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This Article is From Apr 20, 2023

बकालो गांव में साथ जीवन बिता रहीं इन दो महिलाओं के लिए 'सेम सेक्स मैरिज' शहरी अवधारणा नहीं

बकालो गांव में रहने वाली मीना और बुधकुंवर सुप्रीम कोर्ट की तरफ आस लगाकर देख रही हैं. वे दोनों मजदूरी करती हैं और 18 साल से साथ हैं.

बकालो गांव में साथ जीवन बिता रहीं इन दो महिलाओं के लिए 'सेम सेक्स मैरिज' शहरी अवधारणा नहीं
मीना और बुधकुंवर मजदूरी करती हैं और 18 साल से साथ रह रही हैं.
सूरजपुर/भोपाल:

समलैंगिक विवाह के मामले में सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है. केंद्र सरकार ने कोर्ट से राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को पक्षकार बनाने की मांग की है. हालांकि कोर्ट ने फिलहाल 'सेम सेक्स मैरिज' पर केंद्र का अनुरोध नामंजूर कर दिया है. केन्द्र ने इसे शहरी संभ्रांत अवधारणा बताया है. 

दिल्ली से छत्तीसगढ़ का सूरजपुर लगभग 1200 किलोमीटर दूर है लेकिन इस जिले के बकालो गांव में रहने वाली मीना और बुधकुंवर भी सुप्रीम कोर्ट की तरफ आस लगाकर देख रही हैं. वे दोनों मजदूरी करती हैं और 18 साल से साथ हैं. सातवीं कक्षा में पढ़ने के दौरान दोनों ने साथ में रहने का फैसला किया था. घर वालों ने मारा-पीटा, समझाया लेकिन किसी की परवाह नहीं की और अब खुद का घर बना रही हैं.

बुधकुंवर कहती हैं कि, ''मां बाप ने रहने नहीं दिया, घर से भगाते थे. फिर सोचा कहां जाएंगे, छठी-सातवीं से सोचा था साथ रहेंगे, समाज वालों ने छोड़ दिया था. हमने कहा छोड़ दो, हम साथ रहेंगे. फिर मां-बाप ने कहा यहां रह जाओ. इसके बाद रख लिया. अब कुछ नहीं रहता है अपनी मजदूरी करते हैं.''

मीना ने कहा कि, ''हम लोगों ने तय किया था कि शादी नहीं करवाएंगे तो हम लोग साथ रहने लगे.'' 

एक दिक्कत यह है कि इन दोनों महिलाओं को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता. गांव वालों को अब कोई ऐतराज नहीं है. ग्रामीण पुरुषोत्तम ने कहा कि, ''यही जानता हूं कि दोनों लड़की हैं, दोनों 10-20 साल से साथ में रहती हैं. किसी को परेशानी नहीं है. वे कमा-खा रही हैं, रोजी रोटी चल रही है. लेडीज हैं दोनों को कोई मतलब नहीं है.''

सरकार समलैंगिकों को शहरी अवधारणा मानती है. गांव में हमने देखा कि देर-सवेर समाज ने मीना और बुधकुंवर को अपना लिया, लेकिन भोपाल में एक स्वयंसेवी संगठन के लिए काम कर रहा एक युवक आज भी अपनी पहचान जाहिर करने को लेकर थोड़ असमंजस में है. परिवार के लोग फौज में हैं और पुलिसकर्मी हैं. वे इसे खिलाड़ी बनाना चाहते थे.

युवक कहता है कि घर से ज्यादा संघर्ष खुद से था. बाद में हॉस्टल छोड़ा, संगीत को चुना. अब उसकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर हैं.

युवक ने कहा- ''मेरी फैमिली का बैकग्राउंड स्पोर्ट्स और आर्मी से है. उनको मेरे बारे में यही उम्मीद थी कि फिजिकल फिट रहेगा, आर्मी में जाएगा, पर मेरा रुझान उस तरफ बचपन से ही नहीं रहा. मेरे पेरेंट्स ने स्पर्ट्स के लिए ब्वायज हॉस्टल में डाल दिया था. वहां मुझे अनकंफर्टेबल फील होता था. मैंने काफी स्ट्रगल किया. लड़के आपस में मजाक करते थे तो लगता था कि वे कहीं मुझे पाइंटआउट तो नहीं कर रहे. मैं सोचता था कहीं मेरा मजाक तो नहीं उड़ा रहे.'' 

उन्होंने कहा कि, ''आसानी तो नहीं होगी समाज इसको आसानी से स्वीकार नहीं कर पाएगा. पर जो समाज से कट चुके हैं जो फैमिली से कटकर अपने लिए स्टैंड ले चुके हैं तो वे खुलकर अपने पार्टनर के साथ शादी कर पाएंगे. वे कह पाएंगे कि हम गे कपल हैं.''

ये दो किस्से हैं, एक गांव का दूसरा शहर का. दोनों किस्से देश के दो अलग-अलग हिस्सों से समलैंगिकों के संघर्ष के हैं. बकालो हो या भोपाल, समलैंगिकों का संघर्ष आसान नहीं है. पहले खुद, फिर परिवार, फिर समाज... पहचान मिल गई तो कानूनी ठप्पे की जरूरत है जिसके लिए शहर हो या गांव सबकी नजरें सुप्रीम कोर्ट पर हैं. बकालो से बुधकुंवर और मीना केन्द्र को बता रही हैं कि यह शहरी अवधारणा नहीं है.

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