
उत्तर सिक्किम के चट्टेन क्षेत्र में भारी बारिश के बाद आए विनाशकारी भूस्खलन में वीरगति को प्राप्त हुए सिपाही सैनीउद्दीन के पार्थिव शरीर को करीब 2500 किलोमीटर दूर उनके गांव पहुंचाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई. सैनीउद्दीन के शव को 8 दिनों की अथक परिश्रम के बाद 8 जून 2025 को सेना ने बरामद किया. यह सिर्फ एक शरीर की खोज नहीं थी, बल्कि एक सपूत को खो देने के बाद राष्ट्र की ओर से किए जा रहे अंतिम सम्मान की शुरुआत थी. यह एक सैनिक के बलिदान और कर्तव्य के प्रति राष्ट्र की कृतज्ञता थी.

20 दिसंबर 1991 को लक्षद्वीप के अंद्रोत द्वीप पर जन्मे सिपाही सैनीउद्दीन ने 24 मार्च 2012 को सेना में शामिल हुए. अपने 13 साल की सेवा में उन्होंने सियाचिन ग्लेशियर जैसी विषम परिस्थितियों में निडरता का परिचय देते हुए सेना की गौरवशाली परंपराओं को निभाया. अपने अनुशासन, निष्ठा और समपर्ण के लिए वे साथियों और अधिकारियों के बीच विशेष रूप से सम्मानित थे. उनकी अंतिम यात्रा—उत्तर सिक्किम के चट्टेन से लेकर लक्षद्वीप के अंद्रोत तक लगभग 2,500 किलोमीटर की यात्रा आसान नही था. यह कठिन और संवेदनशील यात्रा भारतीय थल सेना, वायु सेना और नौसेना के संयुक्त प्रयास से संभव हो पाया. इसमें स्थानीय प्रशासन ने भी महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया.
सेना के हेलीकॉप्टरों और वायु सेना के ट्रांसपोर्ट विमान C-295 की मदद से यह लंबी और जटिल अंतिम यात्रा संभव हो पाई. 8 जून को बेंगडुबी सैन्य छावनी में सैनीउद्दीन को पूर्ण सैनिक सम्मान के साथ श्रद्धांजलि दी गई. वहीं, अंद्रोत पहुंचने पर भारतीय नौसेना ने उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर प्रदान कर सैनिक बलिदान की पराकाष्ठा को सलामी दी. उस दौरान पूरा का पूरा इलाका सैनीउद्दीन अमर रहे के नारों से गूंज उठा.

उनके कमांडिंग ऑफिसर ने श्रद्धांजलि स्वरूप कहा कि सिपाही सैनीउद्दीन पी.के. भारतीय सेना की उन उच्च परंपराओं के प्रतीक थे, जो निःशब्द कर्तव्यनिष्ठा, अटूट ईमानदारी और अद्वितीय समर्पण में रची-बसी हैं. सियाचिन से सिक्किम तक, उन्होंने हर मोर्चे पर अपने साहस से सभी को प्रेरित किया. उनका बलिदान यह सिखाता है कि सच्चा शौर्य वह है, जो अनदेखे खतरों में भी निस्वार्थ भाव से कर्तव्य निभाता है. हम उन्हें एक वीर सैनिक, प्रिय साथी और भारत मां के सपूत के रूप में सदा याद रखेंगे.”
यह केवल एक पार्थिव शरीर की वापसी नहीं थी. यह एक संकल्प था. यह राष्ट्र की ओर से उसकी माटी के रक्षक को दी गई श्रद्धांजलि थी. यह ‘सेवा से पहले स्वयं' की भावना का जीवंत उदाहरण था. इसके लिये थल, नौसेना और वायुसेना में समन्वय और हर संस्था से मिले सम्मान ने यह स्पष्ट किया कि जब एक सैनिक धरती की रक्षा करता है, तो पूरा देश उसकी गरिमा की रक्षा करता है.
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