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दुनिया आज जैसी भी है, अच्छी हो या बुरी, उसे हम लोगों ने ही बनाया है. हम लोग जिनके पुरखे सैकड़ों हज़ारों साल पहले कहीं और रहे होंगे और आज कहीं और हैं... क्योंकि इंसान कभी किसी एक जगह टिका ही नहीं. कुछ नया करने, कुछ बेहतर पाने, कुछ अनूठा जानने-देखने की उसकी जिज्ञासा उसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाती रही और इस तरह दुनिया में इंसान का प्रवास यानी Migration होता रहा. जो इंसान को भी बदलता गया और उन जगहों को भी बदलता गया, जहां वो जाता रहा. 18 दिसंबर को अंतरराष्ट्रीय प्रवासी दिवस के तौर पर मनाया जाता है. इंसान के प्रवास का ये सिलसिला 70 हज़ार साल पहले अफ्रीका से शुरू हुआ और आज भी जारी है.
क़रीब 30 करोड़ आबादी प्रवासियों की
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कम अवधि के प्रवास की बात करें तो 2020 में दुनिया की आबादी का क़रीब 3.6 फीसदी उन लोगों का है, जो अपने देशों को छोड़कर दूसरे देशों में गए हैं प्रवासी के तौर पर, काम करने, पढ़ने या रहने वगैरह के लिए. दुनिया में आज क़रीब 30 करोड़ आबादी प्रवासियों की है. प्रवास में कई बार मजबूरी होती है और कई बार इच्छा भी. मजबूरी का प्रवास पलायन कहलाता है, जो दुनिया के सामने एक बहुत बड़ा संकट है. दुनिया के कई देश इन दिनों जिन हालात से गुज़र रहे हैं, उन हालात में उनके लोग दूसरे देशों में जाने को मजबूर हैं. ये मजबूरी का प्रवास है. इसके कारण दुनिया के सामने शरणार्थी संकट खड़ा है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के मुताबिक, 2023 के अंत तक दुनिया में ऐसे शरणार्थियों की तादाद 12 करोड़ 26 लाख के पार पहुंच चुकी है. इनमें से 3 करोड़ 20 लाख शरणार्थी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के तहत हैं और 60 लाख फिलिस्तीनी शरणार्थी हैं.
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स्टैनफोर्ड इतिहासकार प्रिया सतिया भारत के 1947 के विभाजन को ही पाकिस्तान और भारत के बीच आज के निरंतर तनाव का जड़ बताती हैं. 1947 में ब्रिटिश भारत का विभाजन कर दो स्वतंत्र देश बनाए गए. एक नाम भारत हुआ तो दूसरे का पाकिस्तान. विभाजन के कारण 10-12 मिलियन लोगों को विस्थापित होने पड़ा. इससे नवगठित देशों में भारी शरणार्थी संकट पैदा हुआ. बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी. विभाजन की हिंसक प्रकृति ने भारत और पाकिस्तान के बीच शत्रुता और संदेह का माहौल पैदा किया, जो अब भी संबंधों को नॉर्मल नहीं होने देता. मगर ये आजाद भारत के लोगों का पहला प्रवास था, ब्रिटिश भारत का नहीं.
गिरमिटिया मज़दूरों का प्रवास
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अठारहवीं शताब्दी तक ब्रिटेन दुनिया में गुलामों के व्यापार की सबसे बड़ी ताक़त बना, लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक अफ्रीका में बड़े पैमाने पर गुलामों की ख़रीद बिक्री बंद हो गई. यूरोपीय देशों, अमेरिका और कई उपनिवेशों में कानून बनाकर गुलामी को ख़त्म कर दिया गया. 1834 में British Slavery Abolition Act लागू हुआ. इसके बाद आज़ाद हुए लोगों ने कम पगार पर वेस्ट इंडीज़ के ब्रिटिश उपनिवेशों में काम करने से इनकार कर दिया. इसके बाद प्रवास का एक और तरीका शुरू हुआ. Indentured वर्कर जिन्हें भारत में गिरमिटिया कहा गया. गिरमिटिया शब्द एग्रीमेंट का टूटा देसी रूप है. ये भी एक तरह की गुलामी थी, जिसके लिए अंग्रेज़ों ने भारत के लोगों का इस्तेमाल किया. वेस्ट इंडीज़, अफ्रीका, दक्षिण पूर्व एशिया में गन्ने, कपास, चाय की खेती और रेल परियोजनाओं पर काम के लिए भारत से लोगों को काम पर रखा गया. उन्हें एक एग्रीमेंट के तौर पर उन जगहों पर ले जाया गया.
पहले विश्व युद्ध के ख़त्म होने तक ऐसे चला
1834 से लेकर पहले विश्व युद्ध के ख़त्म होने तक ब्रिटेन, भारत से ऐसे 20 लाख लोगों को फीजी, मॉरीशस, सीलॉन, त्रिनिडाड, गुयाना, मलेशिया, यूगांडा, केन्या और दक्षिण अफ्रीका के 19 उपनिवेशों में ले जा चुका था. इनमें से भी हज़ारों समुद्री यात्रा के दौरान तबीयत ख़राब होने से मौत के मुंह में चले जाते थे. भारत के अलावा चीन और एशिया प्रशांत इलाके से भी लोगों को गिरमिटिया मज़दूर के तौर पर ले जाया गया. इसके लिए अपने देशों में इन लोगों के साथ पांच साल का कॉन्ट्रैक्ट यानी एग्रीमेंट किया जाता था. उन्हें मेहनताने के तौर पर तनख़्वाह, ज़मीन का छोटा टुकड़ा देने का वादा होता था और ये भी कि कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म होने पर उन्हें वापस उनके देश ले आया जाएगा, लेकिन सच्चाई ये है कि ऐसा बहुत ही कम हुआ. गिरमिटिया मज़दूरों के तौर पर ले जाए लोग पढ़े लिखे नहीं होते थे, उन्हें अपने अधिकारों को कुछ पता नहीं होता था. इसलिए अधिकतर लोग जहां ले जाए गए, वहीं रह गए. वो जिस बेहाली में रहे उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठी, आंदोलन हुए और 1917 में ब्रिटिश सरकार को गिरमिटिया प्रथा बंद करनी पड़ी. इस बीच जो गिरमिटिया मज़दूर जहां गया वहां से लौटा नहीं. आज नए दौर में उन देशों में उनके वंशज एक बड़ी भूमिका निभा रहे हैं.
पंद्रहवीं शताब्दी से जुल्म का दौर
वैसे तो प्रवास दुनिया के हर इलाके में होता रहा, लेकिन जब प्रवास महाद्वीपों को पार कर दूसरे महाद्वीपों तक पहुंचा तो अपने साथ अपने रीति रिवाज़, अपना खान-पान, अपनी भाषा को भी फैलाता चला गया. इतना होता तो ठीक था, लेकिन वो स्थानीय आबादियों के हर सबूत को मिटाता चला गया, उनकी बोली-भाषाएं, रीति-रिवाज़, परंपराएं सब कुछ. सोलहवीं सदी आते आते लंबे प्रवास का ऐसा ही दौर यूरोप से तेज़ हुआ. पंद्रहवीं शताब्दी में यूरोप के अधिकांश देशों में आबादी काफ़ी बढ़ चुकी थी. बढ़ती आबादी के लिए अनाज उगाने को यूरोप की ज़मीन कम पड़ने लगी थी. आबादी के इस विस्फोट ने आपस में लड़ते झगड़ते यूरोप के देशों को बाहर झांकने को मजबूर किया. उस समय दुनिया की अर्थव्यवस्था में चमकता भारत उनकी उम्मीदों का एक बड़ा सहारा था.
ये वो दौर था जब यूरोप से एक के एक बाद कई साहसी खोजी लोग समुद्र के रास्ते दुनिया के अनजानी जगहों को ढूंढने निकले. भारत की खोज में निकला इटली का एक्सप्लोरर कोलंबस समंदर में उलटी दिशा में निकल गया. क़रीब दो महीने की ख़तरनाक समुद्री यात्रा करते हुए 1492 में अमेरिका पहुंच गया. 12 अक्टूबर, 1492 को कोलंबस का जहाज़ जब कैरीबियाई द्वीप बहामास के तट पर उतरा तो यूरोप के लिए एक नई दुनिया खुल चुकी थी. इसके बाद कोलंबस ने दस साल के अंदर अमेरिका की चार यात्राएं कीं और यूरोप को अमेरिका नाम की नई दुनिया का ठीक से पता चल गया.
अमेरिका के लोगों पर टूटा कहर
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फिर क्या था यूरोपीय देशों में अमेरिका तक पहुंचने और अधिक से अधिक इलाकों को हड़पने की होड़ मच गई. सोलहवीं सदी यूरोपीय लोगों के प्रवास के लिहाज से सबसे बड़ी सदी साबित हुई. साहसी खोजियों के पीछे व्यापारी चले आए और उनके लालच ने अमेरिका की स्थानीय आबादियों को बर्बाद करना शुरू कर दिया. फिर धर्म के विस्तार के लिए पादरी भी चले आए. अमेरिका के मूल निवासी और उनकी सभ्यताएं उनके दबाव में कुचली जाती रहीं. अपनी पहचान को खोती रहीं. एक अनुमान के मुताबिक 1500 से बीसवीं सदी के मध्य तक यूरोप से क़रीब छह से सात करोड़ लोग बाहर निकले. इनमें से अधिकतर लोग पहले उत्तरी और दक्षिण अमेरिका में बसे, फिर ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और दक्षिण अफ्रीका में बसते चले गए. अमेरिका में वो सब था जो यूरोपीय लोगों का सपना था. बल्कि उससे भी ज़्यादा. खाली उर्वर इलाके, घास के मैदान, पानी, जंगल, खनिज, सब कुछ. यूरोप के लोग वहां का अनाज अपने साथ वापस लाए और वहां की बीमारियां भीं. अपना अनाज वहां उगाना शुरू किया, अपने जानवरों को वहां ले गए और फिर उनकी बस्तियां वहां बसती चली गईं. अमेरिका अपनी पहचान खोता चला गया.
इन देशों ने अमेरिका को लूटा
अमेरिका में उपनिवेश बनाने वाले शुरुआती यूरोपीय देशों में स्पेन और पुर्तगाल प्रमुख रहे. स्पेन ने मैक्सिको, दक्षिण और मध्य अमेरिका के बड़े इलाकों पर कब्ज़ा किया. पुर्तगाल ने ब्राज़ील पर कब्ज़ा कर लिया. यही वजह है कि इन इलाकों में अब उन्हीं देशों की बोलियां हैं, जिनके वो उपनिवेश रहे. उनकी अपनी बोलियां ख़त्म होती गईं. जब यूरोप पहले पहल अमेरिका के संपर्क में आया था तो वहां की स्थानीय आबादियों की आठ सौ से ज़्यादा भाषाएं थीं और उतना ही रंग बिरंगा और समृद्ध उनकी परंपराएं भीं, लेकिन यूरोप के देशों ने सब कुछ एक रंगी बनाना शुरू कर दिया. उत्तर अमेरिका में फ्रांस ने कनाडा और आज के अमेरिका के कई इलाकों को अपना उपनिवेश बनाया. डच उत्तर अमेरिका की हडसन घाटी और कुछ कैरीबियाई द्वीपों में छा गए. इंग्लैंड ने उत्तर अमेरिका में अटलांटिक के तट पर 13 उपनिवेशों पर राज किया और कई कैरीबियाई द्वीपों पर कब्ज़ा कर लिया. ये यूरोपीय देश अमेरिका की नई ज़मीन पर भी अधिक से अधिक कब्ज़े के लिए आपस में लड़ते रहे और स्थानीय आबादियों से भी उनके अधिकार छीन लिए.
5 करोड़ 60 लाख लोग मारे गए
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंडन के शोधकर्ताओं के मुताबिक यूरोपियन सेटलर्स ने अपने इस हिंसक अभियान में 5 करोड़ 60 लाख से अधिक स्थानीय लोगों को अमेरिका के अलग अलग इलाकों में मार डाला. ये अमेरिका के मूल निवासियों की आबादी का क़रीब 90% बताया जाता है. उनके खेत भी बर्बाद हो गए. इसी रिसर्च के मुताबिक इन खाली खेतों में जो जंगल उगे, उससे दुनिया की आबो हवा भी प्रभावित हुई. क़रीब फ्रांस के क्षेत्रफल के बराबर इलाके में तेज़ी से जंगल उगे, जिन्होंने इतनी कार्बन अवशोषित यानी Absorb की पृथ्वी का तापमान कुछ घट गया. सत्रहवीं शताब्दी की शुरूआत में जो लिटिल आइस एज शुरू हुई, उसके पीछे अब तक कुदरती कारणों को ही वजह माना जाता था, लेकिन UCL की इस रिसर्च के मुताबिक अमेरिका में स्थानीय आबादी के कत्लेआम से खाली हुए खेतों में उगे जंगलों से भी तापमान कुछ कम हुआ.
आजादी के बाद भी नहीं बदले हालात
लेकिन यूरोपीय आक्रांताओं के अमेरिका में जो किया, वो प्रवास के इतिहास के सबसे काले अध्यायों में से एक है. अमेरिका की आज़ादी के बाद भी मूल निवासियों के साथ ये सलूक चलता रहा. उनकी ज़मीनी छीनी जाती रहीं, ख़रीदी जाती रहीं. प्रकृति से बेइंतहा प्यार करने वाले अमेरिका के मूल निवासियों ने अपने खून से सींची जम़ीन के लिए लड़ने को अपना खून बहा दिया. कई किताबें इन अत्याचारों को बताती हैं. स्थानीय कबीलों की वीरता को बताती हैं. क़रीब एक सौ सत्तर साल पहले यूरोपियों के ये अत्याचार जब अपने चरम पर थे तो सूकामिशन नाम के एक कबीले में सिएटल नाम का एक वीर सरदार हुआ. वो एक निडर योद्धा था और उसने छह स्थानीय कबीलों का नेतृत्व किया. दिसंबर 1854 में उसने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलिन पीयर्स को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखा था. हिंदी के जाने माने लेखक अशोक पांडे ने उस पत्र का हिंदी अनुवाद किया है और उसे पढ़ा जाना चाहिए...
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वॉशिंगटन के सरदार ने संदेशा भेजा है कि वह हमारी ज़मीन ख़रीदना चाहता है. आप आसमान को बेच या ख़रीद कैसे सकते हैं - आप धरती के ताप को कैसे ख़रीद सकते हैं? हमारे लिए तो यह विचार ही अजीब है. यह अलग बात है कि हवा की ताज़गी या पानी की चमक पर हमारा कोई अधिकार नहीं. इन्हें आप हमसे कैसे ख़रीद सकते हैं? इस धरती का हर हिस्सा मेरे कबीले के लोगों के लिए पवित्र है. चीड़ वृक्षों का एक एक सूईपत्ता, एक-एक रेतीला तट, जंगल की एक-एक अंधेरी रात, एक-एक खुला मैदान और एक-एक गुनगुनाता झींगुर-पतंगा मेरे लोगों की स्मृति और अनुभव में पवित्रता से दर्ज हैं.
हम पेड़ के भीतर बहने वाले जीवन जल को उस रक्त की तरह जानते हैं जो हमारी नसों में बहता है. हम इस धरती के हिस्से हैं और धरती हमारा हिस्सा है. खुशबूदार फूल हमारी बहनें हैं. भालू, हिरन, बाज - ये सारे सहोदर हैं हमारे! चट्टानी ऊंचाइयां, चारागाह की घास, खच्चर के शरीर की गर्मी और मनुष्य - ये सब एक ही परिवार के सदस्य हैं.
नदियों और धाराओं में बहने वाला पानी केवल पानी नहीं है. वह हमारे पुरखों का रक्त है. पानी की छलछल मेरे पिता के पिता की आवाज़ है. महानद हमारे भाई हैं, वे हमारी प्यास बुझाते हैं. वे हमारी डोंगियों को लेकर जाते हैं और हमारे बच्चों को भोजन देते हैं. तुम्हें नदियों से वैसी मोहब्बत करनी होगी जैसी तुम अपने भाई से करते हो.
((इस लंबे पत्र में सिएटल नाम का सरदार आगे लिखता है...))
हम जानते हैं हमारा जीवन गोरे आदमी की समझ में नहीं आते. उसके लिए धरती का हर टुकड़ा बगल वाले टुकड़े जैसा ही होता है. क्योंकि वह रातों को आने वाला ऐसा अजनबी है, जो धरती से अपने काम की चीज़ें जब चाहे चुरा ले जाता है. वह अपने पुरखों की कब्रें छोड़ जाता है और उसके बच्चों का जन्माधिकार बिसरा दिया जाता है.
गोरे आदमी के शहरों में कोई भी शांत जगह नहीं. कोई जगह नहीं, जहां बसंत की पत्तियों या कीड़ों के परों की फड़फड़ सुनी जा सके. लेकिन चूंकि मैं जंगली हूं, इसलिए समझा नहीं सकता. आपका शोर मेरे कानों के लिए एक अपमान ही है बस. वैसे जीवन में बचता ही क्या है अगर आप चिड़िया की कूक न सुन सकें या रात को तालाब के गिर्द मेढकों के तर्कों को न समझ पाएं.
गोरे लोग भी एक दिन इस संसार से चले जाएंगे. शायद बाकी कबीलों से पहले ही. तुम अपने बिस्तर को गंदा किए जाओ और एक रात तुम्हारे कचरे से तुम्हारा दम घुट जाएगा. जब सारी भैंसें काटी जा चुकी होंगी, सारे जंगली घोड़े पालतू बना दिए गए होंगे, कहां होंगे आदमियों की गंध से अटे जंगलों के गुप्त कोने और कहां वे पहाड़ी दृश्य - वे जा चुके होंगे.
बाज़ कहां होगा? - जा चुका होगा.
जीवन का अंत हो चुका होगा - तब शुरू होगा बचे रहने का युद्ध.
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