"आदि से अनंत तक बस यही रही है परंपरा, कायर भोगे दुख सदा, वीर भोग्य वसुंधरा" ये राजपुताना राइफल्स का आदर्श और सिद्धांत वाक्य है. इसका अर्थ होता है कि जो वीर और पराक्रमी लोग होते हैं वही इस धरती की शान होते हैं. कायर लोग मृत के समान होते हैं. इस देश में मेजर पद्मपाणि आचार्य नाम के एक वीर हुआ करते थे. उनकी शौर्य और पराक्रम के आगे दुश्मनों के पसीने निकल जाते थे. देश की आन-बान-शान के लिए उन्होंने अपनी जान न्योछावर कर दी थी. उनकी बहादुरी को देखते हुए भारत सरकार ने मरणोपरांत उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया था. मेजर आचार्य मूल रूप से ओडिशा से थे और हैदराबाद, तेलंगाना के निवासी थे. उनकी शादी चारुलता से हुई थी. Humans of Bombay के अनुसार, चारुलता अचार्य और पद्मपाणि की मुलाक़ात 1995 में हुई. उस समय चारुलता 22 साल की थी. दोनों की मुलाक़ात ट्रेन में हुई थी. चारुलता अपनी आंटी के साथ चेन्नई जा रही थी. उनके साथ पद्मपाणि भी हमसफ़र बनने के लिए सफ़र कर रहे थे.
हुआ कुछ यूं था कि चारुलता की आंटी को दूध की ज़रूरत थी. ऐसे में मेजर पद्मपाणि ने चारुलता की मदद पैंट्री कार से दूध लाने में मदद की. इसके बाद ट्रेन में ही दोनों को एक दूसरे से प्यार हो गया. बाद में दोनों की शादी 28 जनवरी 1996 को हुई. शादी के 2 साल तक दोनों ग्वालियर में सेना बैरक में रहे. चारुलता बताती हैं कि परिवार के साथ रहने के बावजूद मेजर पद्मपाणि सेना के जवानों के साथ रहते थे. मेजर होने के कारण उनके ऊपर कई ज़िम्मेदारियां थीं. शुरुआत में वो रोने लगती थी, मगर कुछ दिनों में पता चला कि एक सेना की ज़िंदगी कैसी होती है.
पद्मपनी पापा बनने की ख़ुशी में पागल हो गए थे
चारुलता बताती हैं मेरे मां बनने की ख़बर मेजर पद्मपनी को पता चली तो वो ख़ूब खुश हुए थे. बच्चे की देखभाल के लिए वो मुझे हैदराबाद लेकर आ गए थे. ताकि बच्चे की देखभाल हो सके. हैदराबाद आते ही उन्होंने केसर का एक पैकेट अपनी मां को देते हुए कहा कि इसे चारु को रोज़ देना, तुम मत खा जाना.
काश मैं आख़िरी बार गले मिल पाती
चारुलता बताती हैं कि जब मेजर देश की रक्षा के लिए सीमा पर जा रहे थे तो हम उन्हें हैदराबाद रेलवे स्टेशन पर छोड़ने आए थे. मेरी सास ने तो अपने बेटे को गले लगा लिया, मगर मैं उन्हें आखिरी बार गले नहीं लगा सकी. हमारी संस्कृति में सार्वजनिक जगह पर पति को गले लगाना सही नहीं माना जाता है. मेरे दिल में वो कसक अभी तक रह गई है. मैं बस मुस्कुराती हुई मेजर साहब को विदा कर पाई.
देश के लिए अमर हो गए
कारगिल युद्ध के दौरान मेजर पद्मपनी आचार्य को अपनी सेना टुकड़ी के साथ दुश्मन के कब्जे वाली अहम चौकी को आजाद कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई. यह जगह बेहद खतरनाक थी क्योंकि यहां दुश्मनों ने जमीन में माइंस बिछा रखे थे ताकि कोई भी भारतीय सैनिक दुश्मन कब्जे वाले एरिया में एंट्री करते ही माइंस के विस्फोट में मारा जाए. दुश्मनों के पास अत्याधुनिक हथियारों थे. वह लगातार फायर कर रहे थे मेजर को कई गोलियां लग चुकी थी. उन्होंने आगे बढ़कर फायरिंग की और अपनी टीम के साथ मिलकर दुश्मनों को खदेड़ दिया. इसके बाद मेजर पद्मपाणि ने दम तोड़ दिया और हमेशा के लिए अमर हो गये.
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं