- इलाहाबाद HC ने कहा कि कमाने वाली महिला स्वयं का भरण-पोषण करने में सक्षम होने पर भरण-पोषण की हकदार नहीं होती
- फैमिली कोर्ट ने पति को पत्नी को पांच हजार रुपए मासिक गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था जिसे HC ने रद्द किया
- याचिकाकर्ता के वकीलों ने बताया कि पत्नी वेब डिजाइनर है और टेलीकॉम कंपनी में मासिक तीस हजार से अधिक कमाती है
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गुजारा भत्ता से जुड़े के एक मामले की सुनवाई करते हुए एक बड़ा फैसला सुनाया है. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि कोई भी कमाने वाली महिला और खुद का भरण-पोषण करने में सक्षम हो वो किसी भी प्रकार की सहानुभूति की पात्र नहीं है. और अपने पति से गुजारा भत्ता पाने की भी हकदार नहीं है. कोर्ट ने माना है कि धारा 125(1) (a) के प्रावधान के अनुसार ऐसी महिला अपने पति से किसी भी प्रकार का भरण-पोषण प्राप्त करने की हकदार नहीं है. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पति द्वारा दाखिल याचिका को स्वीकार करते हुए फैमिली कोर्ट के उस आदेश को भी रद्द कर दिया जिसमें कोर्ट ने पति/याचिकाकर्ता को अपनी पत्नी को भरण-पोषण भत्ता के रूप में पांच हजार रुपए प्रति महीने का भुगतान करने का आदेश दिया था.यह आदेश जस्टिस मदन पाल सिंह की सिंगल बेंच ने याचिकाकर्ता अंकित साहा की क्रिमिनल रिवीजन याचिका को स्वीकार करते हुए दिया है.
मामले के अनुसार याचिकाकर्ता अंकित साहा ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर करते हुए नोएडा के फैमिली कोर्ट द्वारा 17 फरवरी 2024 को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पारित आदेश को रद्द करने की हाईकोर्ट से मांग करते हुए याचिका दाखिल की थी.फैमिली कोर्ट ने याचिकाकर्ता पति को विपक्षी पक्ष संख्या दो यानी पत्नी को पांच हजार रुपए हर महीने भरण-पोषण भत्ता के रूप में देने का आदेश दिया था.याची पति ने फैमिली कोर्ट के इस आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी.
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के वकील श्रीश श्रीवास्तव और सुजान सिंह ने कोर्ट को बताया कि विपक्षी संख्या दो यानी पत्नी ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपना आवेदन दाखिल करके ट्रायल कोर्ट में बिना साफ हाथों के याचिका दायर की थी जिसमें उसने दावा किया कि वह बेरोजगार है और उसकी आय का कोई स्रोत नहीं है. वकील ने दलील दी कि जबकि वास्तव में विपक्षी पक्ष संख्या दो पत्नी ग्रेजुएट है और योग्यता में वेब डिजाइनर है और एक टेलीकॉम कंपनी में जॉब कर रही है और उसकी सैलरी 36,000 रुपए प्रति महीना है. इसलिए वह किसी भी प्रकार की सहानुभूति की पात्र नहीं है और इस आधार पर भरण-पोषण प्राप्त करने की हकदार नहीं है.
याचिकाकर्ता के वकील ने कोर्ट को बताया कि याची की पत्नी ने ट्रायल कोर्ट ने दायर हलफनामे अपने दायित्वों का विवरण "शून्य" बताया है. तर्क दिया गया कि विपक्षी पक्ष संख्या दो यानी पत्नी के पास स्वयं का भरण-पोषण करने के पर्याप्त साधन है और ऐसी परिस्थितियों मे वो याचिकाकर्ता से किसी भी प्रकार का भरण-पोषण प्राप्त करने की हकदार नहीं है.
सभी पक्षों को सुनने के बाद कोर्ट ने अपने फैसले में माना कि विपक्षी पक्ष संख्या दो ग्रेजुएट है और एक प्राइवेट टेलीकॉम कंपनी में कार्यरत है और कमा रही है. कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने आदेश देते समय याचिकाकर्ता की देनदारी पर विचार नहीं किया. कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि पत्नी को भरण-पोषण राशि प्रदान की जा सकती है लेकिन जब वो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ हो. कोर्ट ने माना कि कि धारा 125(1) (a) के प्रावधान के अनुसार पत्नी अपने पति/याचिकाकर्ता से किसी प्रकार का भरण-पोषण प्राप्त करने की हकदार नहीं है क्योंकि वो कमाने वाली महिला है और खुद का भरण-पोषण करने में सक्षम है.
कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि ये कानून है कि जब कोई व्यक्ति न्यायालय में जाता है तो उसे न केवल साफ हाथों से बल्कि स्वच्छ मन, स्वच्छ हृदय और स्वच्छ उद्देश्य से भी न्यायालय में जाना चाहिए. यह प्रकृति का नियम है कि किसी को भी दूसरे के नुकसान या चोट से समृद्ध नहीं होना चाहिए. न्यायिक प्रक्रिया कभी भी लाभ या दुरुपयोग का साधन या न्याय को विकृत करने का माध्यम नहीं बननी चाहिए. किसी भी वादी को अपने मामलों को अपनी इच्छानुसार निपटाने के लिए न्यायालय के समय और सार्वजनिक धन का असीमित उपयोग करने का अधिकार नहीं है. न्याय तक आसान पहुंच का दुरुपयोग भ्रामक और तुच्छ याचिकाएं दायर करने के लाइसेंस के रूप में नहीं किया जाना चाहिए. यदि कोई याचिकाकर्ता किसी महत्वपूर्ण तथ्य को छिपाने का दोषी है तो उसके मामले पर योग्यता के आधार पर विचार नहीं किया जा सकता है. इस प्रकार वादी तथ्यों का पूर्ण और सत्य खुलासा करने के लिए बाध्य है.
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि पत्नी किसी भी प्रकार की सहानुभूति का पात्र नहीं है और याचिकाकर्ता से भरण-पोषण प्राप्त करने की हकदार नहीं है. साथ ही कोर्ट ने नोएडा फैमिली कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश को रद्द करते हुए याची पति की आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार कर लिया.
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