरिया विभाग में काम कर रहे नटवरभाई भी पिछले एक सप्ताह से हड़ताल पर हैं. उनकी शिकायत है कि 20 साल की नौकरी के बावजूद वे नियमित नहीं किए गए,  कांट्रैक्ट पर ही हैं. वेतन कुल मिलाकर 9300 मिलता है. बरसात के मौसम में सुबह-शाम मलेरिया प्रभावित इलाक़ों में छिड़काव में लगे रहते हैं लेकिन सेहत के लिए कोई बीमा नहीं.  मलेरिया विभाग में 200 से ज़्यादा पद पिछले करीब 10 साल से ख़ाली हैं. मगर उनकी तरह के लोगों से कांट्रैक्ट के नाम पर शोषण हो रहा है.

वशिष्ठ शर्मा सफ़ाई कर्मचारी नहीं, शिक्षक हैं. शिक्षक भी नहीं, शिक्षा सहायक. गुजरात सरकार अपने शिक्षकों को दरअसल यही दर्जा देती है. पांच साल के कांट्रैक्‍ट पर फिक्स सैलरी में रखती है. इसके बाद ही पूरे शिक्षक की सैलरी मिल पाती है.  हायर सेकेंड्री में केमिस्ट्री पढ़ाने वाले वशिष्ट शर्मा को एक ही काम के लिए अलग-अलग सैलरी की ये 'मिस्ट्री' समझ में नहीं आती. शर्मा कहते हैं कि वे लगातार रोजगारी और न्यूनतम तनख्वाह के मुद्दों पर मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री सबकी बातें सुनते हैं, जिनका दावा है कि देश भी बहुत आगे बढ़ गया है. लेकिन गुजरात का शिक्षक या सरकारी कर्मचारी, जो तीसरे-चौथे वर्ग में आता है उसका घर भी चलाना मुश्किल है. वे बताते हैं कि मान लीजिए यह15,000 भी हो तो घर कैसे चलेगा। उन्हें कुछ लोन भी लेना हो तो बैंक कहते हैं कि कम से कम 15,000 रुपये तनख्वाह होनी चाहिए उन्हें तो10 हजार लोन लेने जायें तो वो भी नहीं मिल सकता.

गुजरात में  1996 में प्राथमिक शिक्षकों के लिए बालगुरु योजना में सरकार ने पहली बार तनख्वाह फिक्स की. लेकिन नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद 2006 में पहली बार गुजरात में फिक्स तनख्वाह की नीति बनी. इसके दायरे में कई पद आ गए.  2006 में ज्यादातर पदों के लिए तनख्वाह 2500 रुपए प्रति माह तय की गई थी. कुछ पदों के लिए यह 4500 रुपए थी. भारी विरोध के बावजूद पांच साल यही वेतन चलता रहा, 2011 में 2500 से तनख्वाह बढ़ाकर 4500 की गई और 2012 में बढ़ाकर 5300 रुपए.

सरकार की इस नीति के ख़िलाफ़ कानूनी और आंदोलन के ज़रिए लड़ाई ल़ड़ रहे जन अधिकार मंच के राम प्रवीण कहते हैं कि तीन तरह से भर्तियां हो रही हैं और तीनों में शोषण है. पुलिस में कांस्टेबल, सब इंस्पेक्टर, शिक्षक, पटवारी जैसे पदों पर 5 साल तक फिक्स सैलरी रहती है. ये पांच साल न उनकी नौकरी में गिने जाते हैं न इन्हें कोई और सरकारी लाभ मिलता है. सीनियरिटी का लाभ भी नहीं. इस दरमियान लंबी छुट्टी भी नहीं ली जा सकती.

मोदी और उसके बाद पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल की चहेती स्वास्थ्य योजना मिशन मंगलम जैसी कई योजनाओं में सरकार कांट्रैक्ट के तहत लोगों को रखती है जिन्हें कभी भी निकाला जा सकता है. इनमें लोगों को खुद सरकार ही 4000 से लेकर 9000 तक अलग.अलग तनख्वाह देती है. इसके अलावा सरकार बाहरी लोगों को आउटसोर्स करती है जो अपने स्तर पर कर्मचारी रखते हैं और उनका भरपूर शोषण होता है.

2011 में कुछ लोगों ने मिलकर गुजरात हाईकोर्ट में इस पूरी पद्धति के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी. हाईकोर्ट ने कड़ा रुख अपनाया और गुजरात सरकार के इस फिक्स तनख्वाह सिस्टम को रद्द कर दिया. हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि मौजूदा व्यवस्था न्यूनतम वेतन का भी उल्लंघन करती है. सरकार एक काम के लिए एक तनख्वाह देने के लिए बाध्य है. ये भी आदेश दिया कि फिक्स तनख्वाह नियम के तहत भर्ती सभी कर्मचारियों को पूर्णकालीन सरकारी ग्रेड दिया जाना चाहिए.

प्रवीण कहते हैं कि सरकार को हाईकोर्ट ने चेतावनी भी दी कि ये नीति भ्रष्टाचार पैदा करनेवाली और युवाओं का शोषण करनेवाली है लेकिन सरकार ने हाईकोर्ट के आदेश को न मानते हुए सरकारी तिजोरी पर आर्थिक बोझ पड़ने का तर्क देते हुए फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। राज्य में इतने समय में करीब 2 लाख से ज्यादा लोगों की भरती इस नियम के तहत हुई है लेकिन अब तक उनकी मांगें पूरी नहीं की गई हैं. 2012 में गुजरात हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ नरेंद्र मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट में गई थी जहां ये मामला अभी भी लंबित है. सातवें वेतन आयोग के लागू होने के बाद जब देश भर में न्यूनतम वेतन 18000 रुपये महीना हो चुका है,  लेकिन गुजरात में कांट्रेक्‍ट पर काम करने वाले कर्मचारी  9300 रुपए मासिक तनख्‍वाह पर ही काम कर रहे हैं जबकि असलियत में इससे भी कम मिलता है. 'वाइब्रेंट गुजरात' में इन कामगारों की वेतन बढ़ोतरी का अहम मसला इस बिना पर टाला जा रहा है कि मामला सुप्रीम कोर्ट में है.

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