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चिराग को बढ़ाया, कुशवाहा, मांझी को मनाया, बिहार में BJP का '-9' वाला गेमप्लान क्या है?

Bihar Chunav News: बिहार चुनाव के लिए बीजेपी ने इस बार काफी मशक्कत की है. पार्टी ने एनडीए में शामिल सभी दलों का सम्मान रखते हुए सीट बंटवारा किया गया है.

चिराग पासवान को भाव
  • बिहार विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी ने इस बार काफी मेहनत-मशक्कत की है
  • एनडीए में सीट बंटवारे से लेकर रूठे सहयोगियों को मनाने का जिम्मा बीजेपी ने उठा रखा था
  • हालांकि, उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी अभी भी सीट बंटवारे पर नाराज बताए जा रहे हैं
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पटना:

सियासी खींचतान और मान-मनौव्वल के बीच बिहार में NDA का सीट शेयरिंग फायनल हो गया. बिहार विधानसभा के सीटों के शेयरिंग में एलजेपी (R) के प्रमुख चिराग पासवान सबसे बड़े बाजीगर रहे जिन्हें 29 सीटें मिली है. वहीं, हम प्रमुख जीतन राम मांझी और आरएलएम प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा को 6-6 सीटें मिली है. बीजेपी-101 और जेडीयू-101 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. चिराग पासवान की पार्टी का बिहार में एक भी विधायक नही है. फिर भी चिराग को अधिक तवज्जों दी गई है. बीजेपी पिछले चुनाव से 9 और जेडीयू 14 सीटें कम लड़ रही है. 2020 के चुनाव में बीजेपी 110 सीटें और जदयू 115 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. ऐसे में लोगों के मन में सवाल उठ रहा है कि बीजेपी और जेडीयू के समक्ष ऐसी क्या मजबूरी रही, जिसके कारण अपने हिस्से की सीटें एलजेपी-आर के चिराग पासवान को देनी पड़ गई है. हम और आरएलएम की ऐसी क्या मजबूरी रही कि वह छह छह सीटों पर मान गई.

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बीजेपी ने सियासी हनुमान के लिए सीटें की कुर्बान

बीजेपी के जरिए अपने हिस्से का सीट एलजेपीआर प्रमुख चिराग पासवान को दिए जाने की दो प्रमुख वजह है. पहला वजह है कि चिराग पासवान को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का खास माना जाता है. चिराग को नरेंद्र मोदी का हनुमान कहा जाता रहा है. ऐसे में बीजेपी नही चाहती है कि चिराग को नाराज किया जाय. दूसरी अहम बात यह है कि केन्द्र की सरकार में एलजेपी आर की अहम भागीदारी है. लोकसभा में एनडीए के 293 सीटों में से चैथे बड़े सहयोगी एलजेपी आर है. तेलगूदेशम पार्टी के 16, जदयू के 12, शिवसेना के 7 और एलजेपी आर- के पांच सांसद हैं. ऐसे में बीजेपी ऐसा कोई कदम नही उठाना चाहती, जिससे केन्द्र सरकार की स्थिरता पर खतरा उत्पन्न हो जाय. चूंकि ऐसे भी बीजेपी के लिए बिहार दूसरी प्राथकिता है. पहली प्राथमिकता केन्द्र की सरकार रही है. बता दें कि 2020 में बीजेपी 110 सीटें लड़ी थी, जिसमें 74 सीटें जीती थी.


2020 का अतीत नही दोहराना चाहती जेडीयू

जेडीयू के जरिए अपने हिस्से की सीटें एलजेपी आर को देने की सबसे बड़ी मजबूरी 2020 का विधानसभा चुनाव परिणाम रहा है. चूंकि 2020 के चुनाव में एलजेपीआर एनडीए का हिस्सा नही था. इसका सर्वाधिक नुकसान जेडीयू को हुआ था. एलजेपी आर 135 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. लेकिन जहां बीजेपी का उम्मीदवार था, वहां एलजेपीआर ने उम्मीदवार नही दिया था. जबकि जदयू, हम और वीआईपी (तब एनडीए का हिस्सा था) के खिलाफ उम्मीदवार उतारा था. जेडीयू को भारी नुकसान हुआ था. जेडीयू 115 सीटों पर लड़ी थी, जिनमें सिर्फ 43 सीटें जीत पाई थी.बीजेपी अपने प्रमुख सहयोगी जदयू को यह मनाने में कामयाब रही कि एलजेपीआर के अलग रहने से एनडीए को बड़ा नुकसान हो सकता है. लिहाजा, जेडीयू 2020 से 14 सीटें कम 101 सीटों पर लड़ने पर राजी हो गई. देखें तो, जेडीयू बिहार में हमेशा बड़े भाई की भूमिका में रही है. वह बीजेपी से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ती रही है. लेकिन 2025 के चुनाव में 27 फीसदी सीटें कम हो गई है. देखें तो, 2003 में जेडीयू का गठन हुआ था. तब 2005 के चुनाव में जदयू 138 सीटों पर लड़ी थी. 2010 में 141 सीटों पर लड़ी थी. 2015 में जेडीयू महागठबंधन का हिस्सा था. जबकि 2020 में जेडीयू 115 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. जेडीयू को कम सीटों पर राजी होने की एक और बड़ी वजह मुख्यमंत्री का चेहरा भी रहा है. चूंकि मुख्यमंत्री का चेहरा भी जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार मुख्यमंत्री है.

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मनपसंद सीटें लेकर मान गए मांझी

हम प्रमुख जीतन राम मांझी 15 से 20 सीटें की मांग कर रहे थे. मांझी का तर्क था कि 2020 में उनकी पार्टी 4 सीटें जीती थी. अब पार्टी का जनाधार बढ़ा है. लिहाजा, अधिक सीटें दी जाय. लेकिन शीट शेयरिंग में एलजेपीआर से पांच गुणा कम सीटें हम को दी गई. मांझी को छह सीटें दी गई. मांझी को पिछले चुनाव से एक सीट कम मिली है. पिछले चुनाव में हम पार्टी सात सीटों पर चुनाव लड़ी थी. बताया जाता है कि मांझी को उनके परिवार की मनपसंद सीटें और केन्द्रीय मंत्रिमंडल में कद बढ़ाने का आश्वासन देकर उन्हें मनाई गई. हालांकि मांझी ने कहा है कि एनडीए में हमारी ताकत को कम करके आंका गया। इसका खामियाजा चुनाव में एनडीए को भुगतना पड़ेगा.

पिछला अतीत को नही दोहराना चाहती थी आरएलएम

राष्ट्रीय लोक मोर्चा यानी आरएलएम के प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा 10 सीटें की मांग कर रहे थे. लेकिन उन्हें भी छह सीटों पर संतोष करनी पड़ी है. दरअसल, 2020 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय लोक मोर्चा ओवैसी के एआईएमआईएम के साथ मिलकर ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट (जीडीएसएफ) का गठन किया था. उस गठबंधन में बसपा, समाजवादी जनता दल डेमोक्रेटिक समेत कई छोटी पार्टियां थीं. तब आरएलएम 99 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. लेकिन एक भी सीट नही जीत पाई थी. ऐसे में, आरएलएम के समक्ष विकल्प सीमित था. महागठबंधन में भी सीटों को लेकर काफी गतिरोध रहा है. यही वजह है कि आरएलएम छह सीटों पर चुनाव लड़ने के फैसले पर राजी हुई है.

लोकसभा चुनाव 2024 रहा शीट शेयरिंग का फॉर्मूला

बिहार के विधानसभा चुनाव में लोकसभा चुनाव 2024 को आधार बनाया गया है. ऐसा सियासी गणित बताया जा रहा है कि लोकसभा में जितनी सीटें पर एनडीए गठबंधन के घटक दल लड़ा था उन सीटों को आधार बनाकर विधानसभा का सीट शेयरिंग किया गया है. एक संसदीय उम्मीदवार पर छह विधानसभा सीट को आधार माना गया है. बीजेपी 17 और जेडीयू 17 सीटों पर लड़ी थी. इस हिसाब से 101-101 सीटें दी गई है. जबकि एलजेपीआर के पांच सदस्य संसदीय चुनाव लड़े थे, उस हिसाब से 29 सीटें दी गई है. जबकि हम और आरएलएम-एक-एक सीट पर लड़ी थी, लिहाजा, उन्हें छह-छह सीटें दी गई है. बीजेपी और एलजेपी इस सियासी गणित में समझौता की है.


हर दल की मजबूरी है सियासी गठबंधन

दरअसल, बीजेपी अपने सियासी गठबंधन को किसी भी स्तर पर कमजोर नही होने देना चाहती है. इसलिए सहयोगी दलों को साथ रखने में अपनी सीटें कुर्बान करने में भी पीछे नही हटी. देखें तो, बिहार में गठबंधन के बगैर किसी की दाल गलनेवाली नही है. इसलिए सियासी जीत पाने के लिए छोटे बड़े दलों के बीच गठबंधन की मजबूरी है. 

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