दरवाजों में लटके तालों के बीच हार न मानने वाले पहाड़ के एक बुजुर्ग की कहानी है डॉक्यूमेंट्री 'मोती बाग'

प्रसार भारती, पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टिंग ट्रस्ट की मदद से निर्देशक निर्मल चन्द्र द्वारा बनाई गई 'मोतीबाग' डॉक्यूमेंट्री उत्तराखंड के पौड़ी नगर से पैंतीस किलोमीटर दूर गांव मोती बाग में रहने वाले एक बुजुर्ग की कहानी है. यह कहानी पहाड़ में रहने वाले लोगों की समस्याओं को दिखाती है तो इसमें इन समस्याओं का समाधान भी है.

दरवाजों में लटके तालों के बीच हार न मानने वाले पहाड़ के एक बुजुर्ग की कहानी है डॉक्यूमेंट्री 'मोती बाग'

'मोतीबाग' डॉक्यूमेंट्री... उत्तराखंड के पौड़ी नगर से पैंतीस किलोमीटर दूर गांव मोती बाग में रहने वाले एक बुजुर्ग की कहानी

बर्फ लदे पहाड़ और उनके सामने उड़ती पंक्तिबद्ध चिड़ियों का झुंड, जिन्हें देखने मैदानी क्षेत्रों के लोग सैंकड़ों किलोमीटर दूर से चले आते हैं. इन पहाड़ों के गांवों में अब बहुत से घरों के दरवाजों में सील लगे ताले लटके हुए हैं, स्थिति यह है कि अब यहां मुर्दा उठाने के लिए भी नेपालियों की जरूरत है. पहाड़ के इसी दर्द को साल 2019 में ऑस्कर के लिए नामित की गई डॉक्यूमेंट्री 'मोती बाग' दिखाया गया है, जिसकी स्क्रीनिंग दून लाइब्रेरी में इस शनिवार की गई.

पहाड़ के खालीपन को दिखाती एक कहानी...
प्रसार भारती, पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टिंग ट्रस्ट की मदद से निर्देशक निर्मल चन्द्र द्वारा बनाई गई 'मोतीबाग' डॉक्यूमेंट्री उत्तराखंड के पौड़ी नगर से पैंतीस किलोमीटर दूर गांव मोती बाग में रहने वाले एक बुजुर्ग की कहानी है. यह कहानी पहाड़ में रहने वाले लोगों की समस्याओं को दिखाती है तो इसमें इन समस्याओं का समाधान भी है.

निर्मल चन्द्र ने मोती बाग में 22.750 किलो की मूली उगाने वाले बुजुर्ग विद्या दत्त शर्मा की कहानी, इस डॉक्यूमेंट्री के जरिए दुनिया के सामने लाने की कोशिश की है. इस डॉक्यूमेंट्री में निर्देशक ने लगभग एक साल विद्या दत्त शर्मा के साथ बिताया है, इसकी वजह से वह पहाड़ के जीवन और वहां की समस्याओं को करीब से समझते हैं. गर्मियों में जंगल में आग तो बरसात भी देखते हैं, जहां विद्या दत्त द्वारा पहाड़ में पानी की समस्या को वर्षा जल संरक्षण से दूर किया जाता है. घर में रहने वाले विद्या दत्त शर्मा के बच्चे उनसे मिलने त्योहारों और पूजा में ही घर आते हैं.

डॉक्यूमेंट्री में ऑल वेदर रोड पर सवाल करते हुए दिखाया गया है कि बाहर से आने वाले लोगों के लिए तो यहां सड़क बन गई है. लेकिन पहाड़ में रहने वाले लोगों के लिए क्या है? यहां तो कई जगह आज भी तक सड़क नही है. गांव में आने वाली रोकी गई एक बस को फिर से चलवाने के लिए बुजुर्ग को भागादौड़ी करते देखना, पहाड़ के खालीपन को हमारे सामने ले आता है. निर्देशक ने पहाड़ के दर्द को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए एक बुजुर्ग की कहानी को शायद इसलिए ही चुना होगा, ताकी उनकी समस्या, मेहनत और अनुभव से इसे देखने वालों को एक उम्मीद और उनकी समस्याओं का हल जरूर मिल जाए.

छायांकन ऐसा कि आंखों को खुला रख दे...
पहाड़ पर कोई फिल्म फिल्मानी हो तो उसका छायांकन शानदार होना बहुत जरूरी है. पलायन पर बनी इस डॉक्यूमेंट्री में रहने वालों के इंतजार में खंडहर बन चुके घरों को उनके असली हाल में दिखाने में निर्देशक को कामयाबी मिली है. इन खंडहर बन चुके घरों में जिस तरह सील लगे तालों को दिखाया गया है, उससे पहाड़ से पलायन का दर्द दर्शकों के दिल में उतर आता है. मिट्टी के चूल्हे में हरी सब्जी बनते देखना शानदार है और यह दृश्य मुंह में पानी लाने में भी कामयाब रहा है.

खेत मे हल जोतने वाले दृश्य को भी कैमरे में बखूबी कैद किया गया है. बर्फ लदे पहाड़ के आगे उड़ती चिड़िया, स्क्रीन पर गेंहू और बुजुर्ग फिर उनके पीछे पहाड़, यह वह दृश्य हैं जिनकी वजह से निर्देशक को कुछ कहने की आवश्यकता नही रह जाती है. यहां पहाड़ की सुंदरता, पहाड़ में खेती की संभावना और पहाड़ से पलायन की समस्या को इन दृश्यों के जरिए ही समझा दिया गया है.

आवाज का असर कुछ ऐसा कि लगे पहाड़ हमारे सामने
डॉक्यूमेंट्री में आवाजों का बड़ा महत्व होता है, इनमें आवाजों के अनुसार दृश्य चुनने होते हैं, क्योंकि फिल्मों की तरह संगीत देने पर डॉक्यूमेंट्री बनावटी लगने का खतरा बना रहता है. निर्देशक ने जिस तरह चिड़ियों का चहचहाना, बैलों के गले की घण्टियों की आवाज़, मक्खियों का भिनभिना दर्शकों को सुनाया है, वह दर्शकों के मन में उनके सामने चल रहे दृश्यों का गहरा असर छोड़ता है.

पहाड़ी कहावत और गीतों को सुनना अद्भुत अनुभव है. इंसानी रिश्तों को लेकर विद्या दत्त द्वारा गाया गया गीत 'मैं कई बार तुमसे हार, मेरी हार हुई तेरी जीत हुई' हर किसी को भावुक कर देगा. कुछ ऐसा ही असर 'गरीबी मिट जाएगी, जिस दिन इस देश के यारों का क्या होगा, महल अटारे चमके दमके पर झोपड़ी का क्या होगा' पंक्तियों से भी हुआ है. बाघ को इंसान से बेहतर परिभाषित करता एक गीत सुनने लायक है.

निर्देशक ने दर्शकों को बस दृश्यों से ही सोच में डुबोया है....
पहाड़ लौटकर अपने खाली पड़े घर की सफाई करने वाला दृश्य कैमरे पर लाकर निर्देशक ने पलायन का हर चेहरा दर्शकों के सामने लाने की कोशिश की है. बंद पड़े स्कूलों की संख्या बताकर वह चौंकाते भी हैं. पहाड़ के गांव और शहर के बीच के अंतर को निर्देशक ने एक दृश्य के जरिए बखूबी दिखाया है, जिसकी वजह से दर्शक उन्हें हमेशा याद करेंगे, पहले दृश्य में हम गांव में लकड़ी का चूल्हा जलता देखते हैं और अगले ही दृश्य में हमें शहर में गैस चूल्हा जला दिखता है.

यहां बोला हर लफ्ज में छिपा है पहाड़ का दर्द 
निर्देशक ने जब लोगों से बातचीत की है तो उन लोगों ने पहाड़ों की समस्या को जिन शब्दों में बयां किया है, वह पहाड़ की सारी समस्याओं को समझाने के लिए काफी हैं. 'विकास तो देहरादून जैसी जगह में हुआ'. वाक्य मैदानी और पहाड़ी क्षेत्रों में अंतर बताता है. 'पहाड़ों को काट के खेत बने, अब वो फिर जंगल बन रहे हैं' वाक्य से पलायन के वास्तविक हालातों की जानकारी मिलती है. 'पलायन रोको नहीं जो बचें हैं, उन्हें देखो' वाक्य पहाड़ के लिए नीति बनाने वालों के लिए एक सलाह है. 'पहाड़ की औरतें बहुत मेहनती होती थी, पहाड़ के लोग मेहनत नही करना चाहते', यह सत्य है जिसे समझना बहुत जरूरी है और इसे समझकर पहाड़ों से पलायन को रोकने के लिए ज्यादा श्रम वाली योजनाओं को न लाकर कम श्रम वाली योजनाओं पर काम करना होगा. विद्या दत्त अपने अनुभव से कहते हैं कि पहाड़ों को जीवित रखना है तो उनकी छितरी जोत को एक जगह दी जाए और वन्य जीव का समाधान चौकीदारी है. ऐसे शब्द हैं जिन्हें गांठ बांध कर पहाड़ों को विकसित किया जा सकता है.

नेपाली अब भी नेपाली ही हैं?

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'मुर्दा उठाने को कोई नहीं है, नेपाली ढूंढे तब उठी' पंक्ति से पहाड़ों में नेपालियों की अहमियत सामने आई है. डॉक्यूमेंट्री में नेपालियों की जिंदगी को काफी करीब से दिखाया गया है. निर्देशक ने नेपाली लोगों से जुड़े बहूत से अनछुए पहलुओं को दर्शकों के सामने लाने का सफल प्रयास किया है. काम की तलाश में सात-आठ दशक पहले काम की तलाश में भारत आए नेपालियों की अब यहां दूसरी तीसरी पीढ़ी रह रही है, वह पहाड़ छोड़ कर जा चुके लोगों के खेतों में खेती कर अच्छा पैसा कमा रहे हैं. शायद उससे भी ज्यादा जितना पलायन कर गए लोग शहरों में कमा रहे हैं. नेपालियों की नई पीढ़ी जिनका जन्म ही यहां हुआ है, वह अब नेपाल वापस नहीं जाना चाहते, उन्हें 'डोटियाल' कहा जाना पसंद नहीं आता.