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उत्तराखंड में खेती पर गहरा संकट : तिल, चौलाई और कीवी बन सकते हैं सहारा

हिमांशु जोशी
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 21, 2025 08:17 am IST
    • Published On नवंबर 21, 2025 08:16 am IST
    • Last Updated On नवंबर 21, 2025 08:17 am IST
उत्तराखंड में खेती पर गहरा संकट : तिल, चौलाई और कीवी बन सकते हैं सहारा

अल्मोड़ा जिले के भिकियासैंण और स्याल्दे क्षेत्र के कई किसानों के अनुसार एक दशक पहले तक आबाद रहने वाली खेती, अब गोवंश और जंगली पशुओं की पहली पसंद बन गई है. खेतों में लगाए पौधे रात भर में नष्ट हो जाते हैं.

चौखुटिया की पुरानी कृषि सफलता और उसका पतन

स्याल्दे के 91 वर्षीय कृषि विशेषज्ञ प्रेमगिरी गोस्वामी बताते हैं कि वर्ष 1974 से 1980 तक वे भारत जर्मनी कृषि विकास परियोजना IGADA में एडवाइजर रहे. उनका कार्यक्षेत्र चौखुटिया था, जो उस समय उच्च उत्पादन वाला ब्लॉक माना जाता था. उनके अनुसार उस दौर में गेहूँ की उन्नत किस्में, धान की कई किस्में और व्यावसायिक सब्जियों का उत्पादन तेजी से बढ़ा.

उन्होंने बताया कि चौखुटिया, स्याल्दे और ऊंचाई वाले अन्य इलाकों में नाशपाती और कागजी नींबू का सफल प्रयोग हुआ था. नाशपाती और नींबू दोनों ही ऊँचाई के हिसाब से बेहतर पैदावार देते थे. गोस्वामी के अनुसार कागजी नींबू की एक खासियत यह थी कि बंदर तक उसे नहीं खाते.

उन्होंने बताया कि वर्ष 1980 में चौखुटिया ब्लॉक को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उच्च उत्पादन के लिए सम्मानित किया गया था. उनके अनुसार पिछले एक से दो दशक में कृषि में गिरावट आवारा पशुओं की संख्या बढ़ने और बैल आधारित कृषि के खत्म होने के बाद शुरू हुई.

आवारा पशुओं से बढ़ती समस्या

प्रेमगिरी गोस्वामी के अनुसार पशु चराई और बैलों के व्यापार में कमी आने के बाद खेत खाली होने लगे. जंगली पशु, खासकर बंदर और सूअर, कई फसलों को नुकसान पहुँचा देते हैं. वे मानते हैं कि वर्तमान स्थिति में खेती को बचाने के लिए सुरक्षित विकल्पों की ओर बढ़ना ही एकमात्र मार्ग है.

तिल की खेती किसानों के लिए सबसे भरोसेमंद विकल्प

गोस्वामी बताते हैं कि तिल वह फसल है जिसे जंगली पशुओं से लगभग कोई खतरा नहीं. उनके अनुसार उन्होंने इस उम्र में भी लोगों को जागरूक कर स्याल्दे सहित कई इलाकों में तिल बड़े पैमाने पर लगाया है. तिल लगभग 120 से 130 दिनों में तैयार हो जाता है. इसका तेल आसानी से बिक जाता है और पूजा सामग्री के रूप में भी इसकी स्थायी मांग रहती है.

उनके अनुसार कम क्षेत्र में भी चार महीने में लगभग दो से हजार रुपये की आमदनी संभव है.

चौलाई, कीवी और कागजी नींबू : सुरक्षित और बाजार में मजबूत

प्रेमगिरी गोस्वामी बताते हैं कि चौलाई भी ऐसी फसल है जिसे जानवर नहीं खाते. चौलाई की हरी पत्तियाँ सब्जी में उपयोग होती हैं और इसके दानों से कई तरह के उत्पाद, जैसे लड्डू और रामदाना, बनाए जाते हैं. यह फसल बाजार में भी स्थायी मांग रखती है. हरिद्वार और स्थानीय पहाड़ी बाजारों में चौलाई के दाने और लड्डू की लगातार मांग रहती है.

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वे आगे बताते हैं कि तिल और चौलाई दोनों में ही पानी की भी कम आवश्यकता पड़ती हे, इनकी तरह कागजी नींबू को भी जानवर नुकसान नहीं पहुँचाते.

वर्ष 2015 में 5000 से 6000 फीट की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में जिला प्रशासन द्वारा उनके सुझाव पर कीवी के पौधे वितरित किए गए थे. शुरुआती वर्षों में कई परिवारों को कीवी की खेती से अच्छी आमदनी हुई.

वे रेशम पालन को भी पहाड़ी क्षेत्रों की महत्वपूर्ण संभावनाओं में गिनते हैं. इसके लिए उन्होंने शहतूत की खेती की है, हालांकि वे जोर देते हैं कि इसके लिए मजबूत तारबाड़ अनिवार्य है ताकि इसे जानवरों से बचाया जा सके.

खेती को पुनर्जीवित करने के लिए क्या जरूरी है

प्रेमगिरी गोस्वामी के अनुसार खेती को फिर से पटरी पर लाने के लिए तीन बातें सबसे महत्वपूर्ण हैं. सुरक्षित फसलों का चयन, अच्छी मार्केटिंग और खेतों तक योजनाओं की पहुंच. उनका मानना है कि यदि खेतों पर काम करने वाली पुरानी योजनाएं फिर से लागू की जाएं और फसलों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए तो कृषि क्षेत्र को राहत मिल सकती है.

अस्वीकरण: इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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