
- ठाकरे भाइयों, राज और उद्धव ने महाराष्ट्र में 20 साल बाद एक मंच पर साथ आकर नया सियासी संदेश दिया
- उद्धव ठाकरे की पार्टी पहचान के संकट में है, ऐसे में उनके लिए चचेरे भाई राज ठाकरे का सहारा महत्वपूर्ण हो गया है
- आगामी बीएमसी चुनावों ने भी दोनों भाइयों को एक मंच पर आने के लिए मजबूर किया है
- महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी का भविष्य अब ठाकरे भाइयों के संबंधों पर निर्भर है
5 जुलाई 2025. महाराष्ट्र की राजनीति में नई तारीख. 20 साल बाद ठाकरे भाई, राज और उद्धव एकसाथ मंच पर आए. वक्त दोनों भाइयों को नए मोड़ पर फिर साथ ले आया. 2004 में जिस उद्धव ने राज ठाकरे को पार्टी में किनारे लगाना शुरू किया था और 2006 में जिस राज ठाकरे ने चाचा बाला साहेब से बगावत कर महाराष्ट्र की राजनीति में खलबली मचा दी थी, वे एक दूसरे का हाथ थामे साथ खड़े थे. दोनों की इस तनी मुट्ठी की कहानी क्या है? शिंदे से लेकर बीजेपी और कांग्रेस के लिए इसके क्या संदेश है? महाराष्ट्र की राजनीति पर नजर रखने वालीं पूजा भारद्वाज का विश्लेषण..

राज ठाकरे अपनी जुबान से मुद्दों में आग भरने और 'ठाकरे' सरनेम के वजूद को वजन देने के लिए जाने जाते हैं, तो उद्धव ठाकरे की पहचान फिलहाल बाल ठाकरे के बेटे के रूप में ही बची दिखती है. उद्धव से पार्टी चिह्न, विधायक,सांसद सब एकनाथ शिंदे छीन ले गए, तो बची-खुची पार्टी बचाने के लिए उद्धव को राज ठाकरे ही अंतिम सहारा दिख रहे हैं.
दोनों भाइयों की मजबूरी क्या है?
राज ठाकरे भी हर चुनाव से पहले अपनी हुंकार से नए नए मुद्दों में हवा भरते हैं, लेकिन चुनावों में फुस्स हो जाते हैं. ऐसे में 74 हजार करोड़ की सबसे अमीर महानगर पालिका बीएमसी को बचाने के लिए उद्धव को जितनी ज़रूरत राज की है, उतनी ही ज़रूरत है, अपनी खिसकती सियासी जमीन पर फिर से पैर जमाने की कसरत कर रहे राज ठाकरे को उद्धव की.
विजय सभा सिर्फ दो भाइयों के चेहरे चमकाने का ही कार्यक्रम दिखा, शरद पवार गुट से उनकी बेटी सांसद सुप्रिया सुले आईं तो सही, पर तवज्जो सिर्फ इतनी की फोटो खिंचवाने का मौक़ा मिला. कांग्रेस के नेता नदारद रहे, यानी ये 'ठाकरे मोर्चा' की ही नींव समझिए, जिसमें सिर्फ उद्धव-राज को ही एकदूसरे की जरूरत है!

अब इसमें महाविकास अघाड़ी गठबंधन का भविष्य बिखरता दिखता है. बिखरी-टूटी पार्टियों के बीच कांग्रेस ख़ुद को मज़बूत विपक्ष मानती तो है लेकिन 'ठाकरे' नाम से वो सबसे ज़्यादा असहज है.
शिंदे का क्या होगा?
पर ठाकरे भाइयों की नज़दीकी से सबसे मुश्किल घड़ी कहीं एकनाथ शिंदे को ना देखनी पड़े? मराठी वोटों के ध्रुवीकरण में उन्हें नुकसान पहुच सकता है, क्यों ठाकरे भाइयों की एकता के सामने, क्या शिंदे वाली शिवसेना को मराठी वोटर असली मान पाएंगे?
मिलन ये आधा-अधूरा है!
वैसे अभी तो ठाकरे भाई गले मिले हैं, पार्टी का मिलन कब होगा कहना मुश्किल है. उद्धव मिलन के लिए ज्यादा उत्साहित दिखते हैं और राज को देखकर ऐसा लगता है की हर दल से मिल रही स्पॉटलाइट का वो मजा ले रहे हैं.
उद्धव को अटेंशन सिर्फ इतनी दे रहे हैं की मीडिया में माहौल बनता रहे, सत्तापक्ष के नेताओं से उनकी हालिया मुलाक़ातें अब भी मिस्ट्री है.
पर ठाकरे ब्रांड अगर राजनीतिक तौर पर साथ आ भी गए तो मारपीट,गालीगलौच, थप्पड़ वाली पॉलिटिक्स उस मुंबई में कैसे चलेगी? जहाँ मराठी 10% ही बचे हैं?

उद्धव सीएम की कुर्सी का स्वाद ले चुके हैं, मराठियों का कुछ ख़ास उद्धार हुआ नहीं, धीरे-धीरे मुंबई से निकल मराठी मानुस बाहरी हिस्सों में बसते गए.
क्या उद्धव झुकेंगे?
छोटे भाई राज की सियासी महत्वाकांक्षाएं जो भी हों, लेकिन उद्धव के साथ आकर वो बड़े कद की चाह रखेंगे ऐसा अंदेशा तो है ही! तो क्या उद्धव ठाकरे झुकेंगे? विधायक बेटे आदित्य ठाकरे का क्या?
साथ ही अब भगवा राजनीति का क्या होगा? राज ठाकरे तो मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाने के मुद्दे को खूब खींचते दिखे थे, उधर उद्धव 2024 चुनाव के बीच मुस्लिम वोटरों से इतनी नज़दीकी दिखा गए कि कुछ हिस्सों में कांग्रेस के भी वोट ले उड़े.
ठाकरे भाइयों को हिंदी विरोध का जोड़ कितनी मजबूती देगा?
अब जिस महाराष्ट्र में 40% मराठी, 40% परप्रांतीय, 20% मुस्लिम वोटर हैं, वहां कौन सा भाई अपना स्टैंड बदलेगा? राज-उद्धव दोनों को ही अपनी पार्टी को खड़ा रखने के लिए 'ठाकरे ब्रांड' की ज़रूरत है. बीस सालों में जो दृश्य नामुमकिन सा दिखता था, वो सिर्फ हिंदी विवाद मुमकिन कर दे, ये पचा पाना जरा मुश्किल दिखता है.
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