क्या राज्य या केंद्र सरकार के मंत्रियों, सांसदों/विधायकों की अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी पर कोई अंकुश लगाया जा सकता है? इस मामले पर आज सुप्रीम कोर्ट (SC) में आज सुनवाई हुई. आज मामले की सुनवाई के दौरान पांच जजों के संविधान पीठ ने अपनी टिप्पणी दी है. सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक रूप से टिप्पणी करते हुए कहा:
- यह बिना लिखा हुआ नियम है और हमारे संविधान की संस्कृति का हिस्सा है कि सार्वजनिक पद पर आसीन लोगों को संयम बनाए रखना चाहिए.
- उन्हें ऐसी बात नहीं करनी चाहिए जो अपमानजनक हो और दूसरों को चोट पहुँचाती हो.
- इसे राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में शामिल किया जाना चाहिए.
- अदालत ये सोच रही है कि वो यह किस हद तक दखल दे सकती है.
जब पांच जजों के संविधान पीठ ने सुनवाई शुरू की तो जस्टिस बी वी नागरत्ना ने पूछा क्या अनुच्छेद 19 (2) के तहत पहले से लगाए गए प्रतिबंधों के ऊपर बोलने की स्वतंत्रता पर एक और कानून लागू करना अदालत की ओर से सही होगा. सिविल/आपराधिक निषेधाज्ञा और सामान्य कानून आदि जैसे अन्य उपचार पहले से ही उपलब्ध हैं.
दरअसल, पीठ ने 28 सितंबर को कहा था कि सरकार के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों या राजनीतिक दल के अध्यक्षों सहित सार्वजनिक नेताओं को सार्वजनिक रूप से असावधानीपूर्ण, अपमानजनक और आहत करने वाले बयान देने से रोकने के लिए " थिन एयर" में सामान्य दिशानिर्देश तैयार करना "मुश्किल" साबित हो सकता है. इस संबंध में पीठ की राय थी कि तथ्यात्मक पृष्ठभूमि की जांच किए बिना केंद्रीय दिशानिर्देश निर्धारित करना मुश्किल था और केवल मामला-दर-मामला आधार पर ये निर्णय ले सकता है.
जस्टिस एस अब्दुल नजीर, जस्टिस भूषण आर गवई, जस्टिस एएस बोपन्ना, जस्टिस वी राम सुब्रमण्यम और जस्टिस बी वी नागरत्ना की संविधान पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि कब किसके अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को किस हद तक अंकुश लगाना है इस बाबत कोई आम आदेश नहीं दिया जा सकता.ये तो हर केस पर निर्भर करता है.जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि जब पहले से ही संविधान में अधिकार और कर्तव्य के साथ पाबंदी का भी प्रावधान है तो अलग से निषेध का कोई अर्थ नहीं रह जाता है.
इस दौरान, अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने चार सवालों पर ही सुनवाई रखने की बात कही थी. पहला मुद्दा तो ये कि क्या अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी पर अंकुश लगाया जा सकता है? अगर हां तो किस हद तक और कैसे? दूसरा मसला ये कि अगर प्रशासनिक या शासन में तैनात उच्च पद पर तैनात कोई अपनी आजादी का दुरुपयोग करता है तो अंकुश लगाना कैसे संभव होगा? अनुच्छेद 12 के मुताबिक, किसी व्यक्ति, प्राइवेट निगम या अन्य संस्थान इसका अतिक्रमण करें तो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार के कवच के बावजूद ये कैसे पाबंदी के दायरे में आएंगे? वहीं, चौथा और अंतिम मुद्दा ये कि क्या सरकार को इसका वैधानिक प्रावधान के तहत अधिकार है?
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को फैसला करना है कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किसी भी आपराधिक मामले में सरकार के मंत्री या जनप्रतिनिधि कानून के उलट कुछ भी बयान दे सकते हैं? 2017 में सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश की तीन सदस्यीय पीठ ने मामले को संविधान पीठ के पास भेजने की सिफारिश की थी.
बुलंदशहर गैंग रेप मामले में आजम खान के विवादित बयान पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा था.आजम ने इस घटना को सिर्फ राजनीतिक साजिश करार दिया था. हालांकि, खान ने कोर्ट से बिना शर्त माफी मांग ली थी.कोर्ट ने माफीनामा मंजूर भी कर लिया था. तब कोर्ट ने कहा भी था कि बोलने की आजादी के नाम पर क्या आपराधिक मामलों में सरकार के मंत्री या जनप्रतिनिधि नीतिगत मामलों और कानून के विपरीत बयान देना उचित है?
इस सुनवाई के दौरान एमाइकस क्यूरी हरीश साल्वे ने कहा था कि मंत्री संविधान के प्रति जिम्मेदार है और वह सरकार की पॉलिसी और नीति के खिलाफ बयान नहीं दे सकता.गौरतलब है कि बुलंदशहर गैंग रेप मामले में यूपी के पूर्व मंत्री आजम खान ने विवादास्पद बयान दिया था. बाद में आजम खान ने अपने बयान के लिए बिना शर्त माफी मांग ली थी जिसे कोर्ट ने स्वीकार कर लिया था.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने कई संवैधानिक सवाल उठाए जिनका परीक्षण किया जाना है. ये याचिका भी 2016 में ही कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश सरकार के नाम से दाखिल की गई थी.
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